कुछ इसी अंदाज़ में विश्व पुस्तक मेला अपनी आखिरी रस्म को निभाता अगली साल के लिए अपना साजोसामान जुटा ले गया और साथ ही यह भी बता गया कि अब साहित्य को पाठक से ज्यादा बाजार की आवश्यकता है जो समय समय पर अपने कलेवरों के नये रुख से बाजार को अवगत कराता रहे और बुद्धि से ज्यादा वो खनकते सिक्कों में नज़र आए।
बाजार की इन आवश्यकताओं की फेसबुक पर साहित्यकारों द्वारा पोस्ट की जाने वाली ' पुस्तक विमोचन की तस्वीरों' की भरमार ये चुगली कर गई कि तमाम सफलताओं के दावों के बाद भी पुस्तक मेले में आम साहित्य प्रेमियों की अपेक्षा प्रोफेशनल साहित्यकारों की भीड़ ज्यादा रही।
साहित्य भी बाजार की भाषा गढ़ने लगा है , बोलने लगा है । ऐसे में कालजयी कृतियां भला कैसे जन्म ले सकती हैं। प्रेमचंद की गंवई कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं, दिलों पर राज करती हैं, निपट निरक्षर कबीरदास,सूरदास, रहीम रसखान पर शोधकार्य चल रहे हैं कि उनकी सोच ऐसी उनका विचार वैसा टाइप...आदि आदि।
कभी सोचें तो मिलेगा कि चाहे आधुनिक काल के प्रेमचंद हों या भक्तिकाल के वो कवि सभी बाजार के शस्त्र और बाजार के नियमों से अनभिज्ञ ही थे।उन्हें चिंता नहीं थी कि किसी संपादक या किसी प्रकाशक या किसी पीआर को इंप्रेस करना है तभी जाकर वो फेमस हो पायेगा , ऐसा ना करने की सूरत में उसे कोई देखना भी गवारा नहीं करेगा।
बाजार दिलों की भाषा नहीं जानता, अलबत्ता जरूरतें जानता है और इन्हीं जरूरतों का सौदा करने में आनंद महसूस करता है। बाजार ऐसी शै है कि जिसके कदम जहां भी पड़े, ज़हनी रूमानियत गायब होती गई। मानवीय दृष्टिकोण से सोचने का तरीका ही बदलता गया। क्वालिटी पर क्वांटिटी पर भारी पड़ती गई मगर उसका खुद का वजन भी तो हवा होता गया ,सोचने के दृष्टिकोण हल्के होते गये। पुस्तक मेलों का नजारा बताने को काफी है कि आज भी क्वालिटी पर क्वांटिटी भारी पड़ रही है। क्वांटिटी का अपना गणित होता है कि कैसे भी छा जाओ, हावी हो जाओ। बाजार किसी भी वस्तु की आत्मा को मानवीय जैसे शब्दों पर नचाता जरूर है मगर वह रूह तक बस जाने की क्षमता नहीं रखता ..... तभी तो कालजयी कृतियों से हम दूर से दूर हो गए हैं । बाकी जो कसर बाकी थी वो हिंग्लिश ने पूरी कर ही दी है। बहरहाल पुस्तक मेले से है लौटकर आने वालों को मालूम है जन्न्त की हकीकत लेकिन ....
साहित्य में प्रोफेशनलिज्म का ये नया आयाम दिखा। इसी प्रोफेशनलिज्म को दिखाया उन साहित्यकारों ने जो जीवन भर साहित्य की एबीसी तलाशते रहे और उम्र के अपने आखिरी दौर में एक किताब लिखकर किसी न किसी बड़े नामचीन साहित्यकार को कैप्चर कर उससे अपनी पुस्तक का विमोचन करा मारा। कई अवसरों पर तो पुस्तक विमोचन कार्यक्रम के दौरान भीड़ के रूप में साहित्यप्रेमी नहीं, बल्कि लेखक के आत्मीय व्यक्ति अधिक देखे गये ।ये बात कड़वी है मगर खरी खरी है।
अधिकांशत: देखा गया है कि पुस्तक मेलों में दर्जनों पुस्तकों का लोकार्पण नामी-गिरामी साहित्यकार करते हैं। कई बार तो ये विमोचन करने वाले साहित्यकार, विमोचित हो रही पुस्तक के बारे में पढ़ना तो दूर की बात, अपना लिखा भी कभी दूसरी बार नहीं पढ़ पाते लेकिन लेखक मंच पर शान से पुस्तकों को हाथ में लेकर फोटो खिंचवाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रहती है।
बेहद उबाऊ रहता है ... एक पुस्तक के बाद दूसरी पुस्तक का विमोचन और उस पर लंबी-लंबी निरर्थक चर्चाएं। जिनका वाकई कोई मतलब नहीं निकलता। ये चर्चाएं न तो आम साहित्यप्रेमियों तक पहुंचती हैं, और न ही उन्हें याद रहती हैं, जिन्होंने कुछ समय पहले ही उस किताब के बारे में ‘बहुत अच्छी-अच्छी’ बातें की होती हैं।
पता तो ये भी चला है कि पुस्तक विमोचन के इस कार्यक्रम को करने कराने में न तो बड़े प्रकाशक पीछे हैं और न ही छोटे प्रकाशक। पुस्तकों पर परिचर्चा आयोजित तो होती है, लेकिन महज मंचीय हसी-मजाक से आगे कोई बात बढ़ ही नहीं पाती। परिणति होती है चाय-पान से। और फिर परिचितों के हाथ में पुस्तकें थमाकर विदा कर दिया जाता है। इन लोकार्पण कार्यक्रमों बाढ़ से सोशल मीडिया साहित्यकारों व विमोचकों की तस्वीरों के लगाने का जो सिलसिला 15 फरवरी से शुरू हुआ है लेकिन चलेगा महीनों । तैयार रहिए्गा .... यानि कुछ कुछ खट्टी... कुछ कुछ मीठी ।
यहां विमर्श और साहित्य से जो दूर चला गया उसी पुस्तक मेले के बारे में तो बस इतना ही कह सकती हूं कि ....
ये वही आलमे दौर है , ये वही निशां हैं लफ़्जों के
जहां गुफ्तगू होती नहीं बस शोशेबाजी चस्पा है ....
- अलकनंदा सिंह
बाजार की इन आवश्यकताओं की फेसबुक पर साहित्यकारों द्वारा पोस्ट की जाने वाली ' पुस्तक विमोचन की तस्वीरों' की भरमार ये चुगली कर गई कि तमाम सफलताओं के दावों के बाद भी पुस्तक मेले में आम साहित्य प्रेमियों की अपेक्षा प्रोफेशनल साहित्यकारों की भीड़ ज्यादा रही।
साहित्य भी बाजार की भाषा गढ़ने लगा है , बोलने लगा है । ऐसे में कालजयी कृतियां भला कैसे जन्म ले सकती हैं। प्रेमचंद की गंवई कहानियां आज भी प्रासंगिक हैं, दिलों पर राज करती हैं, निपट निरक्षर कबीरदास,सूरदास, रहीम रसखान पर शोधकार्य चल रहे हैं कि उनकी सोच ऐसी उनका विचार वैसा टाइप...आदि आदि।
कभी सोचें तो मिलेगा कि चाहे आधुनिक काल के प्रेमचंद हों या भक्तिकाल के वो कवि सभी बाजार के शस्त्र और बाजार के नियमों से अनभिज्ञ ही थे।उन्हें चिंता नहीं थी कि किसी संपादक या किसी प्रकाशक या किसी पीआर को इंप्रेस करना है तभी जाकर वो फेमस हो पायेगा , ऐसा ना करने की सूरत में उसे कोई देखना भी गवारा नहीं करेगा।
बाजार दिलों की भाषा नहीं जानता, अलबत्ता जरूरतें जानता है और इन्हीं जरूरतों का सौदा करने में आनंद महसूस करता है। बाजार ऐसी शै है कि जिसके कदम जहां भी पड़े, ज़हनी रूमानियत गायब होती गई। मानवीय दृष्टिकोण से सोचने का तरीका ही बदलता गया। क्वालिटी पर क्वांटिटी पर भारी पड़ती गई मगर उसका खुद का वजन भी तो हवा होता गया ,सोचने के दृष्टिकोण हल्के होते गये। पुस्तक मेलों का नजारा बताने को काफी है कि आज भी क्वालिटी पर क्वांटिटी भारी पड़ रही है। क्वांटिटी का अपना गणित होता है कि कैसे भी छा जाओ, हावी हो जाओ। बाजार किसी भी वस्तु की आत्मा को मानवीय जैसे शब्दों पर नचाता जरूर है मगर वह रूह तक बस जाने की क्षमता नहीं रखता ..... तभी तो कालजयी कृतियों से हम दूर से दूर हो गए हैं । बाकी जो कसर बाकी थी वो हिंग्लिश ने पूरी कर ही दी है। बहरहाल पुस्तक मेले से है लौटकर आने वालों को मालूम है जन्न्त की हकीकत लेकिन ....
साहित्य में प्रोफेशनलिज्म का ये नया आयाम दिखा। इसी प्रोफेशनलिज्म को दिखाया उन साहित्यकारों ने जो जीवन भर साहित्य की एबीसी तलाशते रहे और उम्र के अपने आखिरी दौर में एक किताब लिखकर किसी न किसी बड़े नामचीन साहित्यकार को कैप्चर कर उससे अपनी पुस्तक का विमोचन करा मारा। कई अवसरों पर तो पुस्तक विमोचन कार्यक्रम के दौरान भीड़ के रूप में साहित्यप्रेमी नहीं, बल्कि लेखक के आत्मीय व्यक्ति अधिक देखे गये ।ये बात कड़वी है मगर खरी खरी है।
अधिकांशत: देखा गया है कि पुस्तक मेलों में दर्जनों पुस्तकों का लोकार्पण नामी-गिरामी साहित्यकार करते हैं। कई बार तो ये विमोचन करने वाले साहित्यकार, विमोचित हो रही पुस्तक के बारे में पढ़ना तो दूर की बात, अपना लिखा भी कभी दूसरी बार नहीं पढ़ पाते लेकिन लेखक मंच पर शान से पुस्तकों को हाथ में लेकर फोटो खिंचवाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रहती है।
बेहद उबाऊ रहता है ... एक पुस्तक के बाद दूसरी पुस्तक का विमोचन और उस पर लंबी-लंबी निरर्थक चर्चाएं। जिनका वाकई कोई मतलब नहीं निकलता। ये चर्चाएं न तो आम साहित्यप्रेमियों तक पहुंचती हैं, और न ही उन्हें याद रहती हैं, जिन्होंने कुछ समय पहले ही उस किताब के बारे में ‘बहुत अच्छी-अच्छी’ बातें की होती हैं।
पता तो ये भी चला है कि पुस्तक विमोचन के इस कार्यक्रम को करने कराने में न तो बड़े प्रकाशक पीछे हैं और न ही छोटे प्रकाशक। पुस्तकों पर परिचर्चा आयोजित तो होती है, लेकिन महज मंचीय हसी-मजाक से आगे कोई बात बढ़ ही नहीं पाती। परिणति होती है चाय-पान से। और फिर परिचितों के हाथ में पुस्तकें थमाकर विदा कर दिया जाता है। इन लोकार्पण कार्यक्रमों बाढ़ से सोशल मीडिया साहित्यकारों व विमोचकों की तस्वीरों के लगाने का जो सिलसिला 15 फरवरी से शुरू हुआ है लेकिन चलेगा महीनों । तैयार रहिए्गा .... यानि कुछ कुछ खट्टी... कुछ कुछ मीठी ।
यहां विमर्श और साहित्य से जो दूर चला गया उसी पुस्तक मेले के बारे में तो बस इतना ही कह सकती हूं कि ....
ये वही आलमे दौर है , ये वही निशां हैं लफ़्जों के
जहां गुफ्तगू होती नहीं बस शोशेबाजी चस्पा है ....
- अलकनंदा सिंह
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