गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
गधों की जिंदगी पर आई आफत, चीनियों की सनक है इसके पीछे
गधों का इंसानों के साथ रिश्ते की शुरुआत सभ्यता की शुरुआत के साथ ही होती है। मनुष्य कम से कम 5000 साल से काम में सहायता के लिए गधों का प्रयोग करता रहा है। आज भी दुनिया के गरीब इलाकों में करीब 50 करोड़ लोगों की आजीविका गधों पर आश्रित है लेकिन चीन में इन गधों की जिंदगी पर शामत आ गई है। हर साल यहां लाखों गधों को मारा जा रहा है। देश में गधों की कमी पड़ गई तो दुनियाभर से चीन में गधे लाए जाने लगे। गधों की जिंदगी पर आई इस आफत के पीछे चीनियों की एक सनक है, जिसे पूरा करने के लिए वो इनके खून के प्यासे हो गए हैं। चीन में ई-जियाओ नाम की एक दवा की भारी डिमांड को पूरा करने के लिए हर साल लाखों गधों की हत्या की जा रही है। ई-जियाओ एक पारंपरिक दवा है, जिसके बारे में दावा किया जाता है कि यह रक्त को शुद्ध करती है। इसके साथ ही स्किन की बीमारियों को ठीक करने, इम्यून सिस्टम को बढ़ाने के साथ ही सौंदर्य उत्पादों और प्रजनन क्षमता को भी बढ़ाने के दावे किए जाते हैं। हालांकि, इसके असर के बारे में वैज्ञानिक समर्थन बहुत कम है।
गधे की खाल से बनाई जाती है दवा
ई-जियाओ को गधे की खाल से निकाले गए कोलेजन का उपयोग करके बनाया जाता है। इसी खाल को पाने के लिए गधों को मारा जाता है। इसकी मांग इतनी ज्यादा है कि सिर्फ दो साल में चीन में गधों की आबादी 2022 में 90 लाख से घटकर 18 लाख पर पहुंच गई। हालत ये हो गई है कि अब चीन के कई इलाकों में गधों की आपूर्ति में दिक्कत हो रही है, जिसके चलते गधों को दूसरे देशों से मंगाया जा रहा है। इनमें अफ्रीका विशेष रूप से है, जहां से बड़ी मात्रा में गधे चीन सप्लाई किए जा रहे हैं।
एक टीवी सीरीज से डिमांड में आई दवा पारंपरिक रूप से ई-जियाओ एक लग्जरी उत्पाद था। 1644 से 1912 तक चीन पर शासन करने वाले किंग राजवंश के दौरान यह अभिजात वर्ग के इस्तेमाल की चीज थी। लेकिन 2011 में शुरू हुई एक लोकप्रिय चीनी टेलीविजन सीरीज 'एम्प्रेस इन द पैलेस' में दिखाए जाने के बाद आम जनता में इसे लेकर आकर्षण शुरू हुआ। अब मध्यम और बुजुर्ग आयु के लोगों में इसकी डिमांड काफी बढ़ गई है। रॉयटर्स ने अपनी रिपोर्ट में चीन के सरकारी मीडिया के हवाले से बताया है कि पिछले एक दशक में इसकी कीमत 100 युआन प्रति 500 ग्राम से बढ़कर आज 2986 युआन (लगभग 35000 भारतीय रुपये) हो गई है। ब्रिटिश चैरिटी संस्था द डंकी सैंक्चुअरी की रिपोर्ट के अनुसार, ई-जियाओ इंडस्ट्री को हर साल 59 लाख गधों की खाल की आवश्यकता होती हैं।
शनिवार, 13 अप्रैल 2024
13 अप्रैल 1984: जब भारत ने सैन्य अभियानों के इतिहास में लिखा स्वर्णिम अध्याय
13 अप्रैल 1984 का वो दिन, जब भारत ने सैन्य अभियानों के इतिहास में सफलता का ऐसा स्वर्णिम अध्याय लिखा जो बीते चार दशक से एक-एक भारतीय को रोमांचित कर रहा है। सियाचिन में चला 'ऑपरेशन मेघदूत' सैन्य इतिहास की एक अविस्मरणीय गाथा है। ऑपरेशन भले ही 1984 में हुआ लेकिन इसकी भूमिका भारत के विभाजन के वक्त ही लिखी गई और पटकथा का बड़ा अंश कश्मीर पर भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्धों के वक्त लिखा गया। दरअसल, इस युद्ध के बाद 1949 में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की मध्यस्थता में दोनों देशों के बीच कराची समझौता हुआ। इसके अनुसार अविभाजित कश्मीर में एक युद्धविराम रेखा (सीएफएल) पर सहमत हुए। युद्धविराम रेखा का सबसे पूर्वी हिस्सा एनजे9842 नामक एक बिंदु से आगे खींची गई थी। तब केवल इतना कहा गया था कि एनजे9842 से यह रेखा 'उत्तर से ग्लेशियरों तक' चलेगी, सियाचिन ग्लेशियर, रिमो और बाल्टोरो होकर।
समझौते में शामिल भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सचिव रहे स्वर्गीय लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा ने बाद में लिखा, 'उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि एनजे9842 से आगे की ऊंचाइयों पर सैन्य अभियान हो सकते हैं। किसी भी मामले में युद्धविराम रेखा बिल्कुल अस्थायी थी। जनमत संग्रह के बाद यह अप्रासंगिक हो जाएगी। इस प्रकार, हमने एनजे9842 से उत्तर की ओर ग्लेशियरों तक एक सीधी रेखा खींची। घटना के बाद बुद्धिमान होना आसान है। यह बेहतर होता अगर एनजे9842 से आगे की रेखा को अस्पष्ट नहीं छोड़ा जाता।'
1982 में जब लेफ्टिनेंट जनरल चिब्बर उत्तरी सेना कमांडर थे, तो उन्हें पाकिस्तानी सेना का एक विरोध पत्र दिखाया गया जिसमें भारत को सियाचिन से बाहर रहने की चेतावनी दी गई थी। सेना ने कड़े शब्दों में इसका विरोध दर्ज कराया और 1983 की गर्मियों के दौरान ग्लेशियर पर गश्त जारी रखने का फैसला किया। जून और सितंबर 1983 के बीच सेना के दो मजबूत गश्ती दलों ने ग्लेशियर का दौरा किया जिनमें से दूसरे ने एक छोटी सी झोपड़ी बना ली। तब पाकिस्तानी पक्ष इसका जोरदार विरोध किया। फिर दोनों पक्षों के बीच विरोध पत्रों और जवाबी पत्रों का सिलसिला सा चलता रहा।
इस दौरान भारतीय सेना समझ गई थी कि पाकिस्तान की नीयत खराब है। यह भी पता चल गया कि पाकिस्तानी सेना सियाचिन ग्लेशियर पर धावा बोलने की तैयारी में है। खुफिया रिपोर्टों में सियाचिन की ओर पाकिस्तानी सैनिकों की आवाजाही की बात आ रही थी। भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ को पता चला कि पाकिस्तानी सेना यूरोप से बड़ी मात्रा में ऊंचाई वाले गियर खरीद रही है। पाकिस्तान की मंशा उजागर होने के बाद भारत ने पाकिस्तान को सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करने से रोकने के लिए 'ऑपरेशन मेघदूत' लॉन्च किया जिसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मंजूरी दी थी।
एक बार भारतीय सेना को इशारा मिल जाए तो भला कौन सी चुनौती है जिसे मात नहीं दी जा सकती! तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल मनोहर लाल छिब्बर, ले. ज. पीएन हून और ले. ज. शिव शर्मा के नेतृत्व में भारतीय सेना ने 'ऑपरेशन मेघदूत' शुरू कर दिया। साल्टोरो रिज पर कब्जे के लिए 10 से 30 अप्रैल के बीच किसी भी दिन ऑपरेशन शुरू करने की योजना बनी। इसका नेतृत्व की जिम्मेदारी दी गई ब्रिगेडियर विजय चन्ना को। उन्होंने 13 अप्रैल की तारीख चुनी। वह बैसाखी का दिन था। पाकिस्तानी सेना ने शायद ही सोचा होगा कि भारत इस दिन ऑपरेशन शुरू करने वाला है।
इस ऑपरेशन की सबसे बड़ी चुनौती थी खराब मौसम और अत्यधिक ठंड, जहां तापमान -40 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। इसके अलावा ऑक्सीजन की कमी और बर्फीली हवाएं जानेलवा सिद्ध हो सकती थीं। फिर भी भारतीय सैनिकों ने अदम्य साहस और उत्कृष्ट रणनीति से इन कठिनाइयों का सामना किया।
पहले चीता हेलीकॉप्टर ने 13 अप्रैल को सुबह 5.30 बजे कैप्टन संजय कुलकर्णी और एक सैनिक को लेकर बेस कैंप से उड़ान भरी। दोपहर तक 17 ऐसी उड़ानें भरी गईं और 29 सैनिकों को बिलाफोंड ला में उतारा गया। जल्द ही, मौसम खराब हो गया और पलटन मुख्यालय से कट गई। तीन दिनों के बाद संपर्क स्थापित हुआ, जब पांच चीता और दो एमआई-8 हेलीकॉप्टरों ने 17 अप्रैल को सिया ला के लिए रिकॉर्ड 32 उड़ानें भरीं। इस तरह, सबसे पहले बिलाफोंड ला और सिया ला की चोटियों पर भारत का फिर से कब्जा हो गया, जिससे पाकिस्तानी सेना के लिए इन रणनीतिक स्थलों तक पहुंच पाना नामुमकिन हो गया।
उसके बाद तो जल्द ही पूरे ग्लेशियर को सुरक्षित कर लिया गया। लेफ्टिनेंट जनरल चिब्बर ने एक आधिकारिक नोट में लिखा, 'दो मुख्य दर्रे बंद कर दिए गए। दुश्मन को पूरी तरह से आश्चर्यचकित कर दिया गया और लगभग 3,300 वर्ग किमी का क्षेत्र, जिसे पाक और यूएसए की ओर से प्रकाशित मानचित्रों पर अवैध रूप से पीओके के हिस्से के रूप में दिखाया गया था, अब हमारे नियंत्रण में था। दुश्मन को कब्जा करने के उनके प्रयास में पहले ही रोक दिया गया था।' ग्लेशियर पर आज भी कब्जा है।
ऑपरेशन मेघदूत भारतीय सैन्य इतिहास में एक प्रेरणादायक अध्याय है। यह वीरता, कुशलता और रणनीतिक सोच का एक प्रतीक है। इस ऑपरेशन ने भारत की रणनीतिक स्थिति को मजबूत किया और पाकिस्तान की आक्रामकता को रोकने में मदद की। यह भारतीय सेना की वीरता और कुशलता का प्रतीक है। आज भी सियाचिन ग्लेशियर पर भारत का नियंत्रण बना हुआ है, जो ऑपरेशन मेघदूत की ही देन है। 13 अप्रैल हमेशा भारतीय सेना के वीर जवानों की बहादुरी और बलिदान को याद दिलाता रहेगा।
सोमवार, 1 अप्रैल 2024
जानिए उस कच्चातिवु द्वीप का इतिहास, जिसे लेकर कांग्रेस पर हमलावर है मोदी सरकार
भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरू मध्य में स्थित एक छोटे से द्वीप कच्चातिवु को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी सरकार और कांग्रेस के बीच जुबानी जंग तेज हो गई है। यह द्वीप भारत के तमिलनाडु राज्य के करीब है। कच्चातिवु द्वीप को लेकर आजादी के बाद से ही विवाद था और और 1974 में हुए समझौते के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे श्रीलंका को दे दिया था। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस मामले में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के रवैये की आलोचना की। उन्होंने कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका को देने के लिए तमिलनाडु की वर्तमान डीएमके सरकार को भी जिम्मेदार ठहराया। आइए जानते हैं कि कच्चातिवु द्वीप का क्या इतिहास रहा है और इसको लेकर भारत और श्रीलंका ने क्यों जोर लगाया हुआ है...कच्चातिवु एक छोटा सा वीरान द्वीप है जो भारत और श्रीलंका के बीच हिंद महासागर में स्थित है। यह 285 एकड़ में फैला हुआ है और 14वीं सदी में ज्वालामुखी विस्फोट से बना था। अंग्रेजों के समय में भारत और श्रीलंका दोनों ही इस द्वीप का प्रशासन करते थे। तमिलनाडु के रामनाथपुरम के राजा रामनद कच्चातिवु द्वीप के स्वामी थे जो मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा था। साल 1921 में श्रीलंका और भारत दोनों ने ही जमीन के इस टुकड़े को मछली पकड़ने के लिए दावा किया। यह विवाद बढ़ता चला गया। भारत की स्वतंत्रता के बाद श्रीलंका के साथ इस विवाद को दूर करने पर बात हुई। इसे बाद 1974 में हुए समझौते के तहत इस द्वीप को भारत ने श्रीलंका को दे दिया।
कच्चातिवु द्वीप के आसपास मछलियों का भंडार
इस समझौते के बाद भी भारत और श्रीलंका के बीच विवाद खत्म नहीं हुआ। भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि इस समझौते की वजह से पिछले 20 वर्षों में भारत के 6,180 मछुआरों को श्रीलंका ने हिरासत में ले लिया। इस दौरान श्रीलंका ने मछली पकड़ने वाली 1175 नौकाओं को भी जब्त किया। विदेश मंत्री ने जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिए गए एक बयान को कोट करते हुए कहा कि नेहरू ने इस द्वीप को 'छोटा द्वीप' बताते हुए कहा था कि वे इस छोटे से द्वीप को बिल्कुल भी महत्व नहीं देते और उन्हें इस पर अपना दावा छोड़ने में कोई झिझक नहीं है। जयशंकर के मुताबिक नेहरू ने यहां तक कहा था कि उन्हें इस तरह के मामले अनिश्चितकाल तक लंबित रखना और संसद में बार-बार उठाया जाना पसंद नहीं है।
जयशंकर ने बताया कि इंदिरा गांधी ने इसे 'लिटल रॉक' बताते हुए कहा था कि इसका कोई महत्व नहीं है। विदेश मंत्री ने बताया कि वर्ष 1974 में दोनों देशों के बीच समझौता हुआ, जिसमें कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका को दे दिया गया, लेकिन वहां पर फिशिंग का अधिकार भारतीय मछुआरों के पास भी था। फिर 1976 में यह तय हुआ कि भारत श्रीलंका की टेरेटरी का सम्मान करेगा। दरअसल, यह पूरा इलाका समुद्री मछलियों और सीफूड से भरा हुआ है। भारत और श्रीलंका दोनों ही देशों के मछुआरे यहां से मछली पकड़ते रहे हैं। भारत के मछुआरों के पास मछली पकड़ने के बड़े-बड़े जहाज हैं जो उसे श्रीलंका पर बढ़त देते हैं। इससे तमिलनाडु को भी बंपर कमाई होती है। साल 2015 में तमिलनाडु ने 93,477 टन सीफूड का निर्यात किया था। इससे 5300 करोड़ की कमाई हुई थी। भारत हर साल अरबों डॉलर का सीफूड निर्यात करता है, इसमें बड़ा हिस्सा कच्चातिवु के पास से आता है। इस इलाके में प्रचुर मात्रा में झींगे भारतीय नावों को श्रीलंकाई जलक्षेत्र में प्रवेश करने के लिए आकर्षित करते हैं। इसी वजह से उनकी गिरफ्तारी भी होती है।
- अलकनंदा सिंंह
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