अमेरिका के मेडिसन राज्य में कृषि विभाग अनुसधान केंद्र में काम कर रहे एक वैज्ञानिक को उसके पाकिस्तानी पिता ने बताया था कि जिस क्षेत्र में वे ग्रामीणों का इलाज करते हैं, वहां दिल का दौरा पड़ना एक अप्रत्याशित बात है। शायद ही किसी को दिल का कोई गम्भीर रोग हो।
वैज्ञानिक डॉक्टर आसिफ कुरैशी के पिता पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में एक चिकित्सक थे। पिता के अनुसार वहां लोग बड़ी मात्रा में जौ खाते हैं क्योंकि यही उस इलाके का मुख्य अनाज है और यही इनके स्वास्थ्य का रहस्य है। कुरैशी अपने पिता के इस अनुभव को वैज्ञानिक स्तर पर सिद्ध करना चाहते थे और अमेरिका की इस प्रयोगशाला में जौ के गुणों की खोज करने लग गए।
यव अथवा जौ पाकिस्तान के पंजाब में ही नहीं, पूरे भारत के कई क्षेत्रों में लोगों का मुख्य भोजन हुआ करता था और आज भी भोजन का महत्त्वपूर्ण अंग है। दैनिक खाने में इस की कमी तभी से आने लगी जबसे जौ का एक और व्यावसायिक उपयोग मालूम हुआ अर्थात् बियर बनाना। जौ रसोई से हट कर शराबखाने में स्थापित हुआ।
यह भारतखण्ड के प्राचीनतम अन्नों में से एक है, गेहूं से बहुत पुराना और शायद चावल से भी कुछ प्राचीन। इसीलिए हमारे धार्मिक अनुष्ठानों में चावल के साथ-साथ जौ का ही उपयोग होता रहा है। जौ पोषक आहार है, यह तो सभी जानते और मानते थे लेकिन वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में इतना पर्याप्त नहीं होता।
वैज्ञानिक जानना चाहते हैं कि इसमें ऐसा क्या है जो इसे पोषक आहार बनाता है और यह भी कि जो रसायनिक पदार्थ इसमें हैं, वे काम किस प्रकार करते हैं।
डाक्टर कुरैशी को पता लगा कि कुछ खाद्य पदार्थ, विशेष कर जौ और जई जैसे अन्न जिगर में उस रासायनिक प्रक्रिया को दबाते हैं जिनसे रक्त में कोलस्ट्रोल पैदा होता है।
दरअसल बताया जाता है कि अगर हम अपने यकृत के साथ जबरदस्ती करना छोड़ दे, तो हम अपने आपको दिल की बीमारी से भी बचा सकते हैं। अगर यकृत कम कोलेस्ट्रॉल बना ले तो जिन कोशिकाओं को रोगकारक एलडीएल की आवश्यकता होती है, वे रक्त से उसे खींच लेती हैं, यानी रक्त में इस प्रकार कोलेस्ट्रॉल एकदम कम हो जाता है। इसी विशेषता के कारण इस बीमारी की पहली औषधि– लोवस्टेटिन बनी।
यकृत जब कोलेस्ट्रोल बनाने वाली फैक्ट्री में बदल जाता है तो इसकी गतिविधि को कम करना आवश्यक हो जाता है। यह जौ में मौजूद रसायानों के कारण हो सकता है। जब कोलेस्ट्रॉल बनाने वाली प्रक्रिया को धीमा कर दिया जाता है तो एलडीएल बनना बंद होता है और रक्त कोशिकाओं के नष्ट होने का खतरा भी समाप्त हो जाता है। डाक्टर आसिफ कुरेशी की यात्रा यहीं पर समाप्त हो गई।
आगे की यात्रा ‘डाक्टर फाइबर’ ने आरम्भ की। फाइबर उनका नाम नहीं था, मोटे अनाजों के फाइबर के बारे में उनके जुनून के कारण उनकी पहचान थी, नाम तो जेम्स एंडरसन था। उन्होंने भी ऐसी किसी बात का आविष्कार नहीं किया जिसके बारे में समाज नहीं जानता था। लोक में तो वह बात प्रचलित ही थी लेकिन कुरेशी की ही तरह एंडरसन ने उसे प्रयोगशाला में सही सिद्ध कर दिया। यह आश्चर्य की बात लगती है कि पिछले दो दशक से दुनिया भर में गंवारू तरह के मोटे अनाजों को इज्जत से देखा जाने लगा है।
आज कल बीसियों तरह के खाद्य बाजार में मिलते हैं जिनमें दावा किया जाता है कि उन में रेशा या फाइबर मिला हुआ है। एंडरसन को लगा कि मुख्य अनाज के अतिरिक्त कुछ तो और है जो कोलेस्ट्रोल बनाने की प्रक्रिया को थामता है। कई प्रकार के प्रयोगों के पश्चात उन्हें पता चला कि वह जौ और जई जैसे अनाजों की बाहरी परत है, जिसमें ऐसे गुण बहुतायत में पाए जाते हैं जो कोलेस्ट्रोल को रोकते हैं। वे वैज्ञानिक तो थे और उनके अनुसंधान का उद्देश्य तो जनहित ही था लेकिन उनके जुनून के पीछे उनका अपनी पीड़ा भी थी। वे रोगी थे, उनका रक्तचाप असाधारण तौर पर ऊंचा रहता था, लगभग 300 से ऊपर। उन्होंने पाया था कि जो लोग फाइबर समेत जौ और जई जैसे अनाजों का अधिक मात्रा में सेवन करते हैं, उनका न केवल कोलेस्ट्रोल ही नियंत्रण में होता बल्कि वे और मायनों में भी अधिक स्वस्थ रहते हैं। उनकी उम्मीद थी कि अगर उस तत्त्व को खोज पाएं, जिसके कारण यह संभव होता है तो उनके रक्तचाप का भी इलाज होगा।
उन दिनों यानी वर्ष 1976 में एक कम्पनी जेई यानी ओटस का एक उत्पाद बडे पैमाने पर बेच रही थी जो कुत्ते बिल्ली जैसे पालतू जानवरों के खाने के लिए उपयोगी माना जाता था। एंडरसन ने उस कम्पनी क्वैकर ओटस कम्पनी को लिखा कि उन्हें जई की भूसी उपलब्ध कराएं। उन्हें मालूम था कि कम्पनी अपना व्यापारिक माल बनाते समय भूसी तो बचा कर रखते नहीं लेकिन उन्हें भी पता था कि जई की भूसी बर्तन की पैंदी में चिपक जाती है और कम्पनी जिन बड़े-बड़े पात्रों में अपना माल बनाती होगी, उनकी पैंदी से भूसी मिल ही जाएगी। हुआ भी वैसा ही।
कम्पनी ने एक बड़ा ड्रम भूसी का भेज ही दिया, जो 533 लोगों को एक बार खिलाई जा सकती थी या पच्चास व्यक्तियों को दस-ग्यारह बार लेकिन इसकी आधी तो एंडरसन ने स्वयं ही खा डाली। कुछ समय पश्चात वे उत्साह में बोले, ‘ मेरा रक्तचाप कुछ ही सप्ताह मे 285 से 175 अंश तक गिर गया। 110 अंश नीचे। मैं शायद पहला मानव हूं जिसने जई की भूसी रक्तचाप कम करने के लिए खाई होगी।’
डाक्टर एंडरसन को यह नहीं पता था कि पूरब में यह बात लगभग हर ग्रामीण को मालूम थी, अलबत्ता वे रक्तचाप और कोलेस्ट्राल जैसी शब्दावली नहीं जानते थे। अनुसंधान की लम्बी यात्रा के पश्चात अब यह चिकित्सक जानते हैं कि जहां जौ सीधे-सीधे यकृत में ही कोलेस्ट्रोल बनाने की प्रक्रिया पर अंकुश लगाता है, वहीं जई की भूसी अंतड़ियों में कुछ रासायनिक पदार्थों में बदल कर आंतों से बाइल के एसिडों को धो डालता है। अगर ऐसा न होता तो ये एसिड जो आंतों में बनते हैं, अंत में कोलेस्ट्राल में बदल जाते हैं।
ठीक इसी आधार पर प्रसिद्ध ऐलेापैथिक औषधि कोलेस्टाइरामाइन भी आंतों को सफाई करके रोग का इलाज करती है।
इन वैज्ञानिकों और दूसरे शोधकर्ताओं के शोध से एक बात साफ तौर पर समझ में आनी चाहिए कि निरामिष यानी केवल शाकाहारी भोजन करने भर से ही कुछ रोगों का हम उतनी कुशलता के साथ सामना कर सकते हैं, जितनी कुशलता की हम आधुनिकतम औषधियों से आशा करते हैं। केवल इतना ही नहीं, प्राकृतिक आहार के कारण लगातार हमारे शरीर में ऐसे सक्रिय औषधीय गुणों से युक्त पदार्थों को आहार के रूप में नियमित तौर पर लेते रहते हैं जो अनेक रोगों को आरम्भ ही नहीं होने देते। निरामिष आहार करने वाले समाजों के दीर्घजीवी होने का बस यही रहस्य है। जौ और जेई की भूसी से बना आहार विशेष रूप से उन लोगों के लिए वरदान साबित हो सकता है जिनको आंतों की गम्भीर बीमारियों जैसे कैंसर आदि का खतरा रहता है।