कहते हैं कि किसी बीमारी को ठीक करने के किसी नेक दिल की दुआ और अच्छे डॉक्टर की दवा दोनों की जरूरत होती है । चूंकि ईश्वर प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं होता इसलिए डॉक्टर को ही ईश्वर तुल्य माना जाता रहा, अभी कुछ वर्ष पूर्व तक ये होता भी था कि डॉक्टर ने हाथ पकड़ा नहीं कि मरीज आधा तो उसी वक्त ठीक महसूस करने लगता था। डॉक्टर नब्ज़ थामता हुआ पूछता जाता घर के हालचाल , मौसम की बातें करता हुआ वह न केवल रोग की तह तक जा पहुंचता बल्कि रोगी की मनोदशा का आंकलन करके दवाऐं देता था। इस पूरी प्रक्रिया में चंद मिनट ही तो लगते थे। मगर यह मरीज को आश्वस्त कर देती थी कि अब उसे कुछ नहीं होगा, वह सुरक्षित हाथों में है । बीमार तन को ठीक करने का ये मन से होता हुआ रास्ता बिना खर्च किये, बिना समय बरबाद किये बखूबी चल रहा था जो फैमिली डॉक्टर जैसे रिश्तों को जन्म दे गया ।
समय बदला , उदारीकरण आया, ग्लोबलाइजेशन ने शिक्षा को धंधा बना दिया , चिकित्सा जगत भी इसकी चपेट में आया। मेडीकल कॉलेज में काबिलों के साथ साथ नाकाबिल भी डोनेशन के बूते एडमीशन- इंटर्नशिप से लेकर बड़े बड़े आलीशान नर्सिंग होम बनाकर आई एम ए जैसी एसोसिएशन्स के जरिये मरीजों को कमोडिटी की तरह ट्रीट करने लगे। सब बदल गया मगर ये बदलाव डॉक्टर और मरीज के बीच ईश्वरतुल्य वाली छवि को ध्वस्त कर गया। जो सेवा थी वो पेशा बन गई। जहां स्पर्शमात्र से आधा दर्द चला जाता था, वहां मिनीमम एक दर्ज़न टेस्ट कराके भी परिणामों की श्योरिटी नहीं होती। लापरवाहियों के उदाहरण आम हो गये हैं। प्रत्यक्षत: लिंग परीक्षण पर रोक लगी है मगर कौन नहीं जानता कि भ्रूण हत्याओं का ऊंचा ग्राफ सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर्स की इस प्रोफेशनलिज्म की प्रवृत्ति की वजह से आगे चढ़ा और खुद आईएमए ने कभी कोई कार्यवाही नहीं की,वरना सरकार को क्यों तरह तरह से भ्रूण हत्या रोकने को उपाय करने पड़ते। इसके बावजूद जब आज नेशनल डॉक्टर्स डे पर कुछ डॉक्टर्स से बात की तो उन्होंने मरीज और डॉक्टर्स के बीच पनप रहे अविश्वास को लेकरअनगिनत मजबूरियां तो गिना दीं मगर प्रोफेशनलिज्म को सेवा मानने को वे हरगिज़ तैयार न थे ।
बदलते समय की ये नई परिभाषायें अपने साथ बहुत से बदलाव लाई जिसने डॉक्टर्स को भी सेवा की जगह प्रोफेशनल और प्रैक्टीकल बना दिया और अब आलम ये है कि एक बड़े डॉक्टर कहते हैं कि आज बिना प्रेाफेशनल बने खर्चे निकालना मुश्किल है, तो वहीं दूसरे डॉक्टर ने कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट को ही इस सबका दोष दे दिया । वे बोले, सीपीए यानि कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट की वजह से डॉक्टरों में कोर्ट में घसीटे जाने का डर लगा रहता है। किसी एक बीमारी के लिए भी तमाम टेस्ट कराने पर वो अपनी सफाई देते हैं कि कोई डॉक्टर रिस्क सीपीए की वजह से नहीं लेना चाहता इसलिए वह एक सिर दर्द होने पर भी सभी टेस्ट कराके आश्वस्त हो जाने के बाद ही इलाज करना शुरू करता है ताकि कोई कोताही न होने पाए।
एक डॉक्टर तो कहते हैं कि आजकल प्रोफेशनल होना हमारी मजबूरी है , वरना इतने महंगे इक्विपमेंट्स , स्टाफ की सैलरी , बिजली से लेकर मैडीकल वेस्ट तक का खर्चा कहां से निकले।इस सफाई में वो असल सवाल टाल ही गए कि मरीज और डॉक्टर से बीच आए अविश्वास को कैसे कम किया जाए।
तमाम बहानों के साथ ही ये तो निश्चत हो गया कि विश्वास का संकट तो स्वयं डॉक्टर्स ने ही उपजाया है । जहां तक मरीजों द्वारा कानून की शरण लेने की बात है तो जो रोग से जूझ रहा हो , क्या वो शौकियातौर पर जाना चाहेगा कोर्ट । हमारे देश में कोर्ट जाना या न्याय पाना क्या इतना आसान है।
इनकी तरह कई और डॉक्टर्स ने भी बहानों का पहाड़ खड़ा किया मगर सभी के सभी टोटल इललॉजिकल। समस्या को फिलहाल वो सतही तौर पर देख रहे हैं जो पूरी के पूरी स्वास्थ्य सेवाओं के खतरनाक है।
अब बताइये कि एक पर्ची पर केवल एक हफ्ते ही दिखाया जा सकता है, अगले हफ्ते के लिए फिर से दूसरी पर्ची पूरी फीस चुकाकर बनवानी पड़ेगी, चाहे कितना भी रेग्यूलर चेकअप क्यों न करवा रहे हों । इसी तरह नर्सिंग होम के अंदर ही मेडीकल स्टोर, पैथेलॉजी लैब, कैंटीन और ऐसी ही सुविधाओं के साथ पूरा बिजनेस सेटअप ... दवा कंपनियों के ऑब्लीगेंटरी गिफ्ट्स पर विदेशों की सैर का लालच के चलते जेनेरिक दवाओं को डॉक्टर्स प्रेस्क्राइब ही नहीं करते ....आलीशान 5 और 7 स्टार्स हॉस्पीटल्स के '' ऑफर्स '' के साथ पैम्फलेट बांटा जाना, एक बीमारी के इलाज के साथ दूसरे टेस्ट्स फ्री... बताने वाले आदि ऐसे सच हैं जिनसे आप सभी कभी ना कभी तो दोचार हुए ही होंगे। इसके अलावा गांवों में जाना तो स्वयं सरकारी डॉक्टर्स पसंद नहीं करते , वो भी शहरों के नर्सिंग होम्स के साथ कांट्रेक्ट्स करके रखते हैं ताकि प्रोफेशनल हो सकें... । ये कुछ सच्चाइयां हैं जो मरीज को मरीज नहीं बल्कि कमोडिटी बनाकर उसके विश्वास के साथ खेल रही हैं... इस स्थिति से बाज आना होगा और विश्वास बहाली का पहला कदम तो डॉक्टर्स को ही उठाना होगा ।
और अंत में आज नेशनल डॉक्टर्स डे है जो डॉ बी सी रॉय की याद में प्रति वर्ष १ जुलाई को मनाया जाता है , यही उनका जन्मदिन भी है और पुण्य तिथि भी। 1961 में भारत रत्न से सम्मानित डा. रॉय के नाम पर १९७६ में सरकारें उनके सम्मान में चिकित्सा , विज्ञानं , आर्ट , और राजनीति के क्षेत्र में विशिष्ठ कार्य के लिए डॉ बी सी रॉय नेशनल अवार्ड देती आई हैं।
इस दिन हर वर्ष सभी चिकित्सक संस्थाएं अपने उन डॉक्टर्स को सम्मानित करती हैं , जो अपने क्षेत्र में सराहनीय कार्य कर रहे हैं । तो डॉक्टर्स डे के इस हीरों के नाम पर ही सही आज के इस सेवाकार्य के बदलते प्रोफेशनल रूप को लेकर हम सभी को सोचना होगा। दोषारोपण से नहीं बल्कि सार्थक बदलाव लाकर हम मानवीय आधार पर सर्वश्रेष्ठ कर पाऐं , ऐसा उपाय करना होगा।
- अलकनंदा सिंह
समय बदला , उदारीकरण आया, ग्लोबलाइजेशन ने शिक्षा को धंधा बना दिया , चिकित्सा जगत भी इसकी चपेट में आया। मेडीकल कॉलेज में काबिलों के साथ साथ नाकाबिल भी डोनेशन के बूते एडमीशन- इंटर्नशिप से लेकर बड़े बड़े आलीशान नर्सिंग होम बनाकर आई एम ए जैसी एसोसिएशन्स के जरिये मरीजों को कमोडिटी की तरह ट्रीट करने लगे। सब बदल गया मगर ये बदलाव डॉक्टर और मरीज के बीच ईश्वरतुल्य वाली छवि को ध्वस्त कर गया। जो सेवा थी वो पेशा बन गई। जहां स्पर्शमात्र से आधा दर्द चला जाता था, वहां मिनीमम एक दर्ज़न टेस्ट कराके भी परिणामों की श्योरिटी नहीं होती। लापरवाहियों के उदाहरण आम हो गये हैं। प्रत्यक्षत: लिंग परीक्षण पर रोक लगी है मगर कौन नहीं जानता कि भ्रूण हत्याओं का ऊंचा ग्राफ सिर्फ और सिर्फ डॉक्टर्स की इस प्रोफेशनलिज्म की प्रवृत्ति की वजह से आगे चढ़ा और खुद आईएमए ने कभी कोई कार्यवाही नहीं की,वरना सरकार को क्यों तरह तरह से भ्रूण हत्या रोकने को उपाय करने पड़ते। इसके बावजूद जब आज नेशनल डॉक्टर्स डे पर कुछ डॉक्टर्स से बात की तो उन्होंने मरीज और डॉक्टर्स के बीच पनप रहे अविश्वास को लेकरअनगिनत मजबूरियां तो गिना दीं मगर प्रोफेशनलिज्म को सेवा मानने को वे हरगिज़ तैयार न थे ।
बदलते समय की ये नई परिभाषायें अपने साथ बहुत से बदलाव लाई जिसने डॉक्टर्स को भी सेवा की जगह प्रोफेशनल और प्रैक्टीकल बना दिया और अब आलम ये है कि एक बड़े डॉक्टर कहते हैं कि आज बिना प्रेाफेशनल बने खर्चे निकालना मुश्किल है, तो वहीं दूसरे डॉक्टर ने कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट को ही इस सबका दोष दे दिया । वे बोले, सीपीए यानि कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट की वजह से डॉक्टरों में कोर्ट में घसीटे जाने का डर लगा रहता है। किसी एक बीमारी के लिए भी तमाम टेस्ट कराने पर वो अपनी सफाई देते हैं कि कोई डॉक्टर रिस्क सीपीए की वजह से नहीं लेना चाहता इसलिए वह एक सिर दर्द होने पर भी सभी टेस्ट कराके आश्वस्त हो जाने के बाद ही इलाज करना शुरू करता है ताकि कोई कोताही न होने पाए।
एक डॉक्टर तो कहते हैं कि आजकल प्रोफेशनल होना हमारी मजबूरी है , वरना इतने महंगे इक्विपमेंट्स , स्टाफ की सैलरी , बिजली से लेकर मैडीकल वेस्ट तक का खर्चा कहां से निकले।इस सफाई में वो असल सवाल टाल ही गए कि मरीज और डॉक्टर से बीच आए अविश्वास को कैसे कम किया जाए।
तमाम बहानों के साथ ही ये तो निश्चत हो गया कि विश्वास का संकट तो स्वयं डॉक्टर्स ने ही उपजाया है । जहां तक मरीजों द्वारा कानून की शरण लेने की बात है तो जो रोग से जूझ रहा हो , क्या वो शौकियातौर पर जाना चाहेगा कोर्ट । हमारे देश में कोर्ट जाना या न्याय पाना क्या इतना आसान है।
इनकी तरह कई और डॉक्टर्स ने भी बहानों का पहाड़ खड़ा किया मगर सभी के सभी टोटल इललॉजिकल। समस्या को फिलहाल वो सतही तौर पर देख रहे हैं जो पूरी के पूरी स्वास्थ्य सेवाओं के खतरनाक है।
अब बताइये कि एक पर्ची पर केवल एक हफ्ते ही दिखाया जा सकता है, अगले हफ्ते के लिए फिर से दूसरी पर्ची पूरी फीस चुकाकर बनवानी पड़ेगी, चाहे कितना भी रेग्यूलर चेकअप क्यों न करवा रहे हों । इसी तरह नर्सिंग होम के अंदर ही मेडीकल स्टोर, पैथेलॉजी लैब, कैंटीन और ऐसी ही सुविधाओं के साथ पूरा बिजनेस सेटअप ... दवा कंपनियों के ऑब्लीगेंटरी गिफ्ट्स पर विदेशों की सैर का लालच के चलते जेनेरिक दवाओं को डॉक्टर्स प्रेस्क्राइब ही नहीं करते ....आलीशान 5 और 7 स्टार्स हॉस्पीटल्स के '' ऑफर्स '' के साथ पैम्फलेट बांटा जाना, एक बीमारी के इलाज के साथ दूसरे टेस्ट्स फ्री... बताने वाले आदि ऐसे सच हैं जिनसे आप सभी कभी ना कभी तो दोचार हुए ही होंगे। इसके अलावा गांवों में जाना तो स्वयं सरकारी डॉक्टर्स पसंद नहीं करते , वो भी शहरों के नर्सिंग होम्स के साथ कांट्रेक्ट्स करके रखते हैं ताकि प्रोफेशनल हो सकें... । ये कुछ सच्चाइयां हैं जो मरीज को मरीज नहीं बल्कि कमोडिटी बनाकर उसके विश्वास के साथ खेल रही हैं... इस स्थिति से बाज आना होगा और विश्वास बहाली का पहला कदम तो डॉक्टर्स को ही उठाना होगा ।
और अंत में आज नेशनल डॉक्टर्स डे है जो डॉ बी सी रॉय की याद में प्रति वर्ष १ जुलाई को मनाया जाता है , यही उनका जन्मदिन भी है और पुण्य तिथि भी। 1961 में भारत रत्न से सम्मानित डा. रॉय के नाम पर १९७६ में सरकारें उनके सम्मान में चिकित्सा , विज्ञानं , आर्ट , और राजनीति के क्षेत्र में विशिष्ठ कार्य के लिए डॉ बी सी रॉय नेशनल अवार्ड देती आई हैं।
इस दिन हर वर्ष सभी चिकित्सक संस्थाएं अपने उन डॉक्टर्स को सम्मानित करती हैं , जो अपने क्षेत्र में सराहनीय कार्य कर रहे हैं । तो डॉक्टर्स डे के इस हीरों के नाम पर ही सही आज के इस सेवाकार्य के बदलते प्रोफेशनल रूप को लेकर हम सभी को सोचना होगा। दोषारोपण से नहीं बल्कि सार्थक बदलाव लाकर हम मानवीय आधार पर सर्वश्रेष्ठ कर पाऐं , ऐसा उपाय करना होगा।
- अलकनंदा सिंह