सदा बसंत रहत वृंदावन पुलिन पवित्र सुभग यमुना तट।।
जटित क्रीट मकराकृत कुंडल मुखारविंद भँवर मानौं लट।
ब्रज में यूं तो ऋतुओं की भरमार है किंतु एक ऋतु ऐसी है जो ब्रज में अपने उन्माद को लिए हुए नित्य विराजमान है और वह है वसंत ऋतु। वृंदावन के रसिक आचार्य ने तो यहां तक कहा है की ब्रज से वसंत कभी भी एक क्षण के लिए बाहर नही जाता अपितु वह तो सदा सर्वदा यही श्री राधा कृष्ण की सेवा में रत रहता है। बसंत पंचमी का उत्सव इसी के अंतर्गत मनाया जाता है।
ज्योतिष एवं आयुर्वेद के अनुसार चैत्र तथा वैशाख मास को वसंत ऋतु माना गया है। शल्य चिकित्सा के प्रवर्तक सुश्रुत ने तो वसंत के लिए कहा है कि “मधुमाधवौ वसन्तः” अर्थात मधु(चैत्र) और माधव(वैशाख) ही वसंत है। तैत्तिरीय संहिता में भी कहा गया है कि “मधुश्व माधवश्व वासन्तिकावृत” अर्थात् मधु और माधव मास ही वसन्त ऋतु। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ऋतुओं का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि “तस्य ते वसन्तः शिरः” अर्थात् वर्ष का सिर (शीर्ष) ही वसन्त ऋतु है। कालिदास ने वसंत ऋतु के वर्णन में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ऋतुसंहार में कहा है “सर्वप्रिये चारूतरं वसन्ते” अर्थात वसंत ऋतु में सब कुछ मनोहर ही मालूम पड़ता है। इसके साथ ही गीत गोविंद में श्री जयदेव गोस्वामी लिखते है “विहरति हरिरिह सरस वसंते” अर्थात वसंत के वियोग से सभी दिशाएं प्रसन्न हो रही है। किंतु वर्तमान लोकांचल यानी उत्तर एवं पूर्वी भारत में मुख्यतः वसंत का आगमन माघ शुक्ल पंचमी अर्थात वसंत पंचमी के दिन ही माना जाता है।
वसंत ऋतु के आगमन की बात करें तो माघ मास में भगवान भास्कर के मकर राशि में प्रवेश के उपरांत शीत ऋतु का प्रकोप कम होने लगता है। माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को ऋतुराज वसंत का आगमन पृथ्वी पर एक उत्सव के रूप में होता है। बसंत के स्वागत में वसुधा अपने रूप को सँवार कर बसंत का स्वागत करती है। बसंत के आगमन पर संपूर्ण सृष्टि में मादकता सी छा जाती है साथ ही पेड़ों के नवीन पात, वन उपवन में फूलों से लदी डाली, आम के बौर, कोयल की कूक एवं सरसों के रूप में पीली चुनर ओढ़े धरती यह सब सूचना देती हैं कि बसंत अब आ चुका है।
ब्रज में यह उत्सव अत्यंत ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जहां प्राय भारत में अन्य जगह इस उत्सव पर लोग पीले वस्त्र धारण कर वाग्देवी श्री सरस्वती मां का पूजन अर्चन करते है वही दूसरी और ब्रज में यह उत्सव कुछ अलग ही ढंग से मनाया जाता है। वसंत पंचमी के दिन से ब्रज के सुप्रसिद्ध ४५ दिवसीय होलीकोत्सव का प्रारंभ हो जाता है। वसंत पंचमी को ब्रज में होली का प्रथम दिन माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ऋतुओं में स्वयं को वसंत ऋतु बताया है :-
बृहत्साम तथा साम्नांगायत्री छन्दसामहम।
मासानां मार्गशीर्षोहमृतूनां कुसमाकरः।।
गायी जानेवाली श्रुतियों में बृहत्साम हूँ, वैदिक छन्दों में गायत्री छन्द हूँ, बारह महीनों में मार्गशीर्ष हूँ तथा छः ऋतुओं में, मैं ही वसन्त हूँ।
ब्रज के गांवों, नगरों एवं मंदिरों में वसंत उत्सव मनाने की परंपरा अनवरत रूप से आज भी जारी है। बसंत पंचमी से ब्रज में बसंत उत्सव का श्रीगणेश हो जाता है। इस दिन ठाकुरजी नवीन पीले वस्त्र धारण करते है। मंदिरों की सजावट भी पीले साज, वस्त्रों एवं फूलों से की जाती है। यहां तक कि पुजारी भी पीले वस्त्र पहन कर ही मंदिरों में सेवा करने हेतु पधारते है। नए सरसों के फूल ठाकुरजी को वसंत आगमन के उपलक्ष्य में निवेदित किए जाते है। साथ ही साथ कई जगह तो विशेष पीले रंग के भोग निवेदित किए जाते है। अपने इष्ट के मनमोहक स्वरूप को देखकर बृजवासी प्रेम के वशीभूत होकर सहज ही गा उठते हैं-
“श्यामा श्याम बसंती सलोनी सूरत को श्रंगार बसंती है”
श्री राधा कृष्ण की जो छटा है वह भी वसंती है (नित्य नवीन) तथा उनका श्रृंगार भी वसंती है।
बसंत पंचमी के दिन होली का डांढ़ा (खूंटा) गढ़ जाता है। होली का डांढ़ा वास्तव में वह खम्बा होता है जिसके ऊपर होलिका दहन हेतु लकड़ियाँ लगाई जाती है। आज से ही वृंदावन में होली का प्रारंभ भी हो जाता है। सभी देवालयों में होलिकाष्टक( होली से आठ दिन पहले) तक राजभोग पर यानि दोपहर समय अबीर गुलाल उड़ाया जाता है। विश्वविख्यात ठाकुर बांके बिहारी मंदिर में प्रसाद स्वरूप अबीर -गुलाल भक्तों और दर्शनार्थियों के ऊपर बहुत ही अधिक मात्रा में उड़ाया जाता है।
इसी के साथ वृंदावन में स्थित शाह बिहारी मंदिर में बसंत पंचमी के दिन बसंती कमरा 3 दिनों के लिए खुलता है। रंग- बिरंगी रोशनी से सराबोर बसंती कमरे में विराजमान ठाकुर राधा रमण लाल की अलौकिक छटा होती है। यह कमरा वर्ष में बहुत ही कम दिनों के लिए खुलता है। इस कमरे में बेल्जियन कांच के बने झाड़ फ़ानूस लगे हुए है जिससे इसकी शोभा और बढ़ जाती है। होली का छेता निकलने के साथ ही वृंदावन के प्रमुख मंदिर श्री राधावल्लभ मंदिर, श्री राधारमण मंदिर, श्री राजबिहारी कुंज बिहारी मंदिर, श्री राधा दमोदर मंदिर आदि अन्य मंदिरों में भी बसंत उत्सव का प्रारंभ हो जाता है।
कुहू कुहू कोकिला सुनाई। सुनि सुनि नारि परम हरषाई।।
बार बार सो हरिहि सुनावति। ऋतु बसंत आयौ समुझावति।।
फाग-चरित-रस साध हमारै। खेलहिं सब मिलि संग तुम्हारै।।
सुनि सुनि ‘सूर’ स्याम मुसुकाने। ऋतु बसंत आयौ हरषाने।।
कोयल की कुहू कुहू सुनकर सभी सखियाँ हर्ष से फूली नहीं समा रही है और वह श्री कृष्ण को नित्य विहार हेतु यह कह कर मना रही है कि सुनो प्रिय वसंत ऋतु का आगमन हो चूका है। अतः अंत में सखियों के मनाने से श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्काने लग जाते है और सखियों के संग वसंत उत्सव मानने चले जाते है।
वृंदावन के मंदिरों में बसंत की समाज भी अद्भुत होती है। वाणी साहित्य में श्यामा- श्याम के बसंत खेल का वर्णन प्रचुर मात्रा में किया गया है। इन पदों का गायन ठाकुर जी के समक्ष पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ किया जाता है। ब्रज में बसंत गायन की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। रसिक उपासना का केंद्र रहे वृंदावन में बसंत लीला को निकुंज लीला से जोड़कर भी देखा जाता है। हरित्रयी के नाम से विख्यात रसिक संत स्वामी श्री हरिदास जी, श्री हरिराम व्यास जी एवं श्री हित हरिवंश जी ने अपने रचित पदों में बसंत का भरपूर गान किया है। वृंदावन की मंदिर परंपरा में आज भी बसंत के इन पदों का गान किया जाता है। ब्रज में बसन्त पूजन की परंपरा अत्यंत प्राचीन है।
बसंत पंचमी पूजन विधि
महावाणी’ नामक ग्रंथ में बसंत पूजन विधि का विशद वर्णन किया गया है जिसे गोलोक वृन्दावन (नित्य वृन्दावन जहां केवल राधा कृष्ण एवं सखियाँ होती है) में सखियाँ मिल कर सम्पादित करती है। इसमें मुख्य रूप से सखियों द्वारा पुष्प समर्पण और संगीत द्वारा सेवा निवेदित कर श्री राधा कृष्ण की वसंत सेवा को बड़ी ही सुंदरता के साथ बताया गया है। चूंकि भौम वृंदावन उस गोलोक वृंदावन का ही प्रतिबिंब है इसलिए ठीक उसी प्रकार वृंदावन एवं ब्रज में वसंत पंचमी पर उत्सव आदि किए जाते है। हरिभक्तिविलास के अनुसार वसंत पंचमी पर मंदिरों में नव पत्र, पुष्प एवं अनुलेपन द्वारा मंदिरों में पूजा संपादित की जाती है। श्री राधा कृष्ण की वसंत के नए पीले सरसों के फूल चढ़ाए जाते है। इसके साथ ही संगीत सेवा जो कि वृंदावन की सेवा परिपाटी का अभिन्न अंग है वो भी वसंत पंचमी पर विशेष महत्व रखती है। वसंत राग का प्रारंभ इसी दिन से शुरू हो जाता है व समाज गायन ने वसंत राग से भरे पदावलियों का गायन किया जाता है।
और राग सब बने बराती दुल्हो राग बसंत,
मदन महोत्सव आज सखी री विदा भयो हेमंत।
रसिक शिरोमणि स्वामी हरिदास वृंदावन की रस निकुंज में जहाँ कुंजबिहारी अपना वसंतोत्सव मना रहे हैं, इस दिव्य रस उत्सव का दर्शन कराते हुए गान करते हैं-
कुंजबिहारी कौ बसन्त सखि, चलहु न देखन जाँहि।
नव-बन नव निकुंज नव पल्लव नव जुबतिन मिलि माँहि।
बंसी सरस मधुर धुनि सुनियत फूली अंग न माँहि।
सुनि हरिदास” प्रेम सों प्रेमहि छिरकत छैल छुवाँहि।।
सखी कह रही है की चलो नव पल्लवों से युक्त वसंत से ओत प्रोत उस कुञ्ज की ओर चले जहां श्याम वंसी बजा रहे है। उस कुञ्ज में सभी आनंद से फुले हुए है और प्रेम रूपी अबीर ही सब पर डाला जा रहा है।
भारतेंदु बाबू द्वारा रचित ‘मधु मुकुल’ की पंक्तियां वृंदावन के बसंत का वर्णन कुछ इस प्रकार करती हैं-
एहि विधि खेल होत नित ही नित, वृन्दावन छवि छायो।
सदा बसन्त रहत जँह हाजिर,कुसुमित फलित सुहायो।।
वृन्दावन की दिव्य लीलास्थली पर नित प्रति वसंत का खेल होता ही रहता है। यहां वसंत सदा सर्वदा पुष्पित पल्लवित होकर विराजमान है।
वृंदावन और बसंत का संबंध अभिन्न है। इस संबंध के विषय में जितना कहा जाए उतना ही कम प्रतीत होता है। श्रीकृष्ण का पूरा जीवन हर्ष का प्रतीक है ,उल्लास का प्रतीक है, नवीनता का प्रतीक है और ऐसे में वसंत से सुन्दर और कौन सी ऋतु होगी जिसमे स्वयं भगवान प्रफुल्लित न हो। इस ऋतु के आगमन से चहुँ और वनस्पति की छटा पुनः हरी भरी होनी शुरू हो जाती है। सर्दी के आलस्य को त्याग प्रकर्ति दोबारा पुष्पित पल्लवित नव कलेवर में जाने को तत्पर रहती है। वातावरण में एक विचित्र ऊर्जा विद्यमान रहती है तथा सरसो से लहलहाते हुए खेत मानव ह्रदय को एक अलग ही भाव से भर देते है। वास्तव में वसंत और कुछ नहीं भगवान कृष्ण द्वारा दिया हुआ समस्त मानव जाति को एक छुपा हुआ सन्देश है जिसमे वह आवाहन कर रहे है कि हम सब अपने जीवन के उल्लास को सभी व्याधि और कष्टों से हटकर पुनः जीवित करे ताकि आनंद सदा सर्वदा बना रहे। क्योंकि जब तक आनंद है तब तक रस है और जब तक रस है केवल तब तक ही नवीनता है क्योंकि रस का आनंद तभी तक है जब तक वो नवीन रहता है अर्थात ताज़ा रहता है जैसे ही वह बासी हुआ वैसे ही अधोगति प्रारम्भ। अपने जीवन को सदा वृन्दावन बनाये ताकि नवीनता सदा बनी रहे और स्वयं रसमूर्ति श्रीकृष्ण आपके ह्रदय रूपी रसशाला में विहार करते रहे।
नवल वसंत, नवल वृंदावन, नवल ही फूले फूल,
नवल ही कान्हा, नवल सब गोपी, नृत्यत एक ही तूल।
नवल ही साख, जवाह, कुमकुमा, नवल ही वसन अमूल,
नवल ही छींट बनी केसर की, भेंटत मनमथ शूल।
नवल गुलाल उड़े रंग बांका, नवल पवन के झूल,
नवल ही बाजे बाजैं, “श्री भट” कालिंदी के कूल।
नव किशोर, नव नगरी, नव सब सोंज अरू साज,
नव वृंदावन, नव कुसुम, नव वसंत ऋतुराज ।