मंगलवार, 13 सितंबर 2022

काशी विश्वनाथ एक्ट-1983, जिसका सहारा लेने की मुस्लिम पक्षकारों ने की कोशिश

 


 ज्ञानवापी मस्जिद केस में देवी श्रृंगार गौरी की दैनिक पूजा का अधिकार दिए जाने संबंधी याचिका को वाराणसी कोर्ट ने सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है। इसके साथ ही मुस्लिम पक्षकारों की ओर से केस की सुनवाई की पोषणीयता पर बहस के दौरान तीन एक्ट को आधार बनाया गया। इसके आधार पर हिंदू पक्ष की याचिका को खारिज करने का अनुरोध किया गया है। इसमें प्लेसेजे ऑफ वर्शिप एक्ट 1991, वक्फ एक्ट 1985 और काशी विश्वनाथ एक्ट 1983 शामिल था। प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट और वक्फ एक्ट की चर्चा काफी हो चुकी है। राम मंदिर आंदोलन के बाद प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को संसद से पास कया गया। इसमें देश में मौजूद धार्मिक ढांचों को 15 अगस्त 1947 के बाद की स्थिति में बदलाव नहीं किए जाने की बात कही गई। हालांकि, बाबरी मस्जिद को इस मामले में अपवाद माना गया। वक्फ एक्ट 1985 के तहत मुस्लिम धर्म की संपत्ति पर कोई भी दावा दूसरे धर्म के लोग नहीं कर सकते हैं। इन दोनों एक्ट के अलावा काशी विश्वनाथ एक्ट 1983 का भी सहारा मुस्लिम पक्षकारों ने लिया। इस एक्ट में साफ है कि काशी विश्वनाथ कमेटी में केवल हिंदू ही कार्यवाहक होंगे। ऐसे में मुस्लिम धर्मस्थल पर दावा किस आधार पर किया जा रहा है। हालांकि, कोर्ट ने मुस्लिम पक्षकारों की तीनों एक्ट की व्याख्या को सही नहीं माना और हिंदू पक्षकारों की ओर से माता श्रृंगार गौरी की दैनिक पूजा संबंधित याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकृत कर लिया।

क्या है काशी विश्वनाथ टेंपल एक्ट?
भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत 13 अक्टूबर 1983 को काशी विश्वनाथ टेंपल एक्ट को लागू किया गया। यूपी विधानमंडल की ओर से पास इस एक्ट को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद एक्ट को प्रभावी किया गया। यह वर्ष 1983 के एक्ट संख्या 29 के रूप में भी जाना जाता है। इस एक्ट के जरिए काशी विश्वनाथ मंदिर और उसके विन्यास के समुचित एवं बेहतर प्रशासन की व्यवस्था की गई है। साथ ही, मंदिर से संबद्ध या अनुषांगिक विषयों की व्यवस्था भी की गई है। इस अधिनियम में 13 जनवरी 1984, 5 दिसंबर 1986, 2 फरवरी 1987, 6 अक्टूबर 1989, 16 अगस्त 1997, 13 मार्च 2003 और 28 मार्च 2013 को संशोधन भी हुए हैं।
अधिनियम के प्रभाव की विस्तार से व्याख्या की गई है। एक्ट की धारा या उप धारा में निर्धारित प्रक्रिया के तहत ही बदलाव या संशोधन किया जा सकता है। इस एक्ट का प्रभाव किसी अन्य नियम, प्रथा, रूढ़ि या विधि के प्रभावी होने के बाद भी बना रहेगा। किसी कोर्ट के निर्णय, डिग्री या आदेश या फिर किसी कोर्ट की ओर से निश्चित की गई किसी योजना में मंदिर से संबंधित कोई बात होने के बाद भी काशी विश्वनाथ टेंपल एक्ट प्रभावी रहेगा। डीड या डॉक्यूमेंट के सामने आने के बाद भी इस एक्ट को प्रभावित नहीं किए जाने की बात कही गई है।
मुस्लिम पक्ष की ओर से दी गई दलील में एक्ट की धारा 3 का जिक्र किया गया। इसमें साफ है कि एक्ट के अधीन कार्य करने वाले हिंदू होंगे। चूंकि, हिंदू पक्ष का दावा है कि देवी श्रृंगार गौरी की प्रतिमा का दावा ज्ञानवापी परिसर में किया जा रहा है। ऐसे में इस पर हिंदू पक्ष किस प्रकार दावा कर सकता है। एक्ट की धारा 3 में साफ किया गया है कि न्यास परिषद, कार्यपालक समिति के सदस्य, मुख्य कार्यपालक अधिकारी और मंदिर के कर्मचारी का हिंदू होना जरूरी है। अगर कोई व्यक्ति हिंदू न रहे, यानी धर्म परिवर्तन कर ले तो उसे पद से हटा दिया जाएगा।
एक्ट में स्थायी व अस्थायी संपत्ति का जिक्र
एक्ट की धारा 5 में मंदिर की संपत्ति का जिक्र किया गया है। इसमें मंदिर में पूजा-पाठ, सेवा, कर्मकांड, समारोह या धार्मिक अनुष्ठान के आयोजन को लेकर फीस या दान का जिक्र किया गया है। साथ ही, मंदिर में प्रतिष्ठित देवताओं की प्रतिमा, मंदिर परिसर, मंदिर सीमा के भीतर किसी भी व्यक्ति की ओर से किए जाने जाने वाले दान पर एक्ट के तहत मंदिर प्रबंधन का अधिकार होने की बात कही गई है। देवी श्रृंगार गौरी की पूजा के लिए वर्ष 1993 से साल में दो बार खोला जा रहा है।
मंदिर की संपत्ति पर कब्जे का है अधिकार
एक्ट के तहत मंदिर की संपत्ति पर न्यास परिषद को संरक्षण की जिम्मेदारी दी गई है। एक्ट की धारा 13 की उपधारा 1 में साफ किया गया है कि मंदिर और उसके विन्यास, मंदिर के तहत आने वाली चल और अचल संपत्ति, द्रव्य (पैसे), मूल्यवान वस्तु, आभूषण, अभिलेख, दस्तावेज, भौतिक पदार्थ पर न्याय परिषद का अधिकार रहेगा। न्यास परिषद मंदिर के तहत आने वाली अन्य संपत्तियों को कब्जे में लेने और रखने की हकदार होगी।
धारा 13 की उप धारा 2 के तहत प्रावधान किया गया है कि कोई भी व्यक्ति मंदिर की संपत्ति को अपने अधीन नहीं रख सकता है। अगर किसी भी व्यक्ति के कब्जे में, अभिरक्षा में या नियंत्रण में मंदिर की कोई संपत्ति है तो उसे मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी के समक्ष पेश करना होगा। इसमें चल और अचल दोनों संपत्ति का जिक्र है।
मंदिर संपत्ति पर कब्जा को लेकर है दंड का प्रावधान
मंदिर की संपत्ति को लेकर ऐक्ट की धारा 13 की उप धारा 2 में विशेष रूप से जानकारी दी गई है। एक्ट के अध्याय 6 की धारा 34 में साफ किया गया है कि कोई भी इसका उल्लंघन करता तो उसके खिलाफ दंड का प्रावधान है। इस एक्ट के तहत न्यास परिषद या मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी की ओर से या प्राधिकार के अधीन कब्जा लिए जाने में कोई प्रतिरोध या अवरोध उत्पन्न करता है। ऐसी कार्रवाई करने वालों को जेल भेजा जा सकता है। इस प्रकार के मामलों में एक साल तक की कैद का प्रावधान है। इसके अलावा जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
ज्ञानवापी मामले में बना आधार
ज्ञानवापी केस में जब मुस्लिम पक्षकारों की ओर से अपनी दलील में काशी विश्वनाथ मंदिर एक्ट का जिक्र किया गया तो हिंदू पक्ष की ओर से इस पर आवाज उठने लगी है। वाराणसी कोर्ट के वकीलों का कहना है कि एक्ट को ही आधार मानें और साक्ष्यों को देखें तो ज्ञानवापी परिसर काशी विश्वनाथ मंदिर के दायरे में आता है। वजुखाने में शिवलिंग और माता श्रृंगार गौरी इसका उदाहरण हैं। एक्ट की धारा 13 की उप धारा 2 के तहत इस संपत्ति को अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद कमेटी को काशी विश्वनाथ मंदिर के सीईओ के समक्ष पेश कर देना चाहिए।
इन एक्ट की भी हुई चर्चा
मस्जिद परिसर में देवी श्रृंगार गौरी की पूजा के अधिकार के मामले में सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्षकारों ने दो अन्य एक्ट की भी चर्चा की थी। आइए उनके बारे में भी जान लेते हैं।
प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991: 1991 में जब राम मंदिर आंदोलन और राम मंदिर को लेकर पूरे देश में विवाद चरम पर था। उस समय इस एक्ट की जरूरत दिखी। तत्कालीन पीएम पीवी नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार की ओर से देश की संसद में इस एक्ट को पेश किया गया। प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता है। राम मंदिर आंदोलन के काल में कई पूजा स्थलों के स्वरूप को बदलने की कोशिश हुई थी। ऐसे में इस कानून की मदद से उस पर काबू पाया गया।
एक्ट का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सजा का प्रावधान किया गया। कहा गया है कि अगर कोई भी इसके उल्लंघन का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। इस कानून के सबडिवीजन भी हैं। मुस्लिम पक्ष का कहना है कि यहां पर मुस्लिम समुदाय दशकों से नमाज पढ़ रहा है इसलिए ये याचिका सुनवाई योग्य है ही नहीं। अगर ऐसा हुआ तो वो प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 का उल्लंघन होगा।
वक्फ बोर्ड ऐक्ट 1985: वक्फ बोर्ड एक्ट के आधार पर भी मुस्लिम पक्ष ने वाराणसी जिला जज से हिंदू महिलाओं महिलाओं की अपील खारिज करने की मांग की थी। इस कानून में कहा गया है कि मस्जिद वक्फ बोर्ड की संपत्ति है। इस स्थिति में कोई भी लीगल प्रोसिडिंग सेंट्रल वक्फ ट्रिब्यूनल बोर्ड लखनऊ ही कर सकता है। मतलब मुस्लिम पक्ष ने मस्जिद परिसर को अपनी संपत्ति बनाते हुए दलील दी। अंजुमन इंतेजामिया कमेटी का कहना था कि इस मामले की सुनवाई हो ही नहीं सकती है। उनका कहना था कि यह वक्फ बोर्ड का मामला है।
इस पर वाराणसी जिला जज ने कहा कि याचिका दायर करने वाली महिलाएं मुस्लिम नहीं है। कोर्ट ने कहा कि मां श्रृंगार गौरी स्थल में पूजा अर्चना करने का अधिकार वक्फ बोर्ड कानून में कवर नहीं होता। इस आधार पर कोर्ट ने इस दलील को भी खारिज कर दिया।

शनिवार, 10 सितंबर 2022

श्री वृन्दावन धाम के सप्त देवालय, जहां श्रीकृष्ण के हैं विशेष 7 श्रीविग्रह

यह कृष्ण की लीलास्थली है। हरिवंशपुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है। कालिदास ने इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है इससे कालिदास के समय में वृन्दावन के मनोहारी उद्यानों के अस्तित्व का भान होता है।

श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंदजी कुटुंबियों और सजातीयों के साथ वृन्दावन में निवास के लिए आये थे। विष्णु पुराण में इसी प्रसंग का उल्लेख है। विष्णुपुराण में भी वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है। वर्तमान में टटिया स्थान, निधिवन, सेवाकुंज, मदनटेर,बिहारी जी की बगीची, लता भवन (प्राचीन नाम टेहरी वाला बगीचा) आरक्षित वनी के रूप में दर्शनीय हैं ।

वृंदावन में तकरीबन 5000 छोटे-बड़े मंदिर हैं. कुछ मंदिर सैकड़ों वर्ष पुराने हैं वर्ष 1515 में महाप्रभु चैतन्य ने यहां के कई मंदिरों की खोज की थी. तब से लेकर अब तक कई मंदिर नष्ट हो चुके हैं और कई नए बने

आज हम आपको 7 भगवान कृष्ण के श्रीविग्रहों बारे में बता रहे हैं, जिनका संबंध वृंदावन धाम से है। इन 7 श्रीविग्रहों में से 3 आज भी वृंदावन धाम के मंदिरों में स्थापित हैं, वहीं 4 अन्य स्थानों पर प्रतिष्ठित हैं-

1. भगवान गोविंद देवजी, जयपुर

रूप गोस्वामी को ये श्रीविग्रह वृंदावन के गौमा टीला नामक स्थान से वि. सं. 1592 (सन् 1535) में मिली थी। उन्होंने उसी स्थान पर छोटी सी कुटिया में इस श्रीविग्रह को स्थापित किया। इनके बाद रघुनाथ भट्ट गोस्वामी ने गोविंदजी की सेवा पूजा संभाली, उन्हीं के समय में आमेर नरेश मानसिंह ने गोविंदजी का भव्य मंदिर बनवाया। इस मंदिर में गोविंद जी 80 साल विराजे। औरंगजेब के शासनकाल में ब्रज पर हुए हमले के समय गोविंदजी को उनके भक्त जयपुर ले गए, तब से गोविंदजी जयपुर के राजकीय (महल) मंदिर में विराजमान हैं।

2. भगवान मदन मोहनजी, करौली

यह श्रीविग्रह अद्वैतप्रभु को वृंदावन में कालीदह के पास द्वादशादित्य टीले से प्राप्त हुई थी। उन्होंने सेवा-पूजा के लिए यह श्रीविग्रह मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप दी और चतुर्वेदी परिवार से मांगकर सनातन गोस्वामी ने वि.सं. 1590 (सन् 1533) में फिर से वृंदावन के उसी टीले पर स्थापित की। बाद में क्रमश: मुलतान के नमक व्यापारी रामदास कपूर और उड़ीसा के राजा ने यहां मदनमोहनजी का विशाल मंदिर बनवाया। मुगलिया आक्रमण के समय इन्हें भी भक्त जयपुर ले गए पर कालांतर में करौली के राजा गोपालसिंह ने अपने राजमहल के पास बड़ा सा मंदिर बनवाकर मदनमोहनजी को स्थापित किया। तब से मदनमोहनजी करौली (राजस्थान) में ही दर्शन दे रहे हैं।

3. भगवान गोपीनाथजी, जयपुर.

भगवान श्रीकृष्ण का ये श्रीविग्रह संत परमानंद भट्ट को यमुना किनारे वंशीवट पर मिली और उन्होंने इस श्रीविग्रह को निधिवन के पास विराजमान कर मधु गोस्वामी को इनकी सेवा पूजा सौंपी। बाद में रायसल राजपूतों ने यहां मंदिर बनवाया पर औरंगजेब के आक्रमण के दौरान इनको भी जयपुर ले जाया गया, तब से  भगवान गोपीनाथजी वहां पुरानी बस्ती स्थित गोपीनाथ मंदिर में विराजमान हैं।

4. भगवान जुगलकिशोर जी, पन्ना.

भगवान श्रीकृष्ण का ये श्रीविग्रह हरिरामजी व्यास को वि.सं. 1620 की माघ शुक्ल एकादशी को वृंदावन के किशोरवन नामक स्थान पर मिली। व्यासजी ने उस श्रीविग्रह को वहीं प्रतिष्ठित किया। बाद में ओरछा के राजा मधुकर शाह ने किशोरवन के पास मंदिर बनवाया। यहां भगवान जुगलकिशोर अनेक वर्षों तक बिराजे पर मुगलिया हमले के समय जुगलकिशोरजी को उनके भक्त ओरछा के पास पन्ना ले गए। पन्ना (मध्य प्रदेश) में आज भी पुराने जुगलकिशोर मंदिर में दर्शन दे रहे हैं।

5. भगवान राधारमणजी, श्री वृंदावन धाम

श्रीला गोपाल भट्ट गोस्वामी को गंडक नदी में एक शालिग्राम शिला मिला। वे उसे वृंदावन ले आए और केशीघाट के पास मंदिर में प्रतिष्ठित कर दिया। भक्त के द्वारा दिए वस्त्रों को धारण न करा पाना और एक दिन किसी दर्शनार्थी ने कटाक्ष कर दिया कि चंदन लगाए शालिग्रामजी तो ऐसे लगते हैं मानो कढ़ी में बैगन पड़े हों। यह सुनकर गोस्वामीजी बहुत दुखी हुए पर सुबह होते ही शालिग्राम से भगवान राधारमण का दिव्य श्रीविग्रह प्रकट हो गया। यह दिन वि.सं. 1599 (सन् 1542) की वैशाख पूर्णिमा का था। वर्तमान मंदिर में इनकी प्रतिष्ठापना सं. 1884 में की गई.

श्री वृन्दावन धाम में मुगलिया हमलों के बावजूद यही एक मात्र श्रीविग्रह है, जो वृंदावन से कहीं बाहर नहीं गए इन्हें भक्तों ने वृंदावन में ही छुपाकर रखा। सबसे विशेष बात यह है कि जन्माष्टमी को जहां दुनिया के सभी कृष्ण मंदिरों में रात्रि बारह बजे उत्सव पूजा-अर्चना, आरती होती है, वहीं राधारमणजी का जन्म अभिषेक दोपहर बारह बजे होता है, मान्यता है ठाकुरजी अत्यंत सुकोमल होते हैं उन्हें रात्रि में जगाना ठीक नहीं.

6. भगवान राधाबल्लभजी, वृंदावन धाम

परम भगवान श्रीकृष्ण का यह श्रीविग्रह हित हरिवंशजी को दहेज में मिला था। उनका विवाह देवबंद से वृंदावन आते समय चटथावल गांव में आत्मदेव ब्राह्मण की बेटी से हुआ था। पहले वृंदावन के सेवाकुंज में (संवत् 1591) और बाद में सुंदरलाल भटनागर (कुछ लोग रहीम को यह श्रेय देते हैं) द्वारा बनवाए गए लाल पत्थर वाले पुराने मंदिर में राधाबल्लभजी प्रतिष्ठित हुए।

मुगलिया हमले के समय भक्त इन्हें कामा (राजस्थान) ले गए थे। वि.सं. 1842 में एक बार फिर भक्त इस श्रीविग्रह को वृंदावन ले आए और यहां नवनिर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित किया, तब से भगवान  राधाबल्लभजी जी यहीं विराजमान है।

7. भगवान बांकेबिहारीजी, श्री वृंदावन धाम

मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को संगीत के मुख्य आचार्य स्वामी हरिदासजी महाराज के  हरिभक्ति ,आराधना को साकार रूप देने के लिए भगवान बांकेबिहारीजी निधिवन में प्रकट हो गए। स्वामीजी ने इस श्रीविग्रह को वहीं प्रतिष्ठित कर दिया। मुगलों के आक्रमण के समय भक्त इन्हें भरतपुर ले गए। वृंदावन के भरतपुर वाला बगीचा नाम के स्थान पर वि.सं. 1921 में मंदिर निर्माण होने पर बांकेबिहारी एक बार फिर वृंदावन में प्रतिष्ठित हुए, तब से यहीं भक्तों को दर्शन दे रहे हैं।

भगवान बिहारीजी का प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ साल में एक दिन ही ठाकुर के चरण दर्शन होते है, साल में एक बार ही ठाकुर बंशी धारण करते हैं | यहां साल में केवल एक दिन (जन्माष्टमी के बाद भोर में) मंगला आरती होता है, जबकि वैष्णव मंदिरों में नित्य सुबह मंगला आरती होने का परंपरा है।

-अलकनंदा सिंंह

बुधवार, 7 सितंबर 2022

निम्बार्क संप्रदाय: जहां कृष्‍ण के प्रति 'सखी प्रेम' ही जीवन का सत्य है


 सनातन धर्म के कई संप्रदायों का आधार सूत्र वैष्णव भक्ति है. सबसे प्राचीनतम संप्रदायों में से एक निम्बार्क संप्रदाय इन्हीं में से एक है, इसमें प्रेम के सिद्धांतों को ही मान्यता प्राप्त है अर्थात ईश्वर का प्रेम-दर्शन ही इस संप्रदाय का मूल आधार है. यह संप्रदाय प्रेम के स्वरूप श्री सर्वेश्वरी राधा और श्री सर्वेश्वर कृष्ण को अनन्य रूप से पूजती है. 

वहीं, प्रेम के तीसरे स्वरूप को इस संप्रदाय में सखीजन कहते हैं. निम्बार्क संप्रदाय में सखी प्रेम को ही जीवन का सत्य समझा जाता है. सरल शब्दों में कहें तो, इस संप्रदाय में श्री राधा और श्री कृष्ण के साथ साथ राधा रानी की सखियाँ भी देवी तुल्य हैं जिनका पूजन आवश्यक है. इन्हीं सब लीलाओं को अपनी काव्य रचनाओं में स्वामी हरिदास जी ने पिरोया है.

इतिहासकारों के अनुसार, स्वामी हरिदास का जन्म 3 सितंबर, 1478 को हुआ था. उनका जन्म वृंदावन के राजपुर नाम के गांव में हुआ था. वे सनाढ्य जाति से थे और उनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम चित्रादेवी था. माना जाता है कि स्वामी हरिदास भी अन्य की भांति ही ग्रहस्थी थे लेकिन एक दिन अचानक दीपक से पत्नी के जलकर मर जाने के वियोग में वे वृंदावन जाकर रहने लगे और उन्होंने विरक्त संन्‍यास धारण कर लिया.  

ऐसा भी माना जाता है कि स्वामी हरिदास की उपासना से प्रसन्न होकर बांकेबिहारी की मूर्ति का प्राकट्य हो हुआ था जो आज भी वृंदावन में विराजमान है और पूजी जाती है. हरिदास महान संगीतज्ञ भी थे और तानसेन उनके ही परम शिष्य थे. इतिहास में दर्ज है कि हरिदास जी की मृत्यु 95 वर्ष की आयु में 1573 के आसपास हुई थी. 

स्वामी हरिदास ने हरि को स्वतंत्र और जीव को भगवान के अधीन मानकर अपनी रचनाएं की, अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया जो हृदय को भाव विभोर कर देने वाली हैं.

स्वामी हरिदास के पदों से कृष्ण के चंदन सी सौंधी महक आती है।

जौं लौं जीवै तौं लौं हरि भजु, और बात सब बादि
दिवस चारि को हला भला, तू कहा लेइगो लादि
मायामद, गुनमद, जोबनमद, भूल्यो नगर बिबादि
कहि 'हरिदास लोभ चरपट भयो, काहे की लागै फिरादि

(जब तक ज़िंदा रहूं तब तक हरि यानी कृष्ण का नाम भजूं और बाकी सब काम बाद में हैं) इस प्रकार के भावों से साथ भक्ति-पदों की रचना करने वाले हरिदास ब्रज व कृष्ण से अत्यंत ही निकट थे। 

ज्यौंहिं ज्यौंहिं
वृन्दावन में कहा जाता है कि श्रीकृष्ण को यहां पर प्रकट करने का श्रेय स्वामी हरिदास को ही जाता है। वृन्दावन में उन्होंने निधिवन को अपनी स्थली बनाया था और आज भी निधिवन में एक जगह पर हरिदास का समाधि स्थल है। कहते हैं कि हरिदास को भगवान ने अपनी युगल छवि के दर्शन दिए थे।

ज्यौंहिं ज्यौंहिं तुम रखत हौं,त्योंहीं त्योंहीं रहियत हौं, हे हरि
और अपरचै पाय धरौं सुतौं कहौं कौन के पैंड भरि
जदपि हौं अपनों भायो कियो चाहौं,कैसे करि सकौं जो तुम राखौ पकरि
कहै हरिदास पिंजरा के जानवर लौं तरफराय रह्यौ उडिबे को कितोऊ करि

(जैसे जैसे तुम रखते हो, हम वैसे ही रहते हैं, हे हरि। यहां पिंजड़ के जानवर का अर्थ आत्मा से है जो मुक्ति के लिए तड़पड़ा रही है)

श्री वल्लभ श्री वल्लभ श्री
हरिदास जी के संगीत की भी इतनी ख़्याति थी कि तानसेन व बैजू बावरा उनके शिष्य थे। अकबर भी भेष बदलकर हरिदास का संगीत सुनने के लिए आते थे। स्वामी ब्रज में पूरी तरह से रम चुके थे, उन्होंने कृष्ण की भक्ति पर पद लिखे, ब्रजभाषा में लिखे व अपना सम्पूर्ण जीवन भी ब्रज क्षेत्र में ही बिताया। 

स्वामी हरिदास के कुछ और पद

श्री वल्लभ श्री वल्लभ श्री वल्लभ कृपा निधान अति उदार करुनामय दीन द्वार आयो
कृपा भरि नैन कोर देखिये जु मेरी ओर जनम जनम सोधि सोधि चरन कमल पायो

कीरति चहुँ दिसि प्रकास दूर करत विरह ताप संगम गुन गान करत आनंद भरि गाऊँ
विनती यह यह मान लीजे अपनो हरिदास कीजे चरन कमल बास दीजे बलि बलि बलि जाऊँ

(यहां स्वामी हरिदास ईश्वर की कृपा मानते हैं कि वह उनके द्वार पर आए। हरिदास विनती करते हैं कि ईश्वर उन्हें अपना बना ले)

- अलकनंदा सिंह