किसी भी देश की प्रगति उसकी आमजन की प्रगति से जुड़ी होती है, और इस प्रगति का पाथ-वे बनती हैं वो ‘नीतियां’ जिन्हें विभिन्न थिंक टैंक सर्वे और विश्लेषणों द्वारा सरकार को सुझाते हैं। लोगों का जीवनस्तर सुधारने के लिए जो भी उपाय सरकारें करती हैं, उनमें थिंक टैंक्स द्वारा सुझाए गए उपाय ”नींव के पत्थर” का काम करते हैं। इनकी संख्या का भारत में बढ़ते जाना कई बिंदुओं पर पड़ताल को बाध्य कर रहा है, हालांकि ये पॉजिटिव खबर है परंतु इस बीच कुछ ऐसे थिंक टैंक भी हैं जो मात्र निठल्ला चिंतन ही करते रहते हैं।
हाल ही में यूनीवर्सिटी ऑफ पेंसिल्वेनिया के लॉउडर इंस्टीट्यूट ऑफ यूनिवर्सिटी द्वारा थिंक टैंक पर जारी रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार भारत में थिंक टैंक की संख्या में भारी उछाल आता जा रहा है। 2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्य संस्कृति ने ऐसी विचारक संस्थाओं की आवश्यकता और भी बढ़ा दी है इसीलिए 2017 में 216 थिंक टैंक अस्तित्व में आए जो कि 2018 में 509 हो गए। 2022 तक ये संख्या कितनी हो गई है, इसका अभी कोई आंकड़ा सामने नहीं आया है।
ये बढ़ती हुई संख्या तो तब है जबकि भारत सरकार द्वारा संदिग्ध फंडिंग को लेकर कई एनजीओ को बैन किया जा चुका है, क्योंकि ”उनके अपने-अपने थिंकटैंक” ही थे मनीलांड्रिंग का माध्यम बने हुए थे। फोर्ड फाउंडेशन द्वारा वित्तीय मदद पाने वाली दिल्ली के पॉश इलाके चाणक्यपुरी में स्थित प्रतिष्ठित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च नामक थिंक टैंक तो बाकायदा मीडिया घरानों के ज़रिए एंटीमोदी कैंपेन चलाए हुए था।
गौरतलब है कि 2014 से पहले की कार्य संस्कृति में भारत के ‘थिंक टैंक” वो संस्थाएं होती थीं जहां रिटायर्ड नौकरशाहों और जनरलों द्वारा चिंतन कम, गपशप ज्यादा और ‘मेरा ऐसा सोचना है अथवा ‘मेरा ऐसा मानना है’ टाइप निठल्ला चिंतन ही चलता रहता था। रिसर्च की बात तो खैर छोड़ ही दें, इन ‘थिंक टैंकों” में बैठे तमाम बौद्धिकों को तो कुछ लिखना भी नहीं आता था, बावजूद इसके देशसेवा के नाम पर दोबारा सरकारी ओहदा मिल जाया करता था और किसी किसी मेंफंड के साथ फाइवस्टार सुविधाएं भी मिलती थीं। तब रक्षा मंत्रालय से जुड़े ‘थिंक टैंक’ CLAWS, CAPS, NFF, यूएसआई (The United Service Institution of India) और IDSA हैं जिनका ज्यादातर समय उन मुख्यालयों के लिए लॉबिंग करने में जाता है, जिनसे उन्हें वित्तीय पोषण मिलता है। आईडीएसए के प्रमुख की नियुक्ति तो सरकार ही करती है। अर्थव्यवस्था से जुड़े ‘थिंक टैंक” जैसे कि ICRIER, ICAER सरकार व बहुपक्षीय संस्थाओं से फंड पाते हैं।
ये 2014 से पहले की ही बात है जब कि भारत में समाज के लिए कुछ भी ”खास काम” न करने वाले थिंक टैंक में ”ओआरएफ” को रिलायंस इंडस्ट्रीज समेत सरकारी और विदेशी संस्थाओं से बड़े पैमाने पर धन मिला, 2013 में अमेरिकी थिंक टैंक ‘द ब्रुकिंग्स इंस्टिट्यूशन’ को सीआईआई के माध्यम से भारत व अमेरिका के उद्योगपतियों द्वारा पोषित किया गया। इसके अलावा फंडिंग से इतर आरएसएस के थिंक टैंक ‘विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन’ के द्वारा मात्र निठल्ला चिंतन ही किया जाता रहा।
अतिरिक्त कार्यों की बात करें तो कुछ थिंक टैंक तो विभिन्न मंत्रालयों के ”इवेंट मैनेजर्स” के रूप में भी उभरे। इन थिंक टैंक की आउटसोर्सिंग कर विदेश मंत्रालय अपने यहां आने वाले प्रतिनिधिमंडलों के लिए वर्कशॉप और लेक्चर इवेंट आदि का आयोजन कराता रहा है। कई विदेशी हथियार व अन्य रक्षा इक्विपमेंट बनाने वाली कंपनियां भी सेमिनारों को प्रायोजित इन्हीं थिंक टैंक के माध्यम से कराती हैं।
थिंक टैंक रैंकिंग के मामले में भी बड़ा खेल किया जाता है और इसका केंद्र बिंदु अमेरिका ही है, उसके हित इस रैंकिंग का निर्धारण करते हैं जबकि भारत में नए उभरे थिंक टैंक अब धन उगाही या मनी लॉन्ड्रिंग के बजाय ज़मीन पर अपने काम को उतार रहे हैं। तभी तो नई शिक्षा नीति हो, किसान हितकारी मुद्दे हों, रक्षा में आत्मनिर्भरता हो या विदेश नीति में खरापन, सभी के पीछे हाल में उभरे थिंक टैंक ही हैं। बहरहाल, जितनी मात्रा में ‘स्कूल ऑफ थॉट्स” विकसित होंगे और परस्पर संघर्ष करेंगे, हमारी बौद्धिक क्षमताओं के परिमार्जन के लिए ये उतना ही अच्छा रहेगा। थिंक टैंक को लेकर संदेह तो उभरते रहेंगे क्योंकि इनके कार्य और फंडिंग को लेकर पारदर्शिता अब भी नहीं है परंतु अच्छा काम बेकार नहीं जाता और इनके सुझाए उपाय नीतियों में झलक दिखाकर ये बताने के लिए स्वयं उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।
- अलकनंदा सिंंह
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