जिस देश में गुरू की महिमा को बखानते हुए गुरु पूर्णिमा पर ”गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।” के संदेशों की बाढ़ से आपका दिमाग आपको किसी दूसरे लोक में ले जाता हो, वहीं इसके ठीक उलट शिक्षा माफिया एक सिंडीकेट के रूप में बच्चे की प्राइमरी क्लास से लेकर आला दर्जे की नौकरी दिलाने की ठेकेदारी ले रहा हो, तो यह सोचना भी बेमानी है कि जो शिक्षित होता दिखाई दे रहा है या यूं कहें शिक्षित होते दिखाया जा रहा है, वह ‘वास्तव में शिक्षित’ हो भी रहा है।
शिक्षा को रोजगार से जोड़ने की प्रवृत्ति ने ही शिक्षा और नौकरी दोनों की ही दुर्गति कर दी है, हाल ही में कुछ उदाहरण ये बताने के लिए काफी हैं। सॉल्वर गैंग, कोचिंग माफिया, फर्जी मार्कशीट मामला, यूपी टीईटी, रेलवे परीक्षा, पेपर लीक, नकल माफिया…अब ये शब्दभर नहीं रहे बल्कि हमारे नैतिक पतन को दर्शाते रोजमर्रा के उदाहरण बन गए हैं। हम इन्हें सुनने और इन मुद्दों पर सरकारों को गरियाने के इतने आदी हो चुके हैं कि कोचिंग से शुरू होने वाला शिक्षा माफिया का ये सफर कहीं रुकता नहीं दिखता।
एक आंकड़े के अनुसार प्राइमरी के 80% और उच्च शिक्षा के 96% छात्र कोचिंग लेते हैं। हजारों करोड़ रुपये का कारोबार है यह, जिसका कोई हिसाब नहीं। कोई पूछने वाला नहीं है, फिर चाहे नारायण मूर्ति चेता रहे हों या फिर शैक्षिक गुणवत्ता का आंकलन करने वाली एजेंसियां, कि देश की अहम सेवाओं के लिए प्रतिभा स्तरहीन होती जा रही है। आखिर शिक्षा के इस धंधे में किसकी जवाबदेही है, स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई क्यों नहीं हो रही। मध्यवर्ग पहले बच्चे को महंगे स्कूल में पढ़ाते हैं, सारी जिंदगी फीस, डोनेशन देकर उनकी कमर टूट जाती है। फिर उसे कॉलेज भेजते हैं। फिर सारी जिंदगी की स्कूल फीस के बराबर कोचिंग का खर्च उठाते हैं। बावजूद इसके यह निश्चित नहीं कि बच्चा प्रतियोगिता परीक्षा पास करेगा या नहीं। ये सिलसिला अंतहीन है आखिर कहीं तो इसे खत्म करना ही होगा।
हमने शिक्षा को कामयाबी और नौकरी से ऐसा जोड़ा कि कोचिंग न लेने पर फेल हो जाने का भूत पीछा ही नहीं छोड़ता। मैंने खुद देखी है कि स्कूल से आकर ट्यूशन टीचर्स के घरों के सामने ट्यूशन पढ़ने वालों की लंबी कतार जो रात के दस-दस बजे तक वे ट्यूशन पढ़ाते हैं। हद तो तब होती है जब पढ़ी लिखी ‘मॉम’ और दूसरे परिवारीजन भी अपने छोटे छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ने की आदत डलवा देते हैं ताकि उन्हें स्वयं ना देखना पड़े…और इससे बड़े होने तक बच्चे स्कूल में पढ़ाई के नहीं ट्यूशन के आदी हो जाते हैं। ये एक पक्ष है।
दूसरा पक्ष वो है जो इसकी हिमायत करता है। जैसे मेरे एक रिश्तेदार स्वयं कॉलेज में प्रोफेसर रहते हुए एमएससी के छात्रों को बॉटनी जैसे स्वअध्यायी विषय में भी ट्यूशन देते हैं, सुबह 5 बजे से 11 बजे तक…फिर रात को भी वे कई कई बैच ‘निकाल देते’ (उनकी भाषा में)। इसके लिए छात्रों को वाइवा में नंबर अधिक दिलाने का प्रलोभन दिया जाता है…अनैतिकता क्या यहीं से शुरू नहीं होती। कोचिंग माफिया की नींव भी ऐसे ही शिक्षक डालते हैं और उन्हें पोसते भी यही हैं।
हालिया उदाहरण बिहार का है जहां रेलवे परीक्षार्थियों ने कोचिंग संचालकों के इशारे पर ‘कथित धांधली’ को लेकर जो उत्पात मचाया गया, वह अवश्यंभावी था, 6 कोचिंग संचालकों के खिलाफ मामला भी दर्ज कर लिया गया परंतु एक बार फिर यह बात उठी है कि अब जो कोचिंग क्लासेस का कारोबार है, उसमें षड्यंत्र, खून-खराबा, कालाधन और राजनीति सभी कुछ है। तभी तो बिहार में कोचिंग संचालकों के खिलाफ मामला दर्ज होते ही विपक्ष इन ‘कोचिंग सर’ के हित साधने में लग गया है। ये जिस तरह पेपर सेट करवाते हैं, टेस्ट पेपर की मार्किंग में पक्षपात की साजिशें रचते हैं, प्रतिस्पर्धी संस्थानों व सरकारी संस्थानों को बदनाम करते हैं, वह किसी शिक्षा-व्यवसाय का हिस्सा नहीं हो सकता।
बहरहाल, इस पर ज्यादा बहस नहीं… लेकिन हमें अब अपने अपने गिरेबानों में झांककर ये देखना होगा कि सरकारी नौकरी या प्रतियोगी परीक्षाओं में पास होने के लिए हम कौन सी कीमत अदा कर रहे हैं। लगभग पांच दशकों की गिरावट का निम्नतम स्तर है ये कि आज चपरासी के लिए भी प्रतियोगी परीक्षा करवानी पड़ रही है और उच्चशिक्षित भी इस नौकरी के लिए लाइन में लगे हैं, ये सिर्फ बेरोजगारी की बात नहीं है, ये बात है सरकारी नौकरी के उस ‘लालच’ की जो कोचिंग संस्थानों के पौ बारह किए हुए है और एक पूरे के पूरे सिंडीकेट को पनपाने की दोषी रही है।
- अलकनंदा सिंंह