शनिवार, 29 जनवरी 2022

गुरुर्ब्रह्मा के देश में शिक्षा माफिया व कोचिंग सिंडीकेट का कहर


जिस देश में गुरू की महिमा को बखानते हुए गुरु पूर्णिमा पर ”गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम:।।” के संदेशों की बाढ़ से आपका दिमाग आपको किसी दूसरे लोक में ले जाता हो, वहीं इसके ठीक उलट शिक्षा माफिया एक सिंडीकेट के रूप में बच्‍चे की प्राइमरी क्‍लास से लेकर आला दर्जे की नौकरी दिलाने की ठेकेदारी ले रहा हो, तो यह सोचना भी बेमानी है कि जो शिक्षित होता दिखाई दे रहा है या यूं कहें शिक्षित होते दिखाया जा रहा है, वह ‘वास्‍तव में शिक्षित’ हो भी रहा है।

शिक्षा को रोजगार से जोड़ने की प्रवृत्‍ति ने ही शिक्षा और नौकरी दोनों की ही दुर्गति कर दी है, हाल ही में कुछ उदाहरण ये बताने के लिए काफी हैं। सॉल्‍वर गैंग, कोचिंग माफिया, फर्जी मार्कशीट मामला, यूपी टीईटी, रेलवे परीक्षा, पेपर लीक, नकल माफिया…अब ये शब्‍दभर नहीं रहे बल्‍कि हमारे नैतिक पतन को दर्शाते रोजमर्रा के उदाहरण बन गए हैं। हम इन्‍हें सुनने और इन मुद्दों पर सरकारों को गरियाने के इतने आदी हो चुके हैं कि कोचिंग से शुरू होने वाला शिक्षा माफिया का ये सफर कहीं रुकता नहीं दिखता।

एक आंकड़े के अनुसार प्राइमरी के 80% और उच्च शिक्षा के 96% छात्र कोचिंग लेते हैं। हजारों करोड़ रुपये का कारोबार है यह, जिसका कोई हिसाब नहीं। कोई पूछने वाला नहीं है, फिर चाहे नारायण मूर्ति चेता रहे हों या फिर शैक्षिक गुणवत्‍ता का आंकलन करने वाली एजेंसियां, कि देश की अहम सेवाओं के लिए प्रतिभा स्तरहीन होती जा रही है। आखिर शिक्षा के इस धंधे में किसकी जवाबदेही है, स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई क्यों नहीं हो रही। मध्यवर्ग पहले बच्चे को महंगे स्कूल में पढ़ाते हैं, सारी जिंदगी फीस, डोनेशन देकर उनकी कमर टूट जाती है। फिर उसे कॉलेज भेजते हैं। फिर सारी जिंदगी की स्कूल फीस के बराबर कोचिंग का खर्च उठाते हैं। बावजूद इसके यह निश्‍चित नहीं कि बच्चा प्रतियोगिता परीक्षा पास करेगा या नहीं। ये सिलसिला अंतहीन है आखिर कहीं तो इसे खत्म करना ही होगा।

हमने शिक्षा को कामयाबी और नौकरी से ऐसा जोड़ा कि कोचिंग न लेने पर फेल हो जाने का भूत पीछा ही नहीं छोड़ता। मैंने खुद देखी है कि स्कूल से आकर ट्यूशन टीचर्स के घरों के सामने ट्यूशन पढ़ने वालों की लंबी कतार जो रात के दस-दस बजे तक वे ट्यूशन पढ़ाते हैं। हद तो तब होती है जब पढ़ी लिखी ‘मॉम’ और दूसरे परिवारीजन भी अपने छोटे छोटे बच्‍चों को ट्यूशन पढ़ने की आदत डलवा देते हैं ताकि उन्‍हें स्‍वयं ना देखना पड़े…और इससे बड़े होने तक बच्‍चे स्‍कूल में पढ़ाई के नहीं ट्यूशन के आदी हो जाते हैं। ये एक पक्ष है।

दूसरा पक्ष वो है जो इसकी हिमायत करता है। जैसे मेरे एक रिश्‍तेदार स्‍वयं कॉलेज में प्रोफेसर रहते हुए एमएससी के छात्रों को बॉटनी जैसे स्‍वअध्‍यायी विषय में भी ट्यूशन देते हैं, सुबह 5 बजे से 11 बजे तक…फिर रात को भी वे कई कई बैच ‘निकाल देते’ (उनकी भाषा में)। इसके लिए छात्रों को वाइवा में नंबर अधिक दिलाने का प्रलोभन दिया जाता है…अनैतिकता क्‍या यहीं से शुरू नहीं होती। कोचिंग माफिया की नींव भी ऐसे ही शिक्षक डालते हैं और उन्‍हें पोसते भी यही हैं।

हालिया उदाहरण बिहार का है जहां रेलवे परीक्षार्थियों ने कोचिंग संचालकों के इशारे पर ‘कथित धांधली’ को लेकर जो उत्‍पात मचाया गया, वह अवश्‍यंभावी था, 6 कोचिंग संचालकों के खिलाफ मामला भी दर्ज कर लिया गया परंतु एक बार फिर यह बात उठी है कि अब जो कोचिंग क्लासेस का कारोबार है, उसमें षड्यंत्र, खून-खराबा, कालाधन और राजनीति सभी कुछ है। तभी तो बिहार में कोचिंग संचालकों के खिलाफ मामला दर्ज होते ही विपक्ष इन ‘कोचिंग सर’ के हित साधने में लग गया है। ये जिस तरह पेपर सेट करवाते हैं, टेस्ट पेपर की मार्किंग में पक्षपात की साजिशें रचते हैं, प्रतिस्पर्धी संस्थानों व सरकारी संस्‍थानों को बदनाम करते हैं, वह किसी शिक्षा-व्‍यवसाय का हिस्‍सा नहीं हो सकता।

बहरहाल, इस पर ज्‍यादा बहस नहीं… लेकिन हमें अब अपने अपने गिरेबानों में झांककर ये देखना होगा कि सरकारी नौकरी या प्रतियोगी परीक्षाओं में पास होने के लिए हम कौन सी कीमत अदा कर रहे हैं। लगभग पांच दशकों की गिरावट का निम्‍नतम स्‍तर है ये कि आज चपरासी के लिए भी प्रतियोगी परीक्षा करवानी पड़ रही है और उच्‍चशिक्षित भी इस नौकरी के लिए लाइन में लगे हैं, ये सिर्फ बेरोजगारी की बात नहीं है, ये बात है सरकारी नौकरी के उस ‘लालच’ की जो कोचिंग संस्‍थानों के पौ बारह किए हुए है और एक पूरे के पूरे सिंडीकेट को पनपाने की दोषी रही है।

- अलकनंदा सिंंह

शनिवार, 22 जनवरी 2022

पुरुषों के लिए भी कानून बनाने का समय


 कानून के बारे में एक कहावत है कि “Any law loses its teeth and bites on repeated misuse.” अर्थात् “कोई भी कानून बार-बार दुरुपयोग करने पर अपने दांत खो देता है और काटने लगता है।” यूं तो किसी कानून का दुरुपयोग हमारे यहां कोई नई बात नहीं है परंतु अब यह अविश्‍वास से उपजे रिश्‍तों के लिए एक ऐसी आड़ बन गया है जिसका दुष्‍प्रभाव पूरे समाज को झेलना होगा।

इसकी नज़ीर के तौर पर गुरुग्राम का आयुषी भाटिया केस हो या मद्रास हाईकोर्ट और पुणे की सेशन कोर्ट के ‘दो फैसले’ जो हमें अपनी सामाजिक व्‍यवस्‍थाओं और घरों में दिए जाने वाले संस्कारों को फिर से खंगालने को बाध्‍य कर रहे हैं कि आखिर सभ्‍यता के ये कौन से मानदंड हैं जिन्‍हें हम सशक्‍तीकरण और स्‍वतंत्रता के खांचों में फिट करके स्‍वयं को आधुनिक साबित करने में जुटे हुए हैं।

सिर्फ एक महीने के अंदर जो मामले सामने आए उनमें –

पहला मामला
पुणे स्‍थित एमएनसी में लाखों के पैकेज पर कार्यरत एक नवविवाहिता ने कोर्ट में तलाक की अर्जी देते हुए, स्‍वयं से आधा वेतन पाने वाले सीआरपीएफ में कार्यरत पति से भारी भरकम ‘भरण-पोषण’ की मांग की, वह भी सिर्फ इसलिए कि उसे वह हनीमून (कोरोना काल में) पर नहीं ले गया।

दूसरा मामला
चेन्‍नई की एक महिला द्वारा अपने पति को परेशान करने के लिए फैमिली कोर्ट द्वारा तलाक की मंजूरी के बावजूद घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराई गई ताकि उसको नौकरी से निलंबित किया जा सके। इसपर फैसला देने वाले मद्रास हाई कोर्ट के जस्‍टिस एस. वैद्यनाथन ने खेद जताते हुए कहा कि दुर्भाग्‍यवश पति के पास पत्नी के खिलाफ केस दर्ज कराने के लिए #घरेलूहिंसाअधिनियम 2005 जैसा कोई कानून नहीं है और हम विवश हैं निष्‍पक्ष न्‍याय ”न” दे पाने के लिए।

तीसरा मामला
हरियाणा के गुरुग्राम पुलिस ने 4-5 जनवरी को 20 वर्षीय युवती आयुषी भाटिया को रेप का आरोप लगाकर जबरन वसूली करने के आरोप में गिरफ्तार किया, जिस मामले में आयुषी भाटिया को पकड़ा गया, वह उसका आठवां शिकार था।

विगत 15 महीनों के दौरान आरोपी महिला ने गुड़गांव के 7 पुलिस स्टेशनों (राजेंद्र पार्क, सदर, साइबर, सेक्टर 5, न्यू कॉलोनी, सेक्टर 10 और सिटी) पर 8 अलग-अलग लड़कों के खिलाफ रेप के मामले दर्ज कराए, वह ये काम बेहिचक करती थी और अब तक वह 7 लड़कों की जिंदगी बर्बाद कर चुकी है। हालांकि आठवें लड़के के ‘शिकार’ होने से पूर्व ही आयुषी का भंडाफोड़ हो गया और अब वह जेल में है। आठ में से तीन की क्लोजर रिपोर्ट में पाया गया है कि महिला की मां और उसका एक चाचा भी इस कथित जबरन वसूली सिंडिकेट का हिस्सा थे, फिलहाल वे फरार हैं।

इसी दिसंबर-जनवरी के दौरान घटित घटनाओं पर एक नज़र-

1. भोपाल फैमिली कोर्ट की काउंसलर सरिता रजनी ने मीडिया को जानकारी देते हुए बताया कि भोपाल की एक कामकाजी महिला ने कैंसर पीड़ित पति से की भरण-पोषण की मांग करते हुए निर्दयता पूर्वक कहा कि ‘भले ही अपनी किडनी बेचो लेकिन मुझे पैसे दो’, इस घटना के बाद से वह व्‍यक्‍ति खुद पत्नी के इस व्यवहार से सदमे में हैं।
2. गुरुग्राम कोर्ट ने ऐसे ही एक झूठे केस में नाबालिग लड़के को फंसाने वाली बालिग महिला के खिलाफ निर्णय सुनाया कि ‘इच्छा’ पूरी नहीं होने पर महिला ने लिया रेप कानूनों का फायदा लिया।
3. अलवर के मांढण थाना इलाके के स्कूल गैंगरेप केस में हाल ही में एक खुलासा हुआ है कि पूर्व कर्मचारी के कहने पर नाबालिग छात्राओं ने शिक्षकों पर जो आरोप लगाया वह इन शिक्षकों की गिरफ्तारी के बाद झूठा निकला।

ये तो चंद उदाहरण हैं वरना खोजने बैठें तो कई पन्‍ने भर जाऐंगे, इन सभी मामलों में महिलाओं द्वारा पुरुषों के खिलाफ ”कानून का बेजां इस्‍तेमाल” किया गया। हो सकता है कि कुछ लोग कहें कि पुरुष भी तो सदियों से ऐसा करते रहे हैं, उन्‍होंने तो बांझ, डायन व चरित्रहीन कहकर महिलाओं पर लगातार अत्‍याचार किए और तमाम मामलों में आज भी कर ही रहे हैं। संभवत: इसीलिए आज यह स्‍थिति आई कि उनके लिए आज कोई खड़े होने को तैयार नहीं और ना ही कोई कानून बन सका है।

मगर हमें ये समझना होगा कि अत्‍याचार का बदला अत्‍याचार से नहीं लिया जा सकता। महिला के ऐसा करने पर इतनी हाय-तौबा इसीलिए है क्‍योंकि एक ”मां” के किसी भी तरह डगमगाने पर पूरा परिवार, सारे रिश्‍ते नाते तहसनहस हो जाते हैं और ऐसा होते ही सामाजिक तानाबाना चरमराने लगता है इसलिए महिलाओं द्वारा पैदा किया जा रहा ये अविश्‍वास स्‍वयं उन्‍हीं के लिए अहितकर है क्‍योंकि इस ‘अविश्‍वास’ के लिए न्‍यायालय भी कैसे न्‍याय देंगे और कितने कानून बनेंगे।

हमें यह समझना चाहिए कि विवाह कोई अनुबंध नहीं बल्कि एक संस्कार है। बेशक लिव-इन-रिलेशनशिप को मंजूरी देने वाले घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के प्रभाव में आने के बाद ‘संस्कार’ शब्द का कोई अर्थ नहीं रह गया है परंतु फिर भी हम वर्तमान ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी कम से कम बदतर उदाहरण तो ना ही बनें। तलाक के मामलों के अलावा झूठे रेप केस में पुरुषों को फंसाने वाली महिलाएं, उन वास्‍तविक रेप पीड़िताओं की राह में कांटे बो रही हैं जो वास्‍तव में इस अपराध को झेलती हैं।

बहरहाल हमें अपनी आंखें खुली रखनी होंगी ताकि न्‍याय-अन्‍याय में सही अंतर कर सकें और वास्‍तविक अपराधी को सजा तक पहुंचा सकें फिर चाहे वह कोई भी हो।

- अलकनंदा सिंंह

शुक्रवार, 7 जनवरी 2022

वो अमृता... ज‍िसे हम अंडरएस्‍टीमेट करते रहे


 आज कि‍सी खास व‍िषय पर ल‍िखने का मन नहीं है। कोरोना को झेलते झेलते 2021 भी व‍िदा हो गया और कोरोना के नए वेरि‍एंट ओमीक्रोन की आमद के साथ ही 2022 में कदम रखा मगर कुछ "खास" नहीं ल‍िख पाई। इस बीच एक बड़ा सबक म‍िला। दरअसल, मेरे घर में "बस यूं ही" उग आई ग‍िलोय (अमृता) की बेल ने बताया क‍ि हम ज‍िन्हें अंडरएस्‍टीमेट कर नज़रंदाज़ कर देते हैं, वे क‍ितने कीमती होते हैं। तो सोचा... क‍ि क्‍यों ना आज इस बेजोड़ दवा से जुड़े अपने व पूरे पर‍िवार को हुए फायदों के बारे में बताया जाये। 

हां, आज जब सोचती हूं तो झे अपनी अज्ञानता पर क्षोभ होता है क‍ि लगभग दो साल तक मैं इसके फायदों से अनजान कैसे रही, या यूं कहें क‍ि इसे कभी गंभीरता से क्यों  नहीं ल‍िया। जो रोग दो साल पहले ठीक हो सकते थे और मेरा शारीरिक, मानसिक व आर्थ‍िक नुकसान कम हो सकता था, उस पर मेरी लापरवाही ही हावी रही।    


लगभग दो तीन साल पहले इस अमृता बेल ने हमारे लॉन में जब अपनी जगह बनाई, तब पहले पहल मैं इसे मात्र सजावटी बेल समझी फि‍र अध्‍ययन क‍िया तो पता चला क‍ि यह स्‍वास्‍थ्‍य के ल‍िए अमृत समान काम करती है मगर फिर भी महज पढ़कर छोड़ द‍िया। इस बार दशहरे पर इसने घर की पूरी टेरेस पर अपना  साम्राज्‍य स्‍थाप‍ित कर ल‍िया। अपने घर को पौधों से सजाना मुझे बेहद पसंद है परंतु इसके इस तरह बेतरतीबी से फैलते जाने पर मैं परेशान थी, इसे अपने घर की सजावट में बाधा समझने लगी और इसे छंटवा द‍िया, छांटी गई बेल को छत पर यूं ही डाले रखा। दशहरे से दीपावली आ गई। इसी बीच एक द‍िन व‍िचार आया क‍ि क्‍यों ना इसे उबाल कर काढ़ा बनाऊं और सेवन कर देखूं। मैंने अपना "प्रयोग" शुरू कि‍या, और जैसा क‍ि इसका नाम है इसने मेरे यकीन से आगे बढ़कर काम कि‍या। फि‍र तो मैंने पूरे पर‍िवार को देना शुरू कर द‍िया और देखते ही देखते द‍िनचर्या की शुरुआत ग‍िलोय से होने लगी।

ग‍िलोय के सेवन ने बताया क‍ि रक्‍तव‍िकार, डायब‍िटीज, क‍िडनी, ब्‍लडप्रेशर, त्‍वचा व माहवारी, मेनोपॉज संबंधी परेशान‍ियां, इनडाइजेशन, ब्‍लोट‍िंग, एस‍िड‍िटी, जुकाम, खांसी, एलर्जी व हाथ पैरों का फटना व दर्द तथा सूजन और मोटापा  आद‍ि में क‍िस तरह इस मामूली सी द‍िखने वाली बेल ने महज दो महीनों के सेवन से छूमंतर कर द‍िया। 

अभी तक तो सुना और पढ़ा था परंतु जब स्‍वयं परखा तब मता लगा कि आखिर इसे अमृता क्‍यों कहते  हैं 1 

इसका सेवन खाली पेट करने से aplastic anaemia भी ठीक होता है। इसकी डंडी का ही प्रयोग करते हैं पत्तों का नहीं, उसका लिसलिसा पदार्थ ही दवाई होता है।
डंडी को ऐसे  भी चूस सकते है . चाहे तो डंडी कूटकर, उसमें पानी मिलाकर छान लें, हर प्रकार से गिलोय लाभ पहुंचाएगी।
इसे लेते रहने से रक्त संबंधी विकार नहीं होते . toxins खत्म हो जाते हैं , और बुखार तो बिलकुल नहीं आता। पुराने से पुराना बुखार खत्म हो जाता है।
इससे पेट की बीमारी, दस्त,पेचिश,  आंव, त्वचा की बीमारी, liver की बीमारी, tumor, diabetes, बढ़ा हुआ E S R, टी बी, white discharge, हिचकी की बीमारी आदि ढेरों बीमारियाँ ठीक होती हैं ।

आज भी ये घर में द‍िन के शुरुआत की अहम कड़ी बनी हुई है। आश्‍चर्य होता है ये देखकर क‍ि सच में एक औषध‍ि इतने रोगों में कैसे कारगर हो सकती है परंतु अब मेरा और मेरे पर‍िवार का स्‍वास्‍थ्‍य इसका जीवंत उदाहरण है। 

अमूमन तो मानव व्‍यवहार में एक कमी होती है क‍ि यद‍ि आप क‍िसी रोगी को अपनी ओर से उसका इलाज़ बताएंगे तो वह उसे "हल्‍के" में लेता है और हजारों की दवाइयों पर उसे पूरा भरोसा होता है क‍ि ये ठीक कर ही देंगी जबक‍ि होता उल्‍टा ही है। प्रत्‍यक्षत: एलोपैथ‍िक दवाइयां ठीक करती प्रतीत तो होती हैं परंतु वे साथ ही साथ अनेक साइड इफेक्‍ट भी "र‍िटर्न ग‍िफ्ट" के रूप में देकर जाती हैं। 

अब जबक‍ि मैं सबको बीमारी को ठीक करने के उपाय बताती हूं तब मालूम हो रहा है क‍ि आख‍िर क्‍यों डॉक्‍टर्स बीमारी को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं, क्‍योंक‍ि बीमारी को जब तक प्रोपेगंडा बतौर पेश ना क‍िया जाए तब तक लोग ना तो इलाज़ की गंभीरता समझते हैं और ना ही खासकर देशी इलाज़ की महत्‍ता को।

टेकन फॉर ग्रांटेड लेने की अपनी आदत ने हमें दवाइयों पर न‍िर्भर कर द‍िया है। हम आसान जीवन जीना ही भूल चुके हैं, बीमारी में भी थ्र‍िल खोजते हैं। 

   हालांक‍ि मैं प्रयास कर रही हूं क‍ि इसकी उपयोग‍ि‍ता सभी को बताऊं और आज इसके बारे में ल‍िखने का कारण भी यही है, परंतु दुख तब होता है जब लोग जानते बूझते हुए घर में उगाई जा सकने वाली इस बहुमूल्‍य औषध‍ि की उपेक्षा करते हैं। आज कौन सा ऐसा घर है जहां रक्‍तव‍िकार, डायब‍िटीज, क‍िडनी, ब्‍लडप्रेशर, त्‍वचा जैसी अन्‍य अनेक बीमार‍ियां नहीं है।   

 मेरा अनुमान है क‍ि हम सभी ने इस महामारी से क‍ितना नुकसान हुआ और आगे क‍ितना आगे हो सकता है या होने वाला है जैसे व‍िषयों पर रात द‍िन चर्चा की होगी, ये चर्चा अब भी ओमीक्रोन को लेकर चल ही रही है परंतु एक बात मेरे मन को इस पूरे दौर में खटकती रही, वह यह क‍ि हमारे अपने घरों में रोग की क‍िसी भी व‍िभीष‍िका से लड़ने के पर्याप्‍त साधन होते हुए भी हमने ना तो इनका मोल समझा और ना ही इन्‍हें अपनाया।

हमारे ब्रज में कहावत है क‍ि 'घर का जोगी जोगना, आनगांव का स‍िद्ध' अर्थात् घर के योगी (ज्ञानी) के ज्ञान को जीरो और दूसरों के ज्ञान को स‍िर माथे लेना, अब छोड़ना होगा। 

इसे लेने का एक ही तरीका मैंने आजमाया और वह ऊपर दी गई कई बीमार‍ियों में एकदम सटीक बैठा है। तो अगर आपको कहीं ग‍िलोय की बेल (आजकल ठंड के कारण सूखी हुई-मुरझाई हुई सी पत्‍तों से व‍िहीन) अगर कहीं द‍िखे तो कोश‍िश करके इसके लाभ उठाने से ना चूकें। 


लेने का सबसे आसान तरीका---(प्रत‍ि व्‍यक्‍त‍ि)


ग‍िलोय की बेल के तने के मध्‍यमा उंगली के बराबर छोटे छोटे टुकड़े कर लें, और अच्‍छी तरह कूट लें (अदरक की भांति), अब प्रत‍ि व्‍यक्‍त‍ि के ह‍िसाब से दो टुकडों को एक ग‍िलास पानी में धीमी आंच पर उबालें, पानी जब आधा हो जाये यान‍ि आधा ग‍िलास हो जाये तब इसे दि‍न में द‍िन में दो बार लें अर्थात् लगभग चौथाई कप एक बार में लें। सुबह खाली पेट व रात्र‍ि को सोते समय, चाहें तो थोड़ा सादा पानी मि‍ला लें ताक‍ि इसकी जो कड़वाहट बाकी हो वो कम लगे। 

एक और बात कि इसका विशुद्ध रूप में सेवन ज्‍यादा लाभदायक होता है ना कि इसकी गोलियां या वटी के रूप में::: 

इसके साथ-साथ सामान्‍य योगासन करेंगे तो सोने पै सोहागा सिद्ध होगी।

: अलकनंदा सिंह