शुक्रवार, 27 मार्च 2020

विश्व रंगमंच दिवस आज, हिन्दी रंगमंच दिवस 3 अप्रैल को



हर साल 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस या अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच दिवस मनाया जाता है। विश्व रंगमंच दिवस की स्थापना 1961 में इंटरनेशनल थियेट्रिकल इंस्टीट्यूट द्वारा की गई थी। उसके बाद से ही हर साल 27 मार्च को विश्वभर में रंगमंच दिवस मनाया जाता आ रहा है। 

यह दिन उन लोगों के लिए एक उत्सव है जो “थिएटर” के मूल्य और महत्व को देख सकते हैं और सरकारों, राजनेताओं और संस्थानों को जगाने का कार्य कर सकते हैं। इस दिन को मनाने का उद्देश्य दुनिया भर में रंगमंच को बढ़ावा देने और लोगों को रंगमंच के सभी रूपों के मूल्यों से अवगत कराना है। रंगमंच से संबंधित अनेक संस्थाओं और समूहों द्वारा इस दिन को विशेष दिवस के रूप में आयोजित किया जाता है। 

इस दिवस का एक महत्त्वपूर्ण आयोजन अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संदेश है, जो विश्व के किसी जाने माने रंगकर्मी द्वारा रंगमंच और शांति की संस्कृति विषय पर उसके विचारों को व्यक्त करता है। 1962 में पहला अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संदेश फ्रांस की जीन काक्टे ने दिया था। वर्ष 2002 में यह संदेश भारत के प्रसिद्ध रंगकर्मी गिरीश कर्नाड द्वारा दिया गया था।


भारत में रंगमंच का इतिहास
भारत में रंगमंच का इतिहास बहुत पुराना है। ऐसा समझा जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। ऋग्वेद के कतिपय सूत्रों में यम और यमी, पुरुरवा और उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का चिह्न पाते हैं। कहा जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा ग्रहण कर लागों ने नाटक की रचना की और नाट्यकला का विकास हुआ। उसी समय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। भारत मे जब रंगमंच की बात होती है तो ऐसा माना जाता है कि छत्तीसगढ़ में स्तिथ रामगढ़ के पहाड़ पर महाकवि कालीदास जी द्वारा निर्मित एक प्राचीनतम नाट्यशाला मौजूद है।


कहा जाता है कि महाकवि कालिदास ने यहीं मेघदूत की रचना की थी। इस आधार पर यह भी कहा जाता है कि अम्बिकापुर जिले के रामगढ़ पहाड़ पर स्तिथ महाकवि कालिदास जी द्वारा निर्मित नाट्यशाला भारत का सबसे पहला नाट्यशाला है। बता दें कि रामगढ़ सरगुजा जिले के उदयपुर क्षेत्र में है, यह अम्बिकापुर-रायपुर हाइवे पर स्तिथ है।
विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर रंगयात्रा नाट्य समारोह में बुधवार को थर्ड विंग संस्था की ओर से शाम 6:30 बजे कैसरबाग स्थित राय उमानाथ बली ऑडिटोरियम में नाटक ‘मध्यांतर’ का मंचन किया जाएगा। इसका निर्देशन वरिष्ठ रंगकर्मी पुनीत अस्थाना करेंगे। वहीं भारतेन्दु नाट्य आकादमी की ओर से गोमतीनगर के थ्रस्ट ऑडिटोरियम में नाटक ‘अंतर्द्वंद्व’ का मंचन प्रिवेन्द्र सिंह के निर्देशन में किया जाएगा।


हिन्दी रंगमंच दिवस 3 अप्रैल को मनाया जाएगा
इसी क्रम में कलाकार एसोसिएशन उत्तर प्रदेश की ओर से 3 अप्रैल को कैसरबाग स्थित राय उमानाथ बली ऑडिटोरियम में समारोह होगा। एसोसिएशन के अध्यक्ष संगम बहुगुणा ने बताया कि जून 1967 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-कृत ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ के अनुसार आधुनिक विधि से रंगमंच पर हिन्दी का पहला नाटक शीतला प्रसाद त्रिपाठी कृत ‘जानकी मंगल’ था। उसका मंचन बनारस के रॉयल थियेटर में 3 अप्रैल 1868 को किया गया था। 

इंग्लैंड के एलिन इंडियन मेल के 8 मई 1868 के अंक में उस नाटक के मंचन की जानकारी भी प्रकाशित की गई थी। उसी आधार पर पहली बार शरद नागर ने ही हिन्दी रंगमंच दिवस की घोषणा 3 अप्रैल को की थी। उसी की स्मृति में कलाकारों द्वारा नाट्य क्षणिकाओं का प्रदर्शन किया जाएगा। साथ ही संगीत और नृत्य के कायक्रम भी होंगे।

गुरुवार, 19 मार्च 2020

अंतत: … कानून जीता मगर अब बड़ी लाइन खींचने का समय

7 साल बाद ही सही, लेकिन आज दर‍िंदों को फांसी पर लटका द‍िये जाने बाद न‍िर्भया को न्याय म‍िल गया। न‍िर्भया के दोष‍ियों को लेकर ऐसी न्यूज़  हेडलाइंस सुबह से ही पूरे मीड‍िया पर छाई हुई हैं।
इस पूरे प्रकरण में ऐसी लज्जाजनक बातें सामने आईं, ज‍िन्होंने यह सोचने पर बाध्य कर द‍िया है क‍ि क्या हम ”इस सजा” के बाद अब भी समाज के सामने कोई उदाहरण प्रस्तुत कर पायेंगे या ये स‍िर्फ एक ”कानूनी जीत हार” का मसला बनकर ही रह जाएगा।
मैं ये बात इसल‍िए कह रही हूं क‍ि दोष‍ियों के घरवालों ने ज‍िस तरह उनके कुकृत्य को जायज ठहराया, वह समाज में व्याप्त ऐसी वीभत्स धारणा है ज‍िसके बारे में ”अभी के अभी” सोचना उतना ही जरूरी है ज‍ितना बलात्कारी को सजा द‍िलाना। सोच कर द‍ेखि‍ए क‍ि वे कैसी पत्नी और कैसी मां रही होंगीं जो ऐसे बर्बर दर‍िदों को बचाने में लगी रहीं। क्या वे स्वयं उस दर्द को महसूस कर सकती थीं जो न‍िर्भया ने झेला। क्या बलात्कार व बर्बरता उनके ल‍िए एक सामान्य घटना है। अगर माफी म‍िल भी जाती तो क्या वे इन दर‍िंदों की गारंटी ले सकती थीं क‍ि वो अब आगे ऐसा नहीं करेंगे, और यह भी क‍ि फ‍िर कानून पर फ‍िर कौन व‍िश्वास करता।
ये हमारे ल‍िए शर्म की बात है क‍ि न‍िर्भया की मां आशा देवी और दोष‍ियों के वकील एपी स‍िंह दो ऐसे पहलू हैं ज‍िनमें से एक कानून की लाचारगी द‍िखाता है तो दूसरे में कानून का कोई खौफ नहीं, उसने अपनी पब्ल‍िस‍िटी के ल‍िए जमकर कानून का मजाक बार बार उड़ाया और इसे बड़े फख़्र के साथ अपना ”कर्तव्य कहा। यहां तक क‍ि उसने न‍िर्भया की मां को चुनौती दे डाली क‍ि चाहे कहीं (इंटरनेशनल कोर्ट) तक जाना पड़े, इन्हें फांसी तो नहीं ही होने दूंगा।
एपी स‍िंह की तरह ही कुछ तथाकथ‍ित बुद्ध‍िजीवी (ज‍िनमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज भी शाम‍िल हैं) भी इस बात पर अपने ”महान व‍िचार” उगलते द‍िखाई दे रहे हैं क‍ि क्या फांसी दे देने से दर‍िंदगी रुक जाएगी और जो सात साल जेल में रहे उन को भी जीने का अध‍िकार है… आद‍ि आद‍ि… ।
तो ऐसे लोगों को अब ये बताया जाना जरूरी हो गया है क‍ि कठोर दंड ही कानून का भय समाज में बनाए रखता है ताक‍ि व्यवस्थायें सही तरीके से संचाल‍ित होती रहें। यद‍ि अपराध‍ियों के अध‍िकारों की बात करने लगेंगे तो अराजकता के स‍िवाय कुछ भी हास‍िल नहीं होने वाला। ये हम सभी को समझने और द‍िलोद‍िमाग में पूरी तरह बैठा लेनी चाह‍िए क‍ि जो कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह अधिकार का दावा भी नहीं कर सकता। बलात्कार के बाद ज‍िस तरह न‍िर्भया के साथ बर्बरता की गई, उस बर्बरता ने उनकी आपराधि‍क प्रवृत्त‍ि जाह‍िर कर दी। इसमें ये बहाना भी नहीं चलने वाला क‍ि वे आदतन अपराधी नहीं थे इसल‍िए उन्हें राहत दी जानी चाह‍िये थी ।
बहरहाल, न‍िर्भया केस ने हमें बताया क‍ि अब एक ऐसी लाइन खींचने का समय आ गया है जो कानून और समाज के बीच ”कर्तव्यों” को प्राथम‍िकता दे न क‍ि अध‍िकारों की दुहाई देकर समाज को सड़न की ओर धकेले। हद से ज्यादा ल‍िबरलाइजेशन समाज को दायि‍त्वबोध नहीं कराता, उसे उच्छृंखल बनाता है।
- अलकनंदा स‍िंंह 

सोमवार, 2 मार्च 2020

ऐसे श‍िक्षकों को तो ‘न‍िष्ठा’ कार्यक्रम या ‘प्रेरणा’ एप भी नहीं सुधार सकते

आज एक लज्जाजनक व‍िषय पर ल‍िखने जा रही हूं जो यह सोचने पर बाध्य करता है क‍ि अपने बच्चों में श‍िक्षा व संस्कार प‍िरोने की इच्छा के साथ हम उन्हें ज‍िन श‍िक्षकों के हवाले करते हैं, क्या वे श‍िक्षक स्वयं इतने संस्कारवान हैं क‍ि हमारे बच्चों को ”लायक बना सकें”?
आज एक लज्जाजनक व‍िषय पर ल‍िखने जा रही हूं जो यह सोचने पर बाध्य करता है क‍ि अपने बच्चों में श‍िक्षा व संस्कार प‍िरोने की इच्छा के साथ हम उन्हें ज‍िन श‍िक्षकों के हवाले करते हैं, क्या वे श‍िक्षक स्वयं इतने संस्कारवान हैं क‍ि हमारे बच्चों को ”लायक बना सकें”? या फ‍िर हम भी उसी अंधी और भयावह दौड़ में शामिल हैं जो क‍ि प्राइमरी से लेकर ड‍िग्रीधारक तक तो तैयार कर रही है मगर संस्कार और शैक्षण‍िक योग्यता उनमें स‍िरे से नदारद है।
और यही साब‍ित क‍िया है उत्तरप्रदेश के फ‍िरोजाबाद ज‍िले की उन श‍िक्ष‍िकाओं ने जो न केवल स्वयं सपना चौधरी के गानों पर डांस कर रही थीं बल्क‍ि अपने ऊपर पुरुष श‍िक्षकों द्वारा लुटाए जा रहे रुपयों का वीड‍ियो भी बना रही थीं। श‍िक्ष‍िकाओं के डांस करने पर भला क‍िसे आपत्त‍ि हो सकती है परंतु ट्रेन‍िंग प्रोग्राम के दौरान ”यह सब” क‍िया जाना बेहद आपत्त‍िजनक है।
देख‍िए वायरल वीड‍ियो का ल‍िंंक- https://www.youtube.com/watch?v=o_Tk7LqX0qA 
दरअसल, श‍िक्षकों के भीतर नेतृत्व क्षमता व श‍िक्षण कार्य में दक्षता प्राप्त करने के ल‍िए सरकार द्वारा सरकारी कार्यालय में चलाए जा रहे ”न‍िष्ठा प्रोग्राम” के दौरान न केवल यह डांस क‍िया गया बल्क‍ि साथी श‍िक्षकों द्वारा श‍िक्ष‍िकाओं पर रुपये लुटाए जाने का वीड‍ियो बनाया गया, फ‍िर उसे वायरल भी क‍िया गया। ये पूरा का पूरा घटनाक्रम श‍िक्षकों की घट‍िया मानस‍िकता को दर्शाता है।
हालांक‍ि अब इस पर कार्यवाही हो रही है परंतु सवाल यही है क‍ि ये सब हुआ ही क्यों…जो श‍िक्ष‍िकायें अपने ऊपर पुरुष साथ‍ियों द्वारा रुपये लुटाए जाने को एंज्वॉय कर सकती हैं, वे भला बच्चों को कौन सी श‍िक्षा व संस्कार देंगी। इससे पहले भी प्रदेश के श‍िक्षकों की स्कूलों में उपस्थ‍ित‍ि सुन‍िश्च‍ित करने के ल‍िए लाए गए ”प्रेरणा एप” को लेकर भी श‍िक्षकों का बेहद जाह‍िलाना रवैया सामने आया था। उन्हें अपनी उपस्थ‍ित‍ि को लेकर प्रेरणा एप पर बस रोजाना अपनी क्लास के बच्चों के साथ एक सेल्फी पोस्ट करनी थी … व‍िरोध का तर्क था क‍ि सरकार इस सेल्फी से श‍िक्षकों की न‍िजता पर हमला कर रही है। उन पर अव‍िश्वास जता रही है। एक तर्क ये भी द‍िया गया क‍ि सभी के पास मोबाइल नहीं हैं, सरकार मोबाइल फोन मुहैया करवाये।
कुल म‍िलाकर बात वहीं आकर ठहरती है क‍ि आख‍िर ये स्थि‍ति आई ही क्यों। सभी श‍िक्षक ज‍ितना मानदेय, सैलरी व अन्य भत्तों को लेकर ज‍ितना सचेत रहते हैं, उतना कर्तव्यों को लेकर क्यों नहीं रहते। ऐसा नहीं हैं क‍ि जो अपने कर्तव्यों को न‍िभाते हैं उन्हें नजरंदाज़ कर द‍िया जाता है, वरना राष्ट्रीय स्तर पर श‍िक्षक सम्मान नहीं द‍िये जा रहे होते। अपने कर्तव्य न‍िभाने की बजाय सरकारों के ख‍िलाफ सड़कों पर उतर कर, अपने अध‍िकार मांगने को हड़ताल और तरह-तरह से व‍िरोध प्रदर्शन करने वाले श‍िक्षकअपना सम्मान स्वयं ग‍िराते हैं।
”सरकारी नौकरी” करने वाले श‍िक्षक और श‍िक्षा संस्कार देने वाले ”गुरू” दोनों एक दूसरे से उतने ही अलग हैं ज‍ितने क‍ि पूरब और पश्च‍िम। श‍िक्षाम‍ित्रों के संगठन, बेस‍िक श‍िक्षक संघ, माध्यम‍िक श‍िक्षक संघ से लेकर यूनिवर्स‍िटीज तक आजकल यही आलम है क‍ि नौकरी करने वाले टीचर तो तमाम म‍िल जायेंगे मगर एक आदर्श गुरू नहीं मिलेगा। डांस करना बुरा नहीं है, उसको ज‍िस जगह, ज‍िस रूप और ज‍िस मानस‍िकता के साथ क‍िया गया, वह लज्जाजनक है। हर काम सरकारें नहीं कर सकतीं। बतौर अभ‍िभावक और बतौर श‍िक्षक कुछ तो ज‍िम्मेदारी हम सबको भी लेनी ही होगी, वरना ऐसी श‍िकायतें आती रहेंगी और दोषारापण हम आइस-पाइस खेल की तरह एक दूसरे पर करते रहेंगे।
- अलकनंदा स‍िंंह