सदियों से बनीं धारणायें अब अपने चोले को उतारने लगी हैं और महिलाओं की मौजूदा स्थिति से ज्यादा अच्छा उदाहरण और इसका क्या हो सकता है। परंतु जब चोला उतरता है और बदलाव नज़र आता है तो अच्छाई के साथ उसकी वो बुराइयां भी नज़र आने लगती हैं जिनसे तंग आकर बदलाव हुआ। अधिकांशत: ये बुराइयां हमारी परिकल्पना से भी ज्यादा भयावह होती हैं। पिछले दो तीन दिनों से चल रही दिल्ली हिंसा ने महिलाओं के इसी वीभत्स रूप को मेरे सामने ''नंगा'' कर दिया।
कौन कहता है कि महिलायें हैं- तो जीवन है, वे हैं तो प्रेम है, उन्होंने पृथ्वी पर जीवन को संजोया, परिवार , रिश्ते और पीढ़ियों को संस्कार देने में अपना ''सर्वस्व'' निछावर कर दिया। यदि ऐसा ही होता तो कल दिल्ली हिंसा के दौरान पत्थरबाजी करती वृद्ध महिला का वीडियो देखकर मैं ये सोचने पर बाध्य ना होती... कि जब कोई मां इतनी हिंसक हो सकती है, तो उसने अपने बच्चों को क्या क्या और ना सिखाया होगा।
ये महिला उम्र के लगभग आखिरी पड़ाव पर थी। पत्थरबाजी कर रहे उपद्रवियों के साथ इसने न केवल स्वयं पत्थरबाजी की बल्कि पत्थरबाजी करते हुए नाले में गिर पड़ी और लहूलुहान हो गई, और उसी घायल अवस्था में भी फ़ख्र के साथ बता रही थी कि मेरा खून बहा तो क्या हुआ, मैंने भी इतनी जोर से पत्थर मारा कि वो सीधा पुलिस वाले के माथे पर लगा और वो (गाली देते हुए बोली ) बिलबिला कर गिर पड़ा, अभी तो और पुलिस वालों को ऐसे ही मारूंगी। एक वृद्ध महिला से ऐसी उम्मीद हममें से कोई नहीं कर सकता,स्वप्न में भी नहीं।
देश ही नहीं ये तो पूरे विश्व में ये साफ हो चुका है कि दिल्ली सहित पूरे देश में जो कुछ सीएए के नाम पर अराजकता फैलाई जा रही है, वह मात्र कानून के लिए नहीं बल्कि ऐसी ही कथित मांओं का सहारा लेकर उन लोगों द्वारा स्पॉंसर्ड है जिन्हें देश के टुकड़े करने से गुरेज़ नहीं।
ज़रा याद कीजिए जेएनयू में मामूली फीस वृद्धि का उन ''कथित छात्रों'' द्वारा विरोध किया गया जिनके हाथों में ''आईफोन्स'' थे, जिनके ड्रग्स लेते हुए वीडियो वायरल हुए, जो कन्हैया कुमार सरकारी अनुदान से जेएनयू में पढ़ाई कर रहा था , जिसके मां बाप गरीबी रेखा से नीचे थे , उसके पास लाखों की संपत्ति ( चुनाव के लिए दिये गए शपथपत्र के अनुसार ) कहां से आई, जो शरजील इमाम शाहीन बाग में आसाम को भारत से काटने का सरेआम ऐलान कर रहा था, इसके सुबूत भी सामने आ रहे थे परंतु उसके मां बाप कह रहे थे कि उनके बेटे को साजिशन फंसाया जा रहा है।
ये और इन जैसे तमाम उदाहरण हैं जो मांओं की ''झूठ सिखाती और हिंसा को जायज ठहराती'' परवरिश ही नहीं, स्वयं उनकी ''मानवीय मंशा'' पर भी सवाल उठाते हैं, ये बदलाव समाज के लिए तो घातक हैं ही, स्वयं महिलाओं के लिए भी आत्मघाती हैं। अपने बच्चों, भाइयों और साथियों को हिंसा के उकसाने वाली महिलायें यह भूल रही हैं कि वे भी इसी आग से झुलसेंगीं , ये निश्चित है।
अब ये तो हमें सोचना है कि हम किस तरह का समाज चाहते हैं, नई पीढ़ी से अच्छाई की अपेक्षा तभी रखी जा सकती है जब हम स्वयं अपने घर से... अपने बच्चों से इसकी शुरुआत करें। समाज के किसी भी अपराध, पतन या भ्रष्टाचार का पहिया घर और घर की महिलाओं पर आकर ही टिकता है। सोचकर देखिए ... और आज से ही अपने घर आपने बच्चों से इसकी शुरुआत कीजिये।
- अलकनंदा सिंंह
कौन कहता है कि महिलायें हैं- तो जीवन है, वे हैं तो प्रेम है, उन्होंने पृथ्वी पर जीवन को संजोया, परिवार , रिश्ते और पीढ़ियों को संस्कार देने में अपना ''सर्वस्व'' निछावर कर दिया। यदि ऐसा ही होता तो कल दिल्ली हिंसा के दौरान पत्थरबाजी करती वृद्ध महिला का वीडियो देखकर मैं ये सोचने पर बाध्य ना होती... कि जब कोई मां इतनी हिंसक हो सकती है, तो उसने अपने बच्चों को क्या क्या और ना सिखाया होगा।
ये महिला उम्र के लगभग आखिरी पड़ाव पर थी। पत्थरबाजी कर रहे उपद्रवियों के साथ इसने न केवल स्वयं पत्थरबाजी की बल्कि पत्थरबाजी करते हुए नाले में गिर पड़ी और लहूलुहान हो गई |
देश ही नहीं ये तो पूरे विश्व में ये साफ हो चुका है कि दिल्ली सहित पूरे देश में जो कुछ सीएए के नाम पर अराजकता फैलाई जा रही है, वह मात्र कानून के लिए नहीं बल्कि ऐसी ही कथित मांओं का सहारा लेकर उन लोगों द्वारा स्पॉंसर्ड है जिन्हें देश के टुकड़े करने से गुरेज़ नहीं।
ज़रा याद कीजिए जेएनयू में मामूली फीस वृद्धि का उन ''कथित छात्रों'' द्वारा विरोध किया गया जिनके हाथों में ''आईफोन्स'' थे, जिनके ड्रग्स लेते हुए वीडियो वायरल हुए, जो कन्हैया कुमार सरकारी अनुदान से जेएनयू में पढ़ाई कर रहा था , जिसके मां बाप गरीबी रेखा से नीचे थे , उसके पास लाखों की संपत्ति ( चुनाव के लिए दिये गए शपथपत्र के अनुसार ) कहां से आई, जो शरजील इमाम शाहीन बाग में आसाम को भारत से काटने का सरेआम ऐलान कर रहा था, इसके सुबूत भी सामने आ रहे थे परंतु उसके मां बाप कह रहे थे कि उनके बेटे को साजिशन फंसाया जा रहा है।
ये और इन जैसे तमाम उदाहरण हैं जो मांओं की ''झूठ सिखाती और हिंसा को जायज ठहराती'' परवरिश ही नहीं, स्वयं उनकी ''मानवीय मंशा'' पर भी सवाल उठाते हैं, ये बदलाव समाज के लिए तो घातक हैं ही, स्वयं महिलाओं के लिए भी आत्मघाती हैं। अपने बच्चों, भाइयों और साथियों को हिंसा के उकसाने वाली महिलायें यह भूल रही हैं कि वे भी इसी आग से झुलसेंगीं , ये निश्चित है।
अब ये तो हमें सोचना है कि हम किस तरह का समाज चाहते हैं, नई पीढ़ी से अच्छाई की अपेक्षा तभी रखी जा सकती है जब हम स्वयं अपने घर से... अपने बच्चों से इसकी शुरुआत करें। समाज के किसी भी अपराध, पतन या भ्रष्टाचार का पहिया घर और घर की महिलाओं पर आकर ही टिकता है। सोचकर देखिए ... और आज से ही अपने घर आपने बच्चों से इसकी शुरुआत कीजिये।
- अलकनंदा सिंंह