Down the drain एक सबक के तौर पर है उनके लिए जो हमेशा अपने काम से असंतुष्ट रहते हैं
इस मानसूनी मौसम में कहीं जलभराव और कहीं सीवर का पानी उफनते देखकर सफाईकर्मियों को गरियाते हुए, उनके लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए हम किसी को भी, कहीं भी देख सकते हैं। गंदगी के लिए इन्हें जिम्मेदार ठहराते हैं मगर इनके हालातों पर चर्चा करने से मुंह फेरते हैं। वह भी तब जबकि इनके बगैर एक दिन भी हम अपना सामान्य जीवन नहीं जी सकते। अंदाज़ा लगाइये कि एक दिन कूड़ा ना उठे तो हमारा दिमाग भन्ना जाता है, सीवर संबंधी समस्या तो जानलेवा बन जाती है पूरे वातावरण के लिए। तो सोचिए कि जो इस काम में लगे हैं उनका क्या हाल होता होगा।
कल सफाईकर्मियों के हालातों पर एक आंकड़ा सामने आया कि हर साल सीवर की सफाई करते हुए भारत में लगभग 22,327 लोग मारे जाते हैं। यह आंकड़ा बताता है कि सुप्रीमकोर्ट के तमाम आदेशों की किस तरह अवमानना होती रही है। नगर निगमों, पालिकाओं में काम कर रहे सफाईकर्मियों को उनकी औसत सुविधायें भी नहीं दी जा रहीं। उन्हें मानसून में जलभराव होते ही किसी न किसी ऐसे सीवर में उतरना होता है, जहां से सही सलामत वापसी की कोई गारंटी नहीं होती।
इसके अलावा गांव-गिरांव में तो प्राइवेट सफाईकर्मियों से आज भी मैन्युअली गंदगी साफ करवाई जा रही है सो अलग। हां, घर-घर में शौचालय बनाए जाने की मुहिम ने हालात कुछ हद तक काबू में किये हैं परंतु इसमें अभी तक सहजता नहीं आई है क्योंकि इसके पीछे के सामाजिक कारण अभी तक व्याप्त हैं।
आज मैं बात कर रही हूं उन शहरी इलाकों की जहां सरकारी अमले के पास साधन होने के बावजूद सफाईकर्मियों को सीवर की सफाई के लिए अमानवीय वातावरण में काम करना पड़ रहा है।
हालांकि भारतीय संसद ने मैनुअल स्कैंवेंजर एंड रिहैबिलिटेशन एक्ट 2013 भी पास किया है और सुप्रीम कोर्ट का भी स्पष्ट आदेश है कि किसी व्यक्ति को सीवर में न भेजा जाए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने सीवर साफ करने के दौरान हुई मौत का मुआवजा 10 लाख फिक्स किया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की खुलेआम अवहेलना और अवमानना की जा रही है, यहां तक कि सफाईकर्मियों को धड़ल्ले से सीवर में उतार दिया जाता है जिसका परिणाम उनकी भयंकर मौत के रूप में देखने को मिलता है। समाचारों में भी सफाईकर्मियों की मौत चंद क्षणों की सुर्खियां बनती हैं और फिर उनकी मौत को नजरअंदाज करके सफाईकर्मियों को बेधड़क सीवर में उतार दिया जाता है।
2014 में आई प्रैक्सिस संस्था की रिपोर्ट ”Down the drain” से पता लगता है कि सीवर में काम करने वाले मज़दूरों की मौत का कोई आधिकारिक डेटा नहीं रखा जाता। सीवर में उतरने वाले जातिवाद का जो दंश झेलते हैं, उस पर बात फिर कभी करूंगी। 20 फुट गहरे सीवर में उतरे सफाईकर्मी के लिए सांस लेने तक की साफ हवा नहीं मिलती, यह भी पता नहीं होता कि अंदर हाइड्रोजन सल्फाइड इंतज़ार कर रही है या मिथेन गैस। गैस की मौजूदगी पता करने का इनके पास कोई उपकरण नहीं होता, कई बार माचिस की तीली जलाकर जांच कर लेते हैं बस। बदन पर कोई कपड़ा नहीं होता है, कमर में रस्सी बंधी होती है ताकि कीचड़ में फंस जाए तो कोई खींच कर बाहर निकाल ले।
बहरहाल, जलभराव के इस मौसम में हम सिर्फ कामना ना करें कि सीवर साफ रहे, बल्कि सीवर सफाई के लिए अपने-अपने यहां की सरकारी संस्थाओं पर दबाव बनायें कि वे सफाईकर्मियों को काम करने के लिए सारे साधन मुहैया करायें क्योंकि कोई भी स्वच्छता मिशन तब तक अधूरा रहेगा जबतक कि इसे आखिरी व्यक्ति की सुरक्षा से ना जोड़ा जाए।
-अलकनंदा सिंह