9 अप्रैल, 1893 को जन्मे केदारनाथ पांडेय कब और कैसे राहुल सांकृत्यायन बन गए, इसके पीछे उनकी हजारों मील लंबी यात्रायें रहीं। दूर पहाड़ों और नदियों के बीच दुर्लभ ग्रंथों की खोज में भटकने के बाद, उन ग्रंथों को खच्चरों पर लाद कर अपने देश में लाने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन ही थे। उनका निधन भी अप्रैल माह में ही 14 तारीख 1963 को हो गया।
हजारों मील दूर पहाड़ों और नदियों के बीच दुर्लभ ग्रंथों की खोज में भटकने के बाद, उन ग्रंथों को खच्चरों पर लाद कर अपने देश में लाने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन ही थे। घुमक्कड़ी को वे धर्म मानते थे। घुमक्कड़ी उनके जीवन का मूल मंत्र रही। आज दुनिया उन्हें एक यायावर, इतिहासविद, तत्त्वान्वेषी, युगपरिवर्तनकार साहित्यकार के रूप में जानती है। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिंदी साहित्य में सराहनीय है।
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गांव में 9 अप्रैल, 1893 को जन्मे राहुल सांकृत्यायन के बचपन का नाम केदारनाथ पांडेय था। उनके पिता गोवर्धन पांडेय किसान थे। उनके बचपन में ही माता कुलवंती का देहांत गया। उनका पालन-पोषण उनके नाना-नानी ने किया था। प्राथमिक शिक्षा के लिए उन्हें गांव के ही एक मदरसे में भेजा गया। उनका विवाह बचपन में ही कर दिया गया था, पर राहुल ने गृहस्थी बसाने के बजाय कुछ और ही सोच रखा था। वे किशोरावस्था में घर छोड़ कर चले गए और एक मठ में साधु बन गए। बाद में कलकत्ता चले गए। सन 1937 में उन्होंने रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में संस्कृत अध्यापक की नौकरी की और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली।
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’सन 1930 में श्रीलंका जाकर उन्होंने बौद्ध धर्म पर शोध किया और तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गए। सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाए। उनके ज्ञान भंडार के कारण काशी के पंडितों ने उन्हें ‘महापंडित’ की उपाधि दी और इस तरह वे केदारनाथ पांडे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गए। |
साहित्य के प्रति रुझान
राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी साहित्य ही नहीं, भारत के कई अन्य क्षेत्रों के लिए भी शोध कार्य किया। उन्होंने धर्म, दर्शन, लोकसाहित्य, यात्रा साहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोष, प्राचीन ग्रंथों का संपादन कर विविध क्षेत्रों में अहम काम किया।
राजनीतिक जीवन
राहुल सांकृत्यायन ने कई सामाजिक कुरीतियों को भी तोड़ा। एक बार उन्होंने बलि प्रथा के विरुद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के पुरोहित की हिंसा का शिकार होना पड़ा। जब वे तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में गए तो सत्ता के लोभी सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की। वे सत्य का साथ देते थे और इसी का उदाहरण सन 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में दिया उनका भाषण है। उस समय उन्होंने जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति और भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजतन उन्हें पार्टी की सदस्यता से हाथ धोना पड़ा। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ और ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में मार्क्सवाद पर प्रकाश डाला है।
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पटना संग्रहालय स्थित बिहार रिसर्च सोसाइटी में इन ग्रंथों को सहेजकर रखा गया है। इनका डिजिटलाइजेशन भी हो चुका है। मगर इनका अनुवाद अभी होना बाकी है |
प्रमुख कृतियां
’अलग-अलग देशों की यात्रा के कारण वे बहुभाषी बने। उन्होंने हिंदी, संस्कृत, पालि, भोजपुरी, उर्दू, पर्शियन, अरबी, तमिल, कन्नड़, तिब्बती, फ्रेंच और रूसी आदि भाषाओं में कई किताबें लिखीं। उनकी प्रमुख कृतियां हैं-
कहानी संग्रह : सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा। उपन्यास : जीने के लिए, बाईसवीं सदी, जय यौधेय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, विस्मृत यात्री, दिवोदास।
आत्मकथा : मेरी जीवन यात्रा
जीवनी : बचपन की स्मृतियां, सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, अतीत से वर्तमान, लेनिन, स्तालिन, कार्ल मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, घुमक्कड़ स्वामी, मेरे असहयोग के साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, वीर चंद्रसिंह गढ़वाली, सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन, कप्तान लाल, महामानव बुद्ध और सिंहल के वीर पुरुष।
यात्रा साहित्य : मेरी तिब्बत यात्रा, मेरी लद्दाख यात्रा, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, तिब्बत में सवा वर्ष, रूस में पच्चीस मास, घुमक्कड़-शास्त्र
सम्मान
साहित्य अकादेमी पुरस्कार, पद्म भूषण, त्रिपिटिकाचार्य
निधन : दार्जिलिंग में 14 अप्रैल 1963 को उनका निधन हो गया।
प्रस्तुति: अलकनंदा सिंह