वो फैमिली हेयर ड्रेसर थे, दुबई रिटर्न...जी हां...''दुबई रिटर्न'', ये तमगा 90 के दशक में बड़ी बात हुआ करती थी, वो बताते थे कि वो स्वयं तब वहां शेखों के पर्सनल सैलून्स में हजामत किया करते थे।
खुशदिल, मिलनसार और ओवरऑल एक अच्छी पर्सनालिटी के मालिक थे हारून भाई। मथुरा में उनकी दुकान हमेशा शिफ्ट होती रहती, कभी चौराहे के पास किसी नन्हीं सी गली में तो कभी नामालूम वीरानी सी रोड पर। दुकान कहीं भी पहुंच जाए, मगर हारून भाई के ''हुनर'' के मुरीद उनको तलाश ही लेते थे। उनकी कस्टमर लिस्ट में एक ओर जहां शहर के अमीरजादे, नवधनाढ्य, गणमान्य नागरिक, फैशनपरस्त थे वहीं दूसरी ओर आमजन भी उसी शिद्दत से उन्हें आजमाते थे। एक अजब सा सम्मोहन था उनके उंगलियों में जो नन्हें बच्चों को भी चुपचाप हेयर ड्रेसिंग कराने को बाध्य कर देता।
लगभग एक साल पहले की बात है कि अचानक एक दिन उनके बेटे का फोन आया कि ''मेरे अब्बा और आपके हारून भाई नहीं रहे...''। उनका जाना हमारे लिए किसी अज़ीज की रुखसती जैसा था। बेटे से तफसील जानी तो पता लगा कि वो डायबिटिक थे, उनका शहर के जाने माने एंडोक्रायनोलॉजिस्ट से इलाज चल रहा था, डॉक्टर ने उन्हें इतनी हैवी मैडीसिन्स दी कि उनका पैन्क्रियाज ही बस्ट हो गया, उन्हें जो इंजेक्शन्स इंट्रामस्कुलर दिए जाने थे, वो इंट्रावेनस दिए गए, जिससे उनका दिमाग डेड हो गया, जब शरीर में जहर फैलता देखा तब जाकर डॉक्टर ने उन्हें दिल्ली के अपोलो अस्पताल के लिए रैफर किया, वहां का हाल भी कमोबेश ऐसा ही था, बस बच्चों को सुकून था कि सर्वोच्च सुविधा का हॉस्पीटल है तो अच्छे रिजल्ट आऐंगे, परंतु कुछ दिन वेंटीलेटर पर रखने के बाद उनका मृत शरीर ही हाथ आया।
इस तफसील का लब्बोलुआब ये कि अच्छे खासे हारून भाई को डायबिटीज ने नहीं, बल्कि गलत और एक की जगह दस दवाओं के हाईडोज ने मारा और इसका जिम्मेदार कौन...? ज़ाहिर है वही जिम्मेदार माना जाएगा जिसने दवाइयां दीं...जिसने जानबूझकर उन्हें कई दिनों तक अपने यहां सिर्फ हैवी बिल बनाने के लालच में एडमिट रखा और बिगड़ती तबियत को 'अंडरकंट्रोल' बताता रहा।
ज़रा बताइये कि मरीजों की जान से खेलने वाले झोलाछाप डॉक्टर्स को जब हम गलत ठहराते हैं तो ये स्पेशलिस्ट क्या कहे जाने चाहिए। बेशर्मी की हद देखिए कि डॉक्टर्स की संस्था ''इंडियन मेडीकल एसोसिएशन'' यानि आईएमए इस जानलेवा अपराध को चुप्पी साधे देखती रहती है। डॉक्टर्स की लापरवाही के ऐसे किसी भी मामले पर आईएमए का बोलना तो दूर, बल्कि उन्हें इस लूट-खसोट की मौन स्वीकृति देती है।
कौन नहीं जानता कि हर नर्सिंग होम के भीतर मेडीकल स्टोर रखना नाजायज है, फिर भी रखा जाता है, या ये कौन नहीं जानता कि पैथोलॉजीकल लैब बाकायदा कमीशन-सेंटर के तौर पर डॉक्टर्स की ''साइड-इनकम'' का ज़रिया होती हैं, कैसे एक ही टेस्ट के लिए हर पैथलैब का रिजल्ट अलग अलग होता है।
आईएमए के साथ साथ मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) भी इस बावत आंखें फेरे रहती है कि जिन मेडीकल प्रैक्टिशनर्स को उसने प्रैक्टिस के लिए मान्यता दी है, वे उसका पालन कर भी रहे हैं या नहीं। यूं तो स्वास्थ्य मंत्रालय भी आंखें मूंदे था, यदि गत दिनों प्रसिद्ध हॉस्पीटल फोर्टिस में डेंगू से बच्ची के मर जाने तथा उसके पिता को 18 लाख रुपए का बिल थमा देने जैसा गंभीर मामला सामने न आता। अस्पताल की असंवेदनशीलता तथा लूट को सभी ने सुना होगा कि कैसे अस्पताल के संचालकों द्वारा कई दिन पहले मर चुकी बच्ची का शव सिर्फ मोटा बिल बनाने के लिए उपयोग किया जाता रहा और अंतत: बच्ची का निर्जीव शरीर उन्हें थमा दिया गया।
ये कोई किस्सा नहीं बल्कि ऐसी हकीकत है जिसे हर वो परिवार भोगता है जिसका कोई अपना धरती पर भगवान कहलाने वाले चिकित्सकों की शरण में पहुंचने को मजबूर होता है।
फोर्टिस अस्पताल की ब्लैकमेलिंग के मामले ने वो सारे ज़ख्म ताज़ा कर दिए जो हमने हारून भाई की मौत के बाद जाने थे।
संभवत: इसीलिए आमजन की तो अब यह धारणा हो गई है कि मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पीटल, हैल्थ पैकेजेज, भारी-भरकम डिग्रियों से सुसज्जित डॉक्टर्स के ये सिर्फ आधुनिक कसाईखाने हैं। हालांकि अपवाद अभी भी शेष हैं, मगर कितने।
अब तो बस ये देखना है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जो राज्यों को ''क्लीनकल स्टैब्लिशमेंट एक्ट'' लागू करने को कहा गया है, उसे कितने समय और कितने राज्यों द्वारा लागू किया जाता है क्योंकि इस ''क्लीनकल स्टैब्लिशमेंट एक्ट'' के तहत अस्पतालों को विभिन्न सेवाओं व चिकित्सकीय प्रक्रियाओं के लिए तय फीस का ब्यौरा देना होगा। यदि ऐसा होता है तो अब भी समय है कि मेडीकल जगत जनता का भरोसा कायम रख सकता है। हकीकतन तो आज कोई डॉक्टर ऐसा नज़र नहीं आ रहा जो उस शपथ की सार्थकता सिद्ध कर पाने के लायक भी हो जिसमें पूरी मानवता की सेवा को सर्वोपरि मानने की बात कही गई थी।
बहरहाल, अफसोस तो इस बात का है कि व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में पता नहीं कब धरती के भगवानों ने शैतान का रूप धारण कर लिया और कैसे उनकी पैसे को लेकर हवस इस कदर बढ़ गई कि उनके लिए इंसानी जान की कोई कीमत ही नहीं रही। अगर कुछ रहा तो केवल इतना कि किस तरह मरीज के परिजनों की भावनाओं का खून की अंतिम बूंद तक दोहन किया जा सके।
-अलकनंदा सिंह
खुशदिल, मिलनसार और ओवरऑल एक अच्छी पर्सनालिटी के मालिक थे हारून भाई। मथुरा में उनकी दुकान हमेशा शिफ्ट होती रहती, कभी चौराहे के पास किसी नन्हीं सी गली में तो कभी नामालूम वीरानी सी रोड पर। दुकान कहीं भी पहुंच जाए, मगर हारून भाई के ''हुनर'' के मुरीद उनको तलाश ही लेते थे। उनकी कस्टमर लिस्ट में एक ओर जहां शहर के अमीरजादे, नवधनाढ्य, गणमान्य नागरिक, फैशनपरस्त थे वहीं दूसरी ओर आमजन भी उसी शिद्दत से उन्हें आजमाते थे। एक अजब सा सम्मोहन था उनके उंगलियों में जो नन्हें बच्चों को भी चुपचाप हेयर ड्रेसिंग कराने को बाध्य कर देता।
लगभग एक साल पहले की बात है कि अचानक एक दिन उनके बेटे का फोन आया कि ''मेरे अब्बा और आपके हारून भाई नहीं रहे...''। उनका जाना हमारे लिए किसी अज़ीज की रुखसती जैसा था। बेटे से तफसील जानी तो पता लगा कि वो डायबिटिक थे, उनका शहर के जाने माने एंडोक्रायनोलॉजिस्ट से इलाज चल रहा था, डॉक्टर ने उन्हें इतनी हैवी मैडीसिन्स दी कि उनका पैन्क्रियाज ही बस्ट हो गया, उन्हें जो इंजेक्शन्स इंट्रामस्कुलर दिए जाने थे, वो इंट्रावेनस दिए गए, जिससे उनका दिमाग डेड हो गया, जब शरीर में जहर फैलता देखा तब जाकर डॉक्टर ने उन्हें दिल्ली के अपोलो अस्पताल के लिए रैफर किया, वहां का हाल भी कमोबेश ऐसा ही था, बस बच्चों को सुकून था कि सर्वोच्च सुविधा का हॉस्पीटल है तो अच्छे रिजल्ट आऐंगे, परंतु कुछ दिन वेंटीलेटर पर रखने के बाद उनका मृत शरीर ही हाथ आया।
इस तफसील का लब्बोलुआब ये कि अच्छे खासे हारून भाई को डायबिटीज ने नहीं, बल्कि गलत और एक की जगह दस दवाओं के हाईडोज ने मारा और इसका जिम्मेदार कौन...? ज़ाहिर है वही जिम्मेदार माना जाएगा जिसने दवाइयां दीं...जिसने जानबूझकर उन्हें कई दिनों तक अपने यहां सिर्फ हैवी बिल बनाने के लालच में एडमिट रखा और बिगड़ती तबियत को 'अंडरकंट्रोल' बताता रहा।
ज़रा बताइये कि मरीजों की जान से खेलने वाले झोलाछाप डॉक्टर्स को जब हम गलत ठहराते हैं तो ये स्पेशलिस्ट क्या कहे जाने चाहिए। बेशर्मी की हद देखिए कि डॉक्टर्स की संस्था ''इंडियन मेडीकल एसोसिएशन'' यानि आईएमए इस जानलेवा अपराध को चुप्पी साधे देखती रहती है। डॉक्टर्स की लापरवाही के ऐसे किसी भी मामले पर आईएमए का बोलना तो दूर, बल्कि उन्हें इस लूट-खसोट की मौन स्वीकृति देती है।
कौन नहीं जानता कि हर नर्सिंग होम के भीतर मेडीकल स्टोर रखना नाजायज है, फिर भी रखा जाता है, या ये कौन नहीं जानता कि पैथोलॉजीकल लैब बाकायदा कमीशन-सेंटर के तौर पर डॉक्टर्स की ''साइड-इनकम'' का ज़रिया होती हैं, कैसे एक ही टेस्ट के लिए हर पैथलैब का रिजल्ट अलग अलग होता है।
आईएमए के साथ साथ मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) भी इस बावत आंखें फेरे रहती है कि जिन मेडीकल प्रैक्टिशनर्स को उसने प्रैक्टिस के लिए मान्यता दी है, वे उसका पालन कर भी रहे हैं या नहीं। यूं तो स्वास्थ्य मंत्रालय भी आंखें मूंदे था, यदि गत दिनों प्रसिद्ध हॉस्पीटल फोर्टिस में डेंगू से बच्ची के मर जाने तथा उसके पिता को 18 लाख रुपए का बिल थमा देने जैसा गंभीर मामला सामने न आता। अस्पताल की असंवेदनशीलता तथा लूट को सभी ने सुना होगा कि कैसे अस्पताल के संचालकों द्वारा कई दिन पहले मर चुकी बच्ची का शव सिर्फ मोटा बिल बनाने के लिए उपयोग किया जाता रहा और अंतत: बच्ची का निर्जीव शरीर उन्हें थमा दिया गया।
ये कोई किस्सा नहीं बल्कि ऐसी हकीकत है जिसे हर वो परिवार भोगता है जिसका कोई अपना धरती पर भगवान कहलाने वाले चिकित्सकों की शरण में पहुंचने को मजबूर होता है।
फोर्टिस अस्पताल की ब्लैकमेलिंग के मामले ने वो सारे ज़ख्म ताज़ा कर दिए जो हमने हारून भाई की मौत के बाद जाने थे।
संभवत: इसीलिए आमजन की तो अब यह धारणा हो गई है कि मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पीटल, हैल्थ पैकेजेज, भारी-भरकम डिग्रियों से सुसज्जित डॉक्टर्स के ये सिर्फ आधुनिक कसाईखाने हैं। हालांकि अपवाद अभी भी शेष हैं, मगर कितने।
अब तो बस ये देखना है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जो राज्यों को ''क्लीनकल स्टैब्लिशमेंट एक्ट'' लागू करने को कहा गया है, उसे कितने समय और कितने राज्यों द्वारा लागू किया जाता है क्योंकि इस ''क्लीनकल स्टैब्लिशमेंट एक्ट'' के तहत अस्पतालों को विभिन्न सेवाओं व चिकित्सकीय प्रक्रियाओं के लिए तय फीस का ब्यौरा देना होगा। यदि ऐसा होता है तो अब भी समय है कि मेडीकल जगत जनता का भरोसा कायम रख सकता है। हकीकतन तो आज कोई डॉक्टर ऐसा नज़र नहीं आ रहा जो उस शपथ की सार्थकता सिद्ध कर पाने के लायक भी हो जिसमें पूरी मानवता की सेवा को सर्वोपरि मानने की बात कही गई थी।
बहरहाल, अफसोस तो इस बात का है कि व्यावसायिकता की अंधी दौड़ में पता नहीं कब धरती के भगवानों ने शैतान का रूप धारण कर लिया और कैसे उनकी पैसे को लेकर हवस इस कदर बढ़ गई कि उनके लिए इंसानी जान की कोई कीमत ही नहीं रही। अगर कुछ रहा तो केवल इतना कि किस तरह मरीज के परिजनों की भावनाओं का खून की अंतिम बूंद तक दोहन किया जा सके।
-अलकनंदा सिंह