गुरुवार, 28 सितंबर 2017

संस्‍कारों की खोज CCTV से

आज नवरात्रि की अष्‍टमी तिथि है, शक्‍ति के आगमन का ये त्‍यौहार कुछ घंटों में समापन  की ओर बढ़ चलेगा परंतु इन नवदुर्गाओं में बहुत कुछ ऐसा घट चुका है जो हमें अपने  छीजते मूल्‍यों की ओर मुड़कर देखने को विवश करता है कि आखिर चूक कहां हुई है। साथ  ही यह भी कि जहां चूक हुई वहां से अब आगे क्‍या-क्‍या और कैसे-कैसे सुधारा जा सकता  है।

शक्‍ति के आठ रूपों को मूर्तिरूप में पूजकर, नारियल और चुनरी ओढ़ाने के बाद भी यदि  अपने भीतर बैठे कलुष को हम तिरोहित नहीं कर पाते, तो शक्‍ति की आराधना एक रस्‍म  से ज्‍यादा और कुछ नहीं। और ये रस्‍म ही है जो तब भी निबाही गई थी जब निर्भया कांड  हुआ और ये रस्‍म पिछले हफ्ते भी निबाही गई जब बीएचयू की छात्राओं ने बाकायदा  अश्‍लील हरकतों की शिकायत यूनीवर्सिटी के वीसी से की।

मैं यहां वो शिकायती-पत्र दिखा रही हूं जो छात्राओं ने दिया।
शिकायती-पत्र जो छात्राओं ने दिया

हालांकि प्रदेश सरकार और  वीसी को इसमें भी राजनीति दिख रही थी। फिलहाल घटनाक्रम बता रहे हैं कि मुख्‍यमंत्री  योगी ने आश्‍वासन दिया है कि छात्रों पर लगे केस वापस लिए जाऐंगे, यूनीवर्सिटी में  प्रशासनिक उठापटक जारी है, वीसी हटा दिए गए हैं, चीफ प्रॉक्‍टर बदल दिए गए, कल से  सीआरपीएफ भी हटा ली गई, एबीवीपी का धरना खत्‍म हो गया, छात्र-छात्राओं का  आवागमन शुरू हो गया।

सब कुछ ढर्रे पर वापस मगर इतना सब होने के बाद हमें भी सोचना होगा कि आखिर  सरेआम छेड़खानी की ये घटनाऐं जो एक पूरे के पूरे विश्‍वविद्यालय की आन बान शान के  लिए खतरा बन गईं, यकायक तो नहीं उपजी होंगी ना। बात वहीं फिर हमारी उस चूक पर  ही आ जाती है, जो संस्‍कारों से जुड़ी है।
 
महिलाओं के खिलाफ छेड़खानी पहले भी होती थी मगर पिछले दो-ढाई दशकों में इसने  महामारी का रूप ले लिया है और अब तो इस महामारी ने वीभत्‍स रुख अख्‍तियार कर  लिया है। इतना वीभत्‍स कि ये बच्‍चियों के साथ साथ बच्‍चों और किशोरों को भी अपनी  गिरफ्त में ले रही है। धर्मविशेष- जाति विशेष- वर्गविशेष- लिंगविशेष के खांचे में भले ही  हम इसे बांट दें मगर ये है खालिस संस्‍कार का संकट ही। और ये संकट समाज में  संक्रामक हो चुका है, अब लड़का भी अगर लड़के से हंसकर बात करता है तो शक होने लगता है। अविश्‍वास का ये माहौल कभी कभी बेहद असहनीय और टूटन भरा होता है।

निश्‍चित ही आज भी हम ये निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि बुरी तरह छीजते अपने मूल्‍यों  को संभालें या आधुनिकता के तमगे को। इसी आधुनिकता के नाम पर अगर  ''संस्‍कारविहीन'' होना एक फैशन की तरह न बनाया गया होता, आज हमें अपने संस्‍कारों  की खोज सीसीटीवी के बहाने न करनी पड़ती।

यक्षप्रश्‍न अब भी वहीं मौजूद है कि सीसीटीवी आखिर कहां कहां लगाई जाए और इसके  होने का भय कितनी रक्षा कर पाएगा। स्‍कूल, कॉलेज, सार्वजनिक स्‍थानों के साथ साथ क्‍या  ये घरों में भी शोषण को रोक पाएगा। वह भी तब जबकि हमारे धर्माचार्य भी इसमें लिप्‍त  हों, घर के बड़े लिप्‍त हों।

आज रेयान इंटरनेशनल हो या बीएचयू की छेड़खानी का मामला, चंद रोज पहले गैंगरेप की  पीड़िता द्वारा यू-टर्न लेकर पुलिस में दर्ज रिपोर्ट को ''गुस्‍से में किया जाना'' बताना हो या  बाबाओं (साधु-संत नहीं) के एक वर्ग का बलात्‍कारी साबित होते जाना हो, ये सब उदाहरण  हमारे अधकचरे ज्ञान, अधकचरी सभ्‍यता, अधकचरी आधुनिकता के फलितार्थ ही तो हैं।

उदाहरण तो बहुत हैं इन मूल्‍यों और संस्‍कारों की धज्‍जियां उड़ाए जाने के मगर सभी को  एक कॉलम में लिखना संभव भी कहां, परंतु इतना अवश्‍य है कि इस माहौल को लेकर जो  घबराहट मैं महसूस कर रही हूं, निश्‍चित ही आप भी करते होंगे।

उक्‍त घटनाओं के बाद सीसीटीवी को बतौर सुबूत पेश किया जा रहा है मगर यह सीसीटीवी  वाला सुबूत संस्‍कारों के छीजन के पीछे की मानसिकता , अपराध करने वाले की  पारिवारिक पृष्‍ठभूमि और ''अपराध का आदतन'' होने की वजह नहीं बता सकता। सीसीटीवी  सुबूत हो सकते हैं मगर इनमें वो ताकत नहीं जो मां-बहन की गालियों से शुरू हुआ  संस्‍कारों के मौजूदा क्षरण को रोक सकें, ये भावनायें नहीं बता सकते, विनम्रता और दूसरों  की इज्‍जत करना नहीं सिखा सकते, वह तो ''घर'' ही सिखा सकता है।

छेड़खानी की हर घटना पर राजनीति के बुलबुले हमारी नजरों से समस्‍या को ओझल करने  का प्रयत्‍न करते हैं तभी तो बीएचयू का सिंहद्वार हो या जेएनयू का हॉस्‍टल, रेयॉन  इंटरनेशनल हो या गाजियाबाद की नन्‍हीं बच्‍ची का मामला सभी में नेतागिरी हुई, सरकारों  के विरोध में बवाल हुआ मगर इन राजनैतिक बुलबुलों में भी घरों से जो संस्‍कार ओझल  हुए हैं,उस ओर कोई बात नहीं कर रहा। ज़ाहिर है कि नौदेवी अब भी हमारी उस अंतरात्‍मा  को नहीं जगा पाई है जो शक्‍तिपूजा के नाम पर घंट-घड़ियाल लेकर हर घर पर दस्‍तक  देती है कि जागो अब भी वक्‍त है...बहुत कुछ सुधारा जा सकता है।
 
-अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

हे देवि! अब मृजया रक्ष्यते को लेकर हमारी शर्मिंदगी भी स्‍वीकार करें

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अतिवाद कोई भी हो, वह सदैव संबंधित विषय की उत्‍सुकता को नष्‍ट कर देता है। अति  की घृणा, प्रमाद, सुंदरता, वैमनस्‍य, भोजन, भूख, जिस तरह जीवन को प्रभावित करती  हैं और स्‍वाभाविक प्रेम, त्‍याग, कर्तव्‍य को खा जाती हैं उसी प्रकार आजकल ''अति  धार्मिकता'' अपने कुछ ऐसे ही दुष्‍प्रभावों को हमारे सामने ला रही है। जो धर्म से जुड़ी  उत्‍सवधर्मिता कभी हमारी खासियत हुआ करती थी और अपने ही रंग में देश के हर  वर्ग को तथा हर क्षेत्र को रंगकर उत्‍साह भरती थी, आज वही अतिवाद की शिकार हो  गई है।

इसी ''अति धार्मिकता'' ने जहां धर्म को तमाम फर्जी बाबाओं के हवाले किया,  वहीं सोशल मीडिया और बाजारों में लाकर 'धर्म के उपभोक्‍तावाद' का प्रचार किया।

इस सारी जद्दोजहद के बीच इन उत्‍सवों को मनाने का जो मुख्‍य मकसद था, वह  तिरोहित हो गया। कभी जीवन पद्धति में तन-मन की स्‍वच्‍छता को निर्धारित करने  वाला हमारा धर्म ही बाजार और फाइवस्‍टार सुविधाओं वाले आश्रमों के जरिए समाज की  कमजोरी बन गया।

जिन धार्मिक उत्‍सवों को मनाने का सर्वोपरि उद्देश्‍य स्‍वच्‍छता हुआ करता था, उसके  लिए आज देशभर में प्रधानमंत्री को चीख-चीखकर कहना पड़ रहा है कि स्‍वच्‍छता को  संकल्‍प बनाएं। ये हमारे लिए बेहद शर्म की बात है कि आज स्‍वच्‍छता सिखानी पड़ रही  है, कचरे के ढेरों पर बैठकर हम देवी-देवताओं की (बाजार के अनुसार) आराधना तो कर  रहे हैं परंतु स्‍वच्‍छता का संकल्‍प नहीं लेते।

इस ओढ़ी हुई ''अति धार्मिकता'' के कारण ही हर त्‍यौहार को मनाने की बाध्‍यता ने तन  और मन दोनों की स्‍वच्‍छता पीछे डाल दी तथा धार्मिक उपदेशों-प्रवचनों-परंपराओं-रूढ़ियों  के मुलम्‍मे आज के इन धार्मिक आयोजनों की हकीकत बन गए।
 
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी कल से एक बार फिर शारदीय नवरात्र की स्थापना हो  चुकी है। बाजारवाद के कारण ही सभी को धन, धान्य, सुख, समृद्धि और संतुष्टि से  परिपूर्ण जीवन की कामनाओं वाले स्‍लोगन से सजे संदेश इनबॉक्‍स को भरने लगे हैं।  कब श्रावण माह की गहमागहमी के बाद श्रीकृण जन्‍माष्‍टमी के बाद गणपति की  स्‍थापना-विसर्जन, श्राद्ध पक्ष और अब नवरात्रि का विजयदशमी तक चलने वाला दस  दिवसीय उत्‍सव आ गया, पता ही नहीं चला। मगर इस बीच जो सबसे ज्‍यादा प्रभावित  रही, वह है स्‍वच्‍छता जबकि उपर्युक्‍त सभी उत्‍सवों में स्‍वच्‍छता प्रधान है।

कोई भी पूजा मन, वचन और कर्म की शुद्धि व स्‍वच्‍छता के बिना पूरी नहीं होती,  शारदीय नवरात्र देवी के आगमन का पर्व है। देवी उसी घर में वास करती है, जहां  आंतरिक और बाह्य शुद्धि हो। वह कहती भी है कि मृजया रक्ष्यते (स्‍वच्‍छता से रूप की  रक्षा होती है), स्‍वच्‍छता धर्म है इसीलिए यही पूजा में सर्वोपरि भी है। शरीर, वस्त्र,  पूजास्‍थल, आसन, वातावरण शुद्ध हो, कहीं गंदगी ना हो। यहां तक कि पूजा का प्रारंभ  ही इस मंत्र से होता है -''ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्‍थां गतोsपिवा।

इसके अलावा  देवीशास्‍त्र में 8 प्रकार की शुद्धियां बताई गई हैं- द्रव्‍य (धनादि की स्‍वच्‍छता अर्थात्  भ्रष्‍टाचार मुक्‍त हो), काया (शरीरिक स्‍वच्‍छता), क्षेत्र (निवास या कार्यक्षेत्र के आसपास  स्‍वच्‍छता), समय (बुरे विचार का त्‍याग अर्थात् वैचारिक स्‍वच्‍छता), आसन (जहां बैठें  उस स्‍थान की स्‍वच्‍छता), विनय (वाणी में कठोरता ना हो), मन (बुद्धि की स्‍वच्‍छता)  और वचन (अपशब्‍दों का इस्‍तेमाल ना करें)। इन सभी स्‍वच्‍छताओं के लिए अलग  अलग मंत्र भी हैं इसलिए आपने देखा होगा कि पूजा से पहले तीन बार आचमन, न्‍यास,  आसन, पृथ्‍वी, दीप, दिशाओं आदि को स्‍वच्‍छ कर देवी का आह्वान किया जाता है।

विडंबना देखिए कि देवी का इतने जोर शोर से आह्वान, बाजारों में चुनरी-नारियल के  ढेर, मंदिरों में लगी लंबी-लंबी लाइनें ''देवी आराधना'' के उस मूलतत्‍व को ही भुला चुकी  हैं जो देवी (स्‍वच्‍छता की ओर) के हर मंत्र में निहित किया गया है। बाजार आधारित इस समय में पूरे नौ दिनों के इस उत्‍सव को लेकर जिस उत्‍साह के दिखावे की हमसे अपेक्षा की जाती है, उसे हम बखूबी पूरा कर रहे हैं। हमारे स्‍मार्टफोन इसके गवाह हैं मगर देवी आराधना की पहली शर्त को हम मानने से इंकार करते हैं, जिसका उदाहरण हैं हमारे आसपास आज भी लगे गंदगी के ढेर।

यह ''अति धार्मिकता'' का प्रकोप ही है कि देवी की मृजया रक्ष्यते की सीख को ध्‍वस्‍त करते हुए बिना कोई शर्मिंदगी दिखाए हम जोर जोर से लाउडस्‍पीकरों व घंटे-घड़ियालों के साथ उच्‍चारित करते जा रहे हैं- या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्‍मीरूपेण संस्‍थिता...नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमस्‍तस्‍यै नमो नम: .... साथ ही शुभकामनाओं के साथ इस मंत्र का मैसेज फॉरवर्ड भी करते जा रहे हैं... कुछ सेल्‍फियों के साथ और इस अति ने कुछ इसी तरह स्‍वच्‍छता को तिरोहित कर दिया है सो हे देवि अब हमारी शर्मिंदगी भी स्‍वीकार करें।

-अलकनंदा सिंह


सोमवार, 18 सितंबर 2017

एक ट्वीट ने मृणाल पांडे की कलई खोल दी

जब बड़े ओहदे पर रह चुकी नामचीन हस्‍ती मात्र अपनी खुन्‍नस निकालने को मर्यादा के सबसे निचले स्‍तर पर उतर आए और गली कूचों में इस्‍तेमाल की जाने वाली गरियाऊ भाषा को अपना हथियार बना ले तो क्‍या कहा जाए ऐसे व्‍यक्‍ति को।
दैनिक हिन्‍दुस्‍तान की प्रधान संपादक रह चुकीं मृणाल पांडे ने अपनी नकारात्‍मकता को अब चरम पर ले जाते हुए प्रधानमंत्री को उनके जन्‍मदिन पर ही कटु ट्वीट करके यह बता दिया है कि कभी किसी संस्‍थान के उच्‍च पद पर बैठ जाने से जरूरी नहीं कि वह व्‍यक्‍ति बुद्धिमान भी हो जाए।
मैंने पहले भी मृणाल पांडे की नकारात्‍मकता पर लिखा है और आज फिर उन्‍होंने मुझे ही नहीं, पूरे पत्रकार जगत को मौका दे दिया कि अब इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए कि ”किसी संवैधानिक पद पर बैठे व्‍यक्‍ति को किस हद तक गरियाया जा सकता है”।


दरअसल, कल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन 17 सिंतबर पर वरिष्ठ पत्रकार, प्रसार भारती की पूर्व चेयरपर्सन और साहित्यकार मृणाल पांडे ने भी एक ट्वीट किया जिसमें मृणाल पांडे ने लिखा- #JumlaJayanti पर आनंदित, पुलकित, रोमांचित वैशाखनंदन.’ साथ में ये चित्र भी पोस्‍ट किया।
पीएम मोदी पर मृणाल पांडे का ये ट्वीट तब आया है, जब नरेन्द्र मोदी अपना 67वां जन्मदिन मना रहे हैं। मृणाल पांडे के ट्वीट पर लोगों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और उनके इस ट्वीट को प्रधानमंत्री और स्‍वयं मृणाल पांडे की अपनी गरिमा के खिलाफ बताया। हद तो तब हो गई कि मृणाल पांडे ने कई लोगों जवाब देते हुए कहा कि वो अपने विचार पर कायम हैं।
इस ट्वीट ने पत्रकार जगत को भी भौचक्के में डाल दिया। तमाम पत्रकारों को समझ नहीं आ रहा कि इस पर रिएक्‍ट कैसे करें।
उनके इस ट्वीट की रवीश कुमार, अजीत अंजुम सहित तमाम पत्रकारों ने भी निंदा की और कहा है कि वो इतनी बड़ी हस्ती हैं तो उन्हें सोशल मीडिया पर मर्यादित भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए। किसी के भी जन्मदिन के मौके पर पहले बधाई देने की उदारता होनी चाहिए, फिर किसी और मौक़े पर मज़ाक का अधिकार तो है ही। मृणाल रुक सकती थीं। कहीं तो मानदंड बचा रहना चाहिए. थोड़ा रुक जाने में कोई बुराई नहीं है. एक दिन नहीं बोलेंगे, उसी वक्त नहीं टोकेंगे तो नुक़सान नहीं हो जाएगा.”
पत्रकार अजीत अंजुम ने सोशल मीडिया पर लिखा, “मृणाल जी, आपने ये क्या कर दिया ? पीएम मोदी का जन्मदिन था. देश -दुनिया में उनके समर्थक/चाहने वाले/नेता/कार्यकर्ता/जनता/मंत्री/सासंद/विधायक जश्न मना रहे थे. उन्हें अपने-अपने ढंग से शुभकामनाएँ दे रहे थे. ये उन सबका हक़ है जो पीएम मोदी को मानते-चाहते हैं. ट्विटर पर जन्मदिन की बधाई मैंने भी दी. ममता बनर्जी और राहुल गांधी से लेकर तमाम विरोधी नेताओं ने भी दी. आप न देना चाहतीं तो न देतीं, ये आपका हक़ है. भारत का संविधान आपको पीएम का जन्मदिन मनाने या शुभकामनाएँ देने के लिए बाध्य नहीं करता. आप जश्न के ऐसे माहौल से नाख़ुश हों, ये भी आपका हक़ है लेकिन पीएम या उनके जन्मदिन पर जश्न मनाने वाले उनके समर्थकों के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल करें, ये क़तई ठीक नहीं.”
आश्‍चर्य होता है कि अपनी उम्र के उत्‍तरार्द्ध में आकर ”भाषा के बूते” ही साहित्‍य में अमिट छाप छोड़ने वाली कथाकार शिवानी की पुत्री मृणाल ही उस ”भाषा की मर्यादा” को तार-तार कर रही हैं। मृणाल पांडे उनकी जैविक पुत्री अवश्‍य हैं परंतु बौद्धिक पुत्री नहीं हो सकतीं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हमारी भाषा शैली और व्यवहार से हमारे चरित्र का बोध होता है इसलिए दैनिक जीवन में अपनी भाषा के उपयोग को लेकर हमें सजग रहना चाहिए, फिर सोशल मीडिया के किसी प्‍लेटफॉर्म पर तो और भी सतर्कता बरतनी चाहिए, परंतु मृणाल ऐसा न कर सकीं। इसे यथार्थवाद या मज़ाक भी तो नहीं कहा जा सकता।
प्रधानमंत्री के पद पर बैठे एक व्यक्ति के लिए खुद को हिन्दुस्तान की प्रथम महिला संपादक होने का तमगा देने वाली महोदया की ऐसी भाषा और अभिव्यक्ति पर सिर्फ अफ़सोस के और कुछ नहीं किया जा सकता। परंतु वरिष्‍ठ पत्रकारों द्वारा इसको ”अनुचित” कहना, अच्‍छा लगा वरना इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया (चूंकि प्रिंट मीडिया की प्रतिक्रिया त्‍वरित नहीं होती ) अपनी बिरादरी के माननीयों के शब्‍दों को दाएं-बाएं करने में माहिर है। जहां तक मुझे लग रहा है कि गौरीलंकेश की हत्‍या के बाद ये सुखद परिवर्तन आया है। अब ये परिवर्तन स्‍थायी है या नहीं, कहा नहीं जा सकता।
आमतौर पर कहा जाता है कि अब कोई 60 की उम्र होने पर ही नहीं सठियाता, वह अपनी सोच से सठियाता है। जिन्‍होंने मृणाल पांडे के साथ काम किया है, वे अच्‍छी तरह जानते हैं कि भारी भरकम शब्‍दों को उन्‍होंने किस तरह ढोया है, अब वो थक चुकी हैं और थकान में नकारात्‍मकता आ ही जाती है, ट्विटर पर ये अपनी मानसिक थकान उतार रही हैं। इस एक ट्वीट ने मृणाल पांडे को कहां से कहां पहुंचा दिया, सारी कलई उतर गई है उनकी।
मृणाल पांडे की सोच पर इब्न-ए-इंशा का ये शेर बिल्‍कुल मुफीद बैठता है-
”शायर भी जो मीठी बानी बोल के मन को हरते हैं
बंजारे…जो ऊँचे दामों जी के सौदे करते हैं।”
-अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

ऐसा कहां होता है भाई...कि मारौ घोंटूं फूटी आंख ?

ब्रज में ये कहावत बहुत प्रचलित है-  ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'', यानि कुछ किया और कुछ और ही हो गया, यूं इसके शब्‍द विन्‍यास से आप लोग समझ पा रहे होंगे कि जब घुटने में मारने से आंख कैसे फूट गई, तो आप सही सोच रहे हैं और यही तो मैं भी कहना चाह रही हूं कि घुटने में मारने से आंख नहीं फूटा करती। और जब ऐसा किया जा रहा हो तो निश्‍चित जानिए कि समस्‍या को छुपाया जा रहा है और इसके हल करने में बेइमानी की जा रही है क्‍योंकि सही इलाज के लिए जब तक समस्‍या की जड़ तक न पहुंचा जाए तब तक उसका हल हो पाना असंभव होता है।

मेरे सामने इसी कहावत से जुड़ा एक वाकया कल तब सामने आया जब मुझे एक डॉक्‍टर मित्र (चूंकि अब फैमिली डॉक्‍टर नहीं होते) के केबिन में जाने का ''सुअवसर'' प्राप्‍त हुआ। इसे सुअवसर इस लिए कह रही हूं कि धरती पर मौजूद इन कथित भगवानों ने ही उक्‍त कहावत का सर्वाधिक उपयोग (अब ये आप पर निर्भर है कि इसे सदुपयोग कहें या दुरुपयोग) किया है।

फिलहाल का वाकया कुछ यूं है कि डॉक्‍टर साहब के सामने ग्रामीण तथा गरीब नजर आ रहे एक 80-90 वर्षीय वृद्ध हांफते हुए आए और बोले कि मेरी पीठ में नीचे की तरफ बहुत दर्द है, 5 दिन से शौच नहीं गया, आज गया तो शौच के वक्‍त 2-4 गांठें निकलीं, सांस फूल रही है और भूख नहीं लग रही...जबकि इन पांच दिनों से पहले मैं अच्‍छा था, डॉक्‍टर साहब ने वृद्ध की पीठ चेक की, पूछा-कहीं चोट-वोट तो नहीं लगी या गिर-विर तो नहीं पड़े, वृद्ध के मना करने पर डॉक्‍टर साहब ने पास ही खड़े उसके बेटे को 'पर्चा' (खर्रा भी कह सकते हैं) थमाया, बोले- फलां-फलां रूम नं. में जाओ और इनका ईसीजी करा लाओ।

अरे भाई, जब ''5 दिन'' से पेट खराब है, शौच की तकलीफ है, तो जाहिर है कि वृद्ध के पेट में गैस बन रही है जो ज्‍यादा बनने पर धमनियों तक प्रेशर डालती है और फिर इससे सांस फूलती है। यह सीधी-सीधी पेट की समस्‍या थी, इसमें ईसीजी की क्‍या आवश्‍यकता है भला। 200 फीस के और 500 ईसीजी के, सो डॉक्‍टर साहब ने 700 सीधे किए। दवाइयां पेट साफ की ही दीं गईं मगर ''चूना'' लगा दिया ईसीजी का। रोग कोई लेकिन टेस्‍ट किसी और का फिर चाहे वृद्ध इस टेस्‍ट के बाद हमेशा ''दिल का रोगी'' होने के भय में जिया करे। यूं तो इसके चिकित्‍सकीय निहितार्थ अनेक हैं, उन पर फिर कभी चर्चा होगी, मगर सच में चोट घुटने में थी यानि पेट खराब था और डॉक्‍टर ने आंख फोड़ दी यानि ईसीजी करवा दिया । पेट के रोग का कष्‍ट इतना नहीं था जितना कि दिल के रोग का भय तारी हो गया वृद्ध के ज़हन पर।

इसी कहावत ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' का दूसरा उदाहरण आज का हिंदी दिवस है।
सोशल मीडिया से लेकर चर्चाओं-गोष्‍ठियों में आज पूरा देश हिंदीमय दिखाई देगा मगर  इधर दिवस समाप्‍त, उधर हिन्‍दीप्रेम गायब। कॉन्‍वेंट स्‍कूलों में अपने बच्‍चों को पढ़ाकर  इतराने वाली 'मॉम्‍स', हिन्‍दी पर ''डिबेट'' के लिए इंटरनेट की ''हेल्‍प'' से बच्‍चों को  ''डिक्‍टेट'' कर रही हैं और सिखाते हुए पूछ भी रही हैं कि ''टेल मी बेटा, हू इज  मैथिलीशरण गुप्‍त, यू मस्‍ट लर्न योर पॉइम व्‍हिच आई हैव गिव इट टू यू, गिव योर  बेस्‍ट इन क्‍लास'' ।

राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी की इस दशा (आशावादी होने के कारण मैं इसे अभी दुर्दशा नहीं कहूंगी)  पर उक्‍त कहावत ''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' एकदम खरी उतरती है। बच्‍चे में प्रथम  संस्‍कार देने वाला घर और मां ही जब बच्‍चे को अपनी रोमन लिपि में हिन्‍दी पर 'डिबेट'  के लिए 'लेसन' देगी, तो कोई भी सरकार या कोई भी भाषाविज्ञानी एड़ीचोटी का जोर  लगा ले, वह बच्‍चे को हिन्‍दी नहीं सिखा सकता। और यदि सिखा भी दी, तो अपनी  राष्‍ट्रभाषा के लिए सम्‍मान नहीं पैदा कर सकता, राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम आदर राष्ट्र की एकता और अखंडता का जनक है। बात यहां भी वही है कि रोग हमारे  घर में है और इसका इलाज हम गोष्‍ठियों-परिचर्चाओं में ढूढ़ रहे हैं।

''मारौ घोंटूं फूटी आंख'' कहावत का लब्‍बोलुआब ये है कि घुटने में मारने से आंख नहीं  फूटा करती, जिस तरह पेट का रोग ईसीजी टेस्‍ट से ठीक नहीं हो सकता, ठीक उसी  तरह हिन्‍दी को भी रोमन ट्रांसलेशन के ज़रिये ''अपनी राष्‍ट्रभाषा'' नहीं बनाया जा  सकता। हमारी नज़र में ये कहावतें भले ही हमसे कम शिक्षितों ने बनाई हों मगर ये  रोजमर्रा की ज़िंदगी में जितना कुछ सिखा जाती हैं, उतना तो आज हम तमाम डिग्री  लेकर भी नहीं सिखा सकते।
ये भारतवर्ष अपनी जिजीविषाओं के लिए जाना जाता है  और पेशे से गद्दारी हो या भाषा से धोखा, दोनों ही अपने अपने अस्‍तित्‍व के लिए  खतरनाक हैं। हम मुलम्‍मों के सहारे कब तक अपना और अपनी भाषाओं का विकास  कर पाऐंगे।

बेहतर तो यही होगा कि हम घुटने पर मार के कारण आंख के फूट जाने का इल्‍ज़ाम ना लगाएं  वरना समस्‍या जस की तस बनी रहेगी और यह स्‍थिति इलाज न करके इल्‍ज़ाम तक  ही सीमित रह जाएगी क्‍योंकि यह तरीका समस्‍या  से मुंह फेर लेने के अलावा कुछ है ही नहीं। सो मारौ घौंटू ना ही फूटै आंख...हैप्‍पी हिन्‍दी डे...☺☺☺☺    

-अलकनंदा सिंह

बुधवार, 6 सितंबर 2017

कोई पूछे तो सही, अशोक अब तक वाजपेयी क्‍यों हैं

रामकुमार वर्मा ने अपने महाकाव्‍य ''एकलव्‍य'' में लिखा है, ''तुम नहीं वत्‍स, यह समय  ही शूद्र है''। हमेशा से ही ''शूद्र'' शब्‍द को दलितों का प्रतीक माना जाता रहा जबकि ''शूद्र''  कोई जाति नहीं एक उपमा है जो निम्‍नतर होते विचारों, मूल्‍यों, भावनाओं, विवेक और  संकल्‍पों को हमारे सामने ठीक उसी तरह लाती है जिस तरह आजकल कुछ खबरें ला  रही हैं। यह खबरें जनसामान्‍य की सोच पर अपने विकृत रूप में छा जाने को बेताब हैं।  हद तो ये है कि इन शूद्र खबरों का स्‍त्रोत धन-बुद्धि से संपन्‍न वह लोग हैं जो कुछ करने  में नहीं, सिर्फ बोलने में विश्‍वास रखते हैं। उन्‍हें अपनी सोच के विपरीत ''किया जाने  वाला'' हर काम खुद पर कुठाराघात सा लगता है और वे तिलमिला उठते हैं।

यही इस ''शूद्र समय'' का उदाहरण है कि धन-बुद्धि से संपन्‍न ऐसे लोगों को- गरीबी के  कारण बच्‍चों समेत आत्‍महत्‍या करती मां दिखाई देती है, आत्‍महत्‍या करते किसान दिखते  हैं, चीन से विवाद दिखाई पड़ता है, रोहिंग्‍या मुसलमान दिखाई देते हैं, गिरती हुई जीडीपी  और अर्थव्‍यवस्‍था दिखती है, गोरखपुर में मरते बच्‍चे भी दिखते हैं, एंटीरोमिओ स्‍क्‍वायड  दिखता है, कश्‍मीर में मानवाधिकारों का कथित हनन तो इन्‍हें सोते जागते दिखाई देता  है...सब-कुछ दिखता है, मगर मोटे लेंस और काली पड़ चुकी भद्दी कमानी वाले चश्‍मे से  कुछ भी वो दिखाई नहीं देता जो आशा उत्‍पन्‍न करता हो। जिससे महसूस हो रहा हो कि  किसी भी स्‍तर पर ऐसे तत्‍वों की सोच कुछ अच्‍छा भी देख लेती है।  AC दफ्तरों के  भीतर पड़ी चिक से झांकते हुए...ये स्‍वयंभू बुद्धिजीवी चुनचुन कर उन खबरों की कटिंग  इकठ्ठी करते हैं जो इनकी ''शूद्र'' सोच को खाद पानी दे सके। ये अखबारी खबरों से आगे  वहां कभी नहीं देखते जहां उनकी सोच का दायरा खत्‍म होता हो।

यह समय ही शूद्र है, तभी तो जो बुद्धि के बूते खाते-कमाते हैं, वे बुद्धिजीवी अब अपने  असहिष्‍णुता के नारे के लिए अलग चाशनी ढूढ़ रहे हैं।
इसी प्रयास में अवार्ड वापसी के नायक अशोक वाजपेयी ''सत्‍याग्रह'' ब्‍लॉग में लिखते हैं-  ''इस समय असहमति को दबाने, उसे हाशिए पर धकेलने या दंडित करने का जो  अघोषित व व्‍यापक अभियान चल रहा है, उसमें राजनीति, धर्म, राज्‍य, मीडिया और  विशेषत: सवर्ण जातियां शामिल हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि इन महाशय ने  आजतक अपने नाम के साथ ''वाजपेयी'' क्‍यों जोड़ा हुआ है। क्‍या इन्‍हें किसी ने बताया  नहीं कि नाम के साथ चिपकी हुई उनकी यह जाति न केवल उनके बल्‍कि उनके मां-बाप  के भी किसी सुनियोजित षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है।
किसी ने शायद कभी पूछा भी नहीं कि दलितों के खिलाफ हमेशा से क्रूर रहे सवर्णों की  संतान अशोक ''वाजपेयी'' नामक शख्‍स को अपने सवर्ण होने पर शर्म महसूस होती है  या नहीं।
जबकि उनके द्वारा इतने मंचों से झूठ फैलाया और बोला जा रहा है कि लोग उसे ही  सच मानने लगे हैं।''

निश्‍चित ही वाजपेयी जी ने अपनी बुद्धि के हिसाब से जो लिखा, वह बताता है कि वे  अपने ही कौशल ही नहीं ''अस्‍तित्व'' को लेकर भी कितने भ्रमित हैं।
खैर...ऐसा ही होता है जब 'ज़मीन पर' आपको अपने आप से करने के लिए कुछ ना  मिले और सरकारी पैसे से बहुत कुछ मिल रहा हो। वो सबकुछ जिसकी कल्‍पना तक  कोई आम आदमी नहीं कर सकता। ज़ाहिर है कि घर बैठे-बैठे हराम की कमाई से किया  जाने वाला निठल्‍ला चिंतन नकारात्‍मकता को पनपने के लिए अच्‍छा स्‍पेस दे देता है।


वाजपेयी जी हताश होकर जिनकी ओर इशारा कर रहे हैं उन्‍होंने अगर असहमति को  दबाया होता तो लंदन के मौरिस स्कूल ऑफ हेयर ड्रेसिंग और लंदन स्कूल ऑफ फैशन  से आर्ट एंड साइंस ऑफ हेयर स्टाइलिंग एंड ग्रूमिंग में डिप्लोमा प्राप्‍त करने के बाद  देशभर में अपने सलून की 200 शाखाएं चला रहे जावेद हबीब अपने सलून में हिन्‍दू देवी  देवताओं को मैनीक्‍योर-पैडीक्‍योर, हेयर कटिंग कराते एवं लिपस्‍टिक लगाते दिखाने का  दुस्‍साहस नहीं करते।

हालांकि प्रिंट मीडिया में दिए गए इस विज्ञापन के माइक्रोब्‍लॉगिंग साइट ''ट्विटर'' पर  पोस्‍ट होते ही यूजर्स ने #boycottJavedHabib हैशटैग चलाकर अपनी प्रतिक्रिया दी और  कहा कि फेमस हेयर ड्रेसर जावेद हबीब! इससे क्या होगा, हम तो अब तभी मानेंगे जब  प्रोफेट को बाल कटवाते हुए दिखाओ। हिंदू धर्म का मजाक बना कर रक्खा है। कोई  अश्लील पेंटिग बनाता है कोई कुछ, कोई उन्‍हें जूतों में तो कोई शैम्‍पेन पर बैठा देता है।  कुछ ट्वीट्स देखिए-
Hey Javed Habib - Quite Unfair!! You should have ALSO put that Prophet  Muhammad pic when he visited your salon for a manicure! #JavedHabib

Will Javed Habib come with advertisement depicting Prophet Mohammad  getting his Beard trimmed at his salon?? Why are Hindus on target???

जब सारा बवाल बढ़ने लगा तो ''व्‍यावसायिक-बुद्धि'' वाले जावेद हबीब ने माफी मांगते हुए  एक ट्वीट कर अपने ग्राहकों को पटाने की कोशिश की-
Our Ad was not published to hurt anyone's sentiments...we sincerely  apologise.

मगर बात तो निकल चुकी थी। अच्‍छी बात ये है कि जावेद हबीब के इस विज्ञापन का  विरोध उस हाईटेक पीढ़ी ने किया जिसे हम अमूमन भगवान और धर्म को ''ना मानने  वाला'' कहते रहते हैं और गाहे-बगाहे उन्‍हें अवज्ञा का दोषी मानने से भी परहेज नहीं  करते। ये वही पीढ़ी है जो सफाई से लेकर गरीब बच्‍चों, बूढ़े मां-बाप तथा सामाजिक  कार्यों के लिए भी एप बना रही है और अपनी सुविधाओं को छोड़कर इनके लिए ज़मीन  पर काम कर रही है। ये पीढ़ी सिर्फ बैठकर गाल नहीं बजाती, ये राजनीति में भी उतनी  ही सक्रिय दिखती है जितनी कि मॉल में, पिज्‍जा हट और एमएनसी दफ्तरों में। ये वही पीढ़ी है जो धर्म के असली मायने भी जानती है और उन्‍हें निबाहना भी, राष्‍ट्र के लिए वह क्या कर सकती है, ये भी जानती है, और गाल भी नहीं बजाती।

जहां तक बात जिन ''गरीबों'' की आड़ लेकर सोकॉल्‍ड बुद्धिजीवियों द्वारा तिलमिलाने की  है या अभिव्‍यक्‍ति की आजादी पर रूदाली बनने की है, तो इनसे पूछा जाना चाहिए कि  स्‍वयं इन्‍होंने इस सबके लिए क्‍या प्रयास किए, क्‍या ये बतायेंगे। नहीं बता सकते क्‍योंकि  किसी यूनीवर्सिटी के किसी कॉलेज की फैकल्‍टी-बतौर गाल बजाना आसान है और ज़मीन  पर काम करना उतना ही मुश्‍किल। 

सो अशोक वाजपेयी जी यह समय ही शूद्र है, तभी तो आप जैसों की खेप न स्‍वतंत्रता के  मायने समझी और न प्रगति की व्‍याख्‍या कर पाई। और जब लोग जागे हैं तो बजाय इस  जागरूकता को व्‍यवस्‍थित करने में योगदान देने के, आप इसे असहिष्‍णुता और  असहमति का कुचक्र बता रहे हैं। ज़रा अपनी किताबों के पन्‍नों से बाहर निकल कर  आइये और देखिए कि बाहर की आबोहवा कितना सुकून देती है। वह दौर बीत गया जब  एक लेख या कविता से सत्‍ता पलटने का सपना बुना जाता था, यह समय और है।  इसकी नब्‍ज़ पहचानिए वरना आने वाली पीढ़ी आपको हिकारत की नजर से देखेगी और  सम्‍मान का पात्र वही होगा, जिसने धरातल पर ''कुछ करके दिखाया'' हो।

- अलकनंदा सिंह

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

गुरूदीक्षा लेने के कुचक्र के आफ्टरइफेक्‍ट हैं ये सब...

अभीतक तथाकथित आधुनिकता की आड़ में जो लोग ज्‍योतिषीय आंकलन को ढपोरशंखी बताया करते थे, वे इस प्राचीन  विद्या के वैज्ञानिक पक्ष से पूर्णत: अनभिज्ञ रहे और हम सतही जानकारियों के बूते इस विज्ञान का दुरुपयोग करने वाले  उन ''पंडितों'' के दुष्‍चक्र में फंसते चले गए जो आमजन से लेकर संभ्रान्‍तजन तक को बरगला कर अपना ''धंधा'' चलाते  रहे। इन पंडितों और ऐसे ही अन्‍य धंधेखोरों के कारण ज्‍योतिष को बतौर 'नक्षत्र विज्ञान' कब का भुलाया जा चुका है।  अभी भी इसके बारे में बात करने भर से आपको दकियानूसी, पिछड़ा, दक्षिणपंथी या समाज की प्रगति का दुश्‍मन आदि  कुछ भी कहा जा सकता है...।

कॉस्‍मिक किरणें-दिशा ज्ञान और नक्षत्र विज्ञान पर यूं तो कितना ही कुछ शोधों के द्वारा सिद्ध किया जा चुका है मगर  इस पर बात फिर कभी करेंगे। फिलहाल इसी नक्षत्र-विज्ञान के अनुसार सौरमंडल में जो कुछ ग्रह अपनी वक्र गति (  retrogate) से चल रहे हैं उनके कारण समाज में जो कुछ भी गलत हुआ है उसकी साफसफाई का समय आ गया है और  इसी कारण दशकों से जमे ''बाबाओं'' के डेरे-आश्रमों से लेकर विदेश के स्‍थापित साम्राज्‍यों व विनाशक शक्‍तियों तक सभी  में उथलपुथल मची है...प्रकृति का मंथन तेज हो रहा है ताकि जो अग्रहणीय है उसे निकाल बाहर किया जाए और इस  तरह ये मंथन-गति संतुलन की ओर बढ़ रही है ।

इसी मंथन से संबंधित दो वाकये बताती हूं-  पहला तो यह कि दो दिन पहले अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्‍यक्ष  नरेंद्र गिरि ने प्रेस कांफ्रेंस कर कहा था कि फर्जी संतों-बाबाओं को सनातन धर्म की परंपराओं से खिलवाड़ नहीं करने दिया  जाएगा। हम इसके खिलाफ कार्यवाही करेंगे।  कल इसी संदर्भ में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने स्‍वयंभू संत  महात्‍माओं को फर्जी बताते हुए उन्हें साधु संन्‍यासी संत या बाबा मानने से इंकार कर दिया है। इतना ही नहीं इन्‍हें संत  या महात्‍मा कहे जाने पर भी आपत्‍ति जताई है क्‍योंकि ये सनातन हिंदू परंपरा या अखाड़ा व्‍यवस्‍था के अंग नहीं हैं और  न ही ये साधु संन्‍यासी हैं। परिषद की ओर से सभी 13 अखाड़ों को एडवाइजरी जारी की गई है कि उन्‍हें अपने यहां  स्‍थापित समिति के अनुमोदन के बाद ही संतों महामंडलेश्‍वरों को मान्‍यता दिये जाने की सलाह दी है। इन 13 अखाड़ों में  निरंजनी, आनंद, महानिर्वाणी, अटल, बड़ा उदासीन, नया उदासीन, निर्मल अखाड़ा,जूना, अव्‍हान,अग्‍नि, दिगंबर  अणि,निर्वाणी अणि और निर्मोही अणि शामिल हैं।

दूसरा वाकया है कि -  कल जिस समय अखाड़ा परिषद हरिद्वार में ये एडवाइजरी जारी कर रही थी ठीक उसी समय  धर्मनगरी हरिद्वार से ही ताल्लुक रखने वाले एक पीठाधीश्वर रहे एक 'बाबा' का बीच सड़क कार की बोनट पर लड़की को  'किस' करते फोटो के सोशल मीडिया पर वायरल होने से चर्चाओं का बाजार गरम है, फोटो लोकेशन दिल्ली-आगरा यमुना  एक्सप्रेस हाईवे की बताई जा रही है, इस पर अधिकारिक रूप से मुंह खोलने को तैयार नहीं। मामले की जानकारी और  फोटो अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद तक भी पहुंचा दी गई।

फोटो में दिख रहे बाबा हरिद्वार-देहरादून रोड पर स्थित एक आश्रम से जुड़े बताए जा रहे हैं हालांकि इन कथित बाबा के  चेलों द्वारा सफाई दी जा रही है कि फोटो पुराना है और वह काफी समय पहले हरिद्वार से दिल्ली आश्रम चले गए हैं  और अब वह कभी-कभार ही यहां आते हैं। उन्होंने दिल्ली स्थित आश्रम में ही अपना स्थायी डेरा बना लिया है मगर ये  तो सफाईभर है ना। अभी हम इतने आधुनिक भी नहीं हुए हैं कि एक पीठाधीश्वर संत को सरेआम किस करते और  सामाजिक सभ्‍यता के मापदंडों व मर्यादाओं की धज्‍जियां उड़ाते देखते रहें और प्रतिक्रिया भी ना दें।

हम सब जानते हैं कि सनातन धर्म में गृहस्‍थ संतों को भी उतना ही महत्‍व दिया जाता रहा है जितना कि वैरागियों को  मगर उच्‍छृंखलता को न कोई समाज मान्‍यता देता है और ना ही धर्म। समाज में व्‍यवस्‍था बनाए रखने के कुछ नियम  होते हैं, और धर्म संवाहकों से इन्‍हें मानने की अपेक्षा सर्वाधिक होती है। मंदिरों-मठों में व्‍यभिचार की खबरें पहले भी आती  रही हैं मगर अब ये सीमायें पार कर चुकी हैं। इनकी सफाई इनके भीतर से ही शुरू होनी चाहिए। गेरुए वस्‍त्रों की महिमा  और सनातन धर्म की खिल्‍ली इस 'बाबा' जैसे न जाने ''कितने और बाबा'' उड़ा रहे होंगे, इस संबंध में अखाड़ा परिषद को  सिर्फ एडवाइजरी जारी करके ही नहीं चुप रह जाना चाहिए बल्‍कि उन बाबाओं के खिलाफ कानूनी कार्यवाही भी करनी  चाहिए। आज सड़क पर किस करते बाबा का फोटो वायरल हुआ है, कल को कोई ऐसा ही बाबा सड़क पर शारीरिक संबंध  बनाता दिख जाए तो फिर आश्‍चर्य कैसा, बेलगाम इच्‍छाऐं और धर्म की आड़ में इन बाबाओं की असलियत सामने आनी  ही चाहिए।

इसके साथ ही हमें ''गुरूदीक्षा लेने के कुचक्र'' की ओर भी ध्‍यान देना होगा जो हमारे आसपास अंधश्रद्धा के रूप में फैलाया  जाता है कि मोक्षप्राप्‍ति के लिए किसी गुरू की का होना अति आवयश्‍क है। ये सारी बातें कतई निराधार हैं जबकि स्‍वयं  गुरुओं के गुरू दत्‍तात्रेय ने कहा है कि ये उर्वर पृथ्‍वी, ये खुला आकाश, ये बहती हवाऐं, ये जलती आग, ये बहता पानी, ये  सुबह उठता सूरज, ये रात बितातात चांद, ये इतराती तितलियां, ये शहद बनाती मक्‍खियां, ये मदमस्‍त हाथी, ये व्‍यस्‍त  चीटियां, ये जाल बुनतीं मकड़ियां, कुलांचे भरते हिरन, चहचहाती चिड़ियां, अबोध बच्‍चे, बर्बर शिकरी, जहरीले सांप, ये सब  गुरू ही तो हैं। जब प्रकृति की हर गतिविधि हमारी गुरू हो सकती है तो इन ''बाबाओं'' के कुचक्र से बचना कोई असंभव  कार्य तो नहीं। क्‍या हम गुरू दत्‍तात्रेय के कहे इन वाक्‍यों को झ़ठला सकते हैं, नहीं, इन बाबाओं को साइडबाइ करने का  एक ही फॉर्मूला है कि बस थोड़ी नजर चौकस और थोड़ी अपने प्रति विश्‍वास व अपनों के प्रति श्रद्धा...और क्‍या।

-अलकनंदा सिंह