शायर हसनैन आक़िब का एक शेर है -
हर इक फ़साद ज़रूरत है अब सियासत की
हर इक घोटाले के पीछे वज़ीर रहते हैं।
सहारनपुर हिंसा पर जो सवाल उठ रहे हैं उनके जवाब अभी तो कोई नहीं देगा मगर सवाल तो उठ रहे हैं ना, कि क्या हिंसा सिर्फ राजनीति से प्रेरित होती है, क्या समाज में स्थापित भाईचारा वाले मापदंड जबरदस्ती थोपे गए, क्या नई पीढ़ी को हिंसा के बूते अपना नाम-काम-दाम कमाने का शॉर्टकट मिल गया है, क्या हिंसा करने वाले गांव के गांव सोशल मीडिया को दोषी बताकर अपने समाजों में पिछले कुछ दशकों से घुलते रहे ज़हर से निजात पा सकते हैं, क्या महापुरुषों के नाम को इस तरह बदनाम नहीं किया जा रहा।
हम उत्तरप्रदेशवासी साक्षी हैं उस प्रवृत्ति के जिसके कारण महापुरुषों के नाम पर राजनैतिक स्वार्थों के चलते छुट्टियों से लेकर उनकी जाति को खोज खोजकर निकाला गया, फिर उनके नाम पर जातिगत ठेकेदारों और राजनेताओं द्वारा विशेष शोभायात्राऐं निकालकर अपने बाहुबल का प्रदर्शन किया जाता रहा, यह एक परंपरा सी बन गई थी।
नई सरकार के गठित होते ही हालांकि तमाम छुट्टियां तो खत्म कर दी गईं और महापुरुषों के बारे में उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों को कार्यालयों व स्कूल-कॉलेजों में मनाने का निर्णय लिया गया मगर जो विभाजनकारी ज़हर हर तबके में घोला जा चुका, उसके आफ्टरइफेक्ट्स भी तो झेलने होंगे और सहारनपुर उसी आफ्टरइफेक्ट का चश्मदीद बना।
मेरा अपना अध्ययन बताता है कि ना तो बाबा साहब अंबेडकर को अपनी मूर्ति पूजा करवानी थी और ना ही महाराणा प्रताप ने ये सोचकर अपनी जंग लड़ी थी कि आने वाली पीढ़ियां उनकी प्रतिमा या उनके जन्मदिन पर शोभायात्रा निकालें और अपने ही गांववालों को शिकार बनाऐं, मगर ऐसा ही हो रहा है।
सहारनपुर चश्मदीद इस बात का भी है कि कैसे बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नाम पर भीम आर्मी द्वारा दलितों को बौद्ध धर्म ग्रहण कराकर बरगलाया जा रहा है क्योंकि समस्या धर्म में नहीं है बल्कि उस मानसिकता में है जो स्वयं को सर्वोच्च दर्शाने से ग्रस्त है।
क्या धर्म परिवर्तन से ठाकुर स्वयं को दलितों से श्रेष्ठ मानना छोड़ देंगे, क्या बौद्ध धर्म ग्रहण करने वालों को अचानक वे शक्तियां मिल जाऐंगीं जो दबंग ठाकुरों की मानसिकता बदल सकें।
दरअसल हिंसा हो या धर्मपरिवर्तन, जंतर मंतर पर शक्ति प्रदर्शन हो अथवा शोभायात्राओं के सहारे शक्ति प्रदर्शन, सब इंस्टेंट पॉलिटिक्स का हिस्सा हैं।
बहरहाल सहारनपुर का जातिगत संघर्ष उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की कानून व्यवस्था के लिये पहली बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है और यहां के दलित एवं ठाकुर समुदाय के नेता दावा करते हैं कि सहारनपुर के जातिगत संघर्षों में राजनीति की एक अंत:धारा है जिसने मुस्लिमों को भी अपने दायरे में समेट लिया है।
घटनाक्रम के अनुसार करीब 600 दलितों और 900 ठाकुरों की आबादी वाले गांव शब्बीरपुर से हिंसक चक्र की जो शुरुआत हुई, उसमें जहां दलितों का कहना है कि ठाकुरों ने उन्हें गांव के रविदास मंदिर परिसर में बाबासाहिब अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित नहीं करने दी थी। वहीं बाद में राजपूत राजा महाराणा प्रताप की जयंती के उपलक्ष्य में ठाकुरों के एक जुलूस पर एक दलित समूह ने आपत्ति जतायी तो इससे हिंसा फूट पड़ी। इसमें एक व्यक्ति को अपनी जान गंवानी पड़ी और 15 लोग घायल हो गये।
हालांकि जैसे कि आसार थे कथित दलित चिंतकों ने अपनी रोटियां सेंकना शुरू कर दिया है , मायावती ने दौरा कर चुकी हैं और शेहला मसूद द्वारा दलितों को खासा ''बेचारा'' बनाकर ( हालांकि सहारनपुर के दलित ना तो गरीब हैं और ना ही बेचारे, ना ही उनकी आर्थिक स्थिति खराब है और ना वे भूमिहीन व ठाकुरों के बंधुआ व जीहुजूरी करने वाले ) जो लेख लिखा गया, वह यह बताने को काफी है कि आज भी सहारनपुर की हिंसा को सभी अपने अपने चश्मे से देखते हुए अपना पॉलिटिकल स्कोप खोज रहे हैं और प्रदेश सरकार के लिए मुसीबत पैदा करने का कारण बन रहे हैं।
बहरहाल समस्या पर राजनीति करने वाले भला उसका समाधान कैसे निकालेंगे और महापुरुषों के नाम पर खुदी खाइयों को ये किसी भी तरह पाटने नहीं देंगे, क्योंकि ये इनके लिए मुफीद हैं।
और आखिर में मंज़र भोपाली इसी सियासत पर कहते हैं-
ग़म-गुसार चेहरों पर ए'तिबार मत करना
शहर में सियासत के दोस्त भी शिकारी है।
- अलकनंदा सिंह
हर इक फ़साद ज़रूरत है अब सियासत की
हर इक घोटाले के पीछे वज़ीर रहते हैं।
सहारनपुर हिंसा पर जो सवाल उठ रहे हैं उनके जवाब अभी तो कोई नहीं देगा मगर सवाल तो उठ रहे हैं ना, कि क्या हिंसा सिर्फ राजनीति से प्रेरित होती है, क्या समाज में स्थापित भाईचारा वाले मापदंड जबरदस्ती थोपे गए, क्या नई पीढ़ी को हिंसा के बूते अपना नाम-काम-दाम कमाने का शॉर्टकट मिल गया है, क्या हिंसा करने वाले गांव के गांव सोशल मीडिया को दोषी बताकर अपने समाजों में पिछले कुछ दशकों से घुलते रहे ज़हर से निजात पा सकते हैं, क्या महापुरुषों के नाम को इस तरह बदनाम नहीं किया जा रहा।
हम उत्तरप्रदेशवासी साक्षी हैं उस प्रवृत्ति के जिसके कारण महापुरुषों के नाम पर राजनैतिक स्वार्थों के चलते छुट्टियों से लेकर उनकी जाति को खोज खोजकर निकाला गया, फिर उनके नाम पर जातिगत ठेकेदारों और राजनेताओं द्वारा विशेष शोभायात्राऐं निकालकर अपने बाहुबल का प्रदर्शन किया जाता रहा, यह एक परंपरा सी बन गई थी।
नई सरकार के गठित होते ही हालांकि तमाम छुट्टियां तो खत्म कर दी गईं और महापुरुषों के बारे में उनकी जयंतियों व पुण्यतिथियों को कार्यालयों व स्कूल-कॉलेजों में मनाने का निर्णय लिया गया मगर जो विभाजनकारी ज़हर हर तबके में घोला जा चुका, उसके आफ्टरइफेक्ट्स भी तो झेलने होंगे और सहारनपुर उसी आफ्टरइफेक्ट का चश्मदीद बना।
मेरा अपना अध्ययन बताता है कि ना तो बाबा साहब अंबेडकर को अपनी मूर्ति पूजा करवानी थी और ना ही महाराणा प्रताप ने ये सोचकर अपनी जंग लड़ी थी कि आने वाली पीढ़ियां उनकी प्रतिमा या उनके जन्मदिन पर शोभायात्रा निकालें और अपने ही गांववालों को शिकार बनाऐं, मगर ऐसा ही हो रहा है।
सहारनपुर चश्मदीद इस बात का भी है कि कैसे बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नाम पर भीम आर्मी द्वारा दलितों को बौद्ध धर्म ग्रहण कराकर बरगलाया जा रहा है क्योंकि समस्या धर्म में नहीं है बल्कि उस मानसिकता में है जो स्वयं को सर्वोच्च दर्शाने से ग्रस्त है।
क्या धर्म परिवर्तन से ठाकुर स्वयं को दलितों से श्रेष्ठ मानना छोड़ देंगे, क्या बौद्ध धर्म ग्रहण करने वालों को अचानक वे शक्तियां मिल जाऐंगीं जो दबंग ठाकुरों की मानसिकता बदल सकें।
दरअसल हिंसा हो या धर्मपरिवर्तन, जंतर मंतर पर शक्ति प्रदर्शन हो अथवा शोभायात्राओं के सहारे शक्ति प्रदर्शन, सब इंस्टेंट पॉलिटिक्स का हिस्सा हैं।
बहरहाल सहारनपुर का जातिगत संघर्ष उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की कानून व्यवस्था के लिये पहली बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है और यहां के दलित एवं ठाकुर समुदाय के नेता दावा करते हैं कि सहारनपुर के जातिगत संघर्षों में राजनीति की एक अंत:धारा है जिसने मुस्लिमों को भी अपने दायरे में समेट लिया है।
घटनाक्रम के अनुसार करीब 600 दलितों और 900 ठाकुरों की आबादी वाले गांव शब्बीरपुर से हिंसक चक्र की जो शुरुआत हुई, उसमें जहां दलितों का कहना है कि ठाकुरों ने उन्हें गांव के रविदास मंदिर परिसर में बाबासाहिब अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित नहीं करने दी थी। वहीं बाद में राजपूत राजा महाराणा प्रताप की जयंती के उपलक्ष्य में ठाकुरों के एक जुलूस पर एक दलित समूह ने आपत्ति जतायी तो इससे हिंसा फूट पड़ी। इसमें एक व्यक्ति को अपनी जान गंवानी पड़ी और 15 लोग घायल हो गये।
हालांकि जैसे कि आसार थे कथित दलित चिंतकों ने अपनी रोटियां सेंकना शुरू कर दिया है , मायावती ने दौरा कर चुकी हैं और शेहला मसूद द्वारा दलितों को खासा ''बेचारा'' बनाकर ( हालांकि सहारनपुर के दलित ना तो गरीब हैं और ना ही बेचारे, ना ही उनकी आर्थिक स्थिति खराब है और ना वे भूमिहीन व ठाकुरों के बंधुआ व जीहुजूरी करने वाले ) जो लेख लिखा गया, वह यह बताने को काफी है कि आज भी सहारनपुर की हिंसा को सभी अपने अपने चश्मे से देखते हुए अपना पॉलिटिकल स्कोप खोज रहे हैं और प्रदेश सरकार के लिए मुसीबत पैदा करने का कारण बन रहे हैं।
बहरहाल समस्या पर राजनीति करने वाले भला उसका समाधान कैसे निकालेंगे और महापुरुषों के नाम पर खुदी खाइयों को ये किसी भी तरह पाटने नहीं देंगे, क्योंकि ये इनके लिए मुफीद हैं।
और आखिर में मंज़र भोपाली इसी सियासत पर कहते हैं-
ग़म-गुसार चेहरों पर ए'तिबार मत करना
शहर में सियासत के दोस्त भी शिकारी है।
- अलकनंदा सिंह