गुरुवार, 28 जुलाई 2016
सोमवार, 25 जुलाई 2016
अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि
‘अहं शिवः शिवश्चार्य, त्वं चापि शिव एव हि।
सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।।
अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है और शिव ही सर्वस्य
शिव आदि देव है। वे महादेव हैं, सभी देवों में सर्वोच्च और महानतमें शिव को ऋग्वेद में रुद्र कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। श्वेता श्वतरोपनिषद् के अनुसार ‘सृष्टि के आदिकाल में जब सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था। न दिन न रात्रि, न सत् न असत् तब केवल निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे।’ शिव पुराण में इसी तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है -
‘एक एवं तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्नि कश्चन’ सृष्टि के आरम्भ में एक ही रुद्र देव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। ‘रु’ का अर्थ है-दुःख तथा ‘द्र’ का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात् दुःख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है।
मैं शिव, तू शिव सब कुछ शिवमय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है।
इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्।
शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मंगल, परम कल्याण।
सामान्यतः ब्रहमा को सृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक माना जाता है। परन्तु मूलतः शक्ति तो एक ही है, जो तीन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं।
स्कंद पुराण में कहा गया है-ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति माहेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्त्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। ब्रहम की परिभाषा है - ये भूत जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है। यह परिभाषा शिव की परिभाषा है। ध्यान रहे जिसे हम शंकर कहते हैं - वह एक देवयोनि है जैसे ब्रहमा एवं विष्णु हैं। उसी प्रकार। शंकर शिव के ही अंश हैं। पार्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि के परिवार वाले देवता का नाम शंकर है। शिव आदि तत्त्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है।
शिव की स्वतंत्र निजी शक्ति के दो शाश्वत रूप उसकी प्रापंचिक अभिव्यक्ति में प्रतीत होते हैं, जिन्हें विद्या तथा अविद्या कह सकते हैं। इस प्रापंचिक ब्रहमाण्ड व्यवस्था में परमात्मा के पारमार्थिक आनंदमय स्वरूप को प्रकट करने वाली शक्ति विद्या कहलाती है तथा परमात्मा की प्रापंचिक विभिन्ननाओं के आवरण से अवगुंठित शक्ति अविद्या कहलाती है।
परमात्मा की अभिन्न शक्ति के ही दोनों रूप हैं। नाना आकारों में उसकी ही अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति उसकी शक्ति का विलास है, लीला है। यह ब्रह्माण्ड परमात्मा की निजी शक्ति का व्यावहारिक पक्ष है। पारमार्थिक पक्ष में परमात्मा पूर्णतया एक है-एकं द्वितीयो नास्ति।’ उसके चरम सत् और चित् में कोई भेद नहीं, उसके स्वभाव में कोई द्वैत एवं सापेक्षिता नहीं। यहां वह चरम अनुभव की अवस्था में है जिसमें स्वनिर्मित ज्ञाता-ज्ञेय का कोई भेद नहीं है।
परमात्मा का यह स्वरूप प्रकाश स्वरूप है।परमात्मा की शक्ति का विमर्श पक्ष उसे व्यावहारिक स्तर पर आत्म-चेतन बना देता है। अतः विमर्श-शक्ति शिव की आत्म चेतनता पर आत्मोद्घाटन की शक्ति मानी जाती है। यहां परमात्मा ज्ञाता ज्ञेय के रूप में अपने आपको विभाजित कर लेता है।
परमात्मा की यह वस्तुगत आत्म-चेतना है जो विभिन्न स्तरों के भोक्ता या भोग्य पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। काल, दिक्, कारणत्व एवं सापेक्षिकता चारों परमात्मा के वस्तुगत रूप हैं। परमात्मा की विमर्श शक्ति को माया शक्ति भी कहा जाता है।
जो सृष्टि में है वही पिण्ड में है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ समस्त शरीरों का अन्तिम आधार एक परम आध्यात्मिक शक्ति है जो अपने मूल रूप में अद्वैत परमात्मा शिव से अभिन्न है। समस्त शरीर एक स्वतः विकासमान दिव्य शक्ति की आत्माभिव्यक्ति है। वह शक्ति अद्वैत शिव से अभिन्न है। वही आत्म चैतन्य आत्मानंद, अद्वैत परमात्मा अपने आत्म रूप में स्थित होती है तब शिव कहलाती है और जब सक्रिय होकर अपने को ब्रहमाण्ड रूप में परिणत कर लेती है तब शक्ति कहलाती है। यह शक्ति पिण्ड में कुण्डलिनी के रूप में स्थित है। यही शक्ति महाकुण्डलिनी के रूप में ब्रह्माण्ड में स्थित है।
- अलकनंदा सिंह
सर्व शिवमयं ब्रह्म, शिवात्परं न किञचन।।
अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है और शिव ही सर्वस्य
शिव आदि देव है। वे महादेव हैं, सभी देवों में सर्वोच्च और महानतमें शिव को ऋग्वेद में रुद्र कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। श्वेता श्वतरोपनिषद् के अनुसार ‘सृष्टि के आदिकाल में जब सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था। न दिन न रात्रि, न सत् न असत् तब केवल निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे।’ शिव पुराण में इसी तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है -
‘एक एवं तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्नि कश्चन’ सृष्टि के आरम्भ में एक ही रुद्र देव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। ‘रु’ का अर्थ है-दुःख तथा ‘द्र’ का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात् दुःख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है।
मैं शिव, तू शिव सब कुछ शिवमय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है।
इसीलिए कहा गया है- ‘शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्।
शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनंद को। शिव का अर्थ है आनंद। शिव का अर्थ है-परम मंगल, परम कल्याण।
सामान्यतः ब्रहमा को सृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक माना जाता है। परन्तु मूलतः शक्ति तो एक ही है, जो तीन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं।
स्कंद पुराण में कहा गया है-ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति माहेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्त्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। ब्रहम की परिभाषा है - ये भूत जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है। यह परिभाषा शिव की परिभाषा है। ध्यान रहे जिसे हम शंकर कहते हैं - वह एक देवयोनि है जैसे ब्रहमा एवं विष्णु हैं। उसी प्रकार। शंकर शिव के ही अंश हैं। पार्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि के परिवार वाले देवता का नाम शंकर है। शिव आदि तत्त्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है।
शिव की स्वतंत्र निजी शक्ति के दो शाश्वत रूप उसकी प्रापंचिक अभिव्यक्ति में प्रतीत होते हैं, जिन्हें विद्या तथा अविद्या कह सकते हैं। इस प्रापंचिक ब्रहमाण्ड व्यवस्था में परमात्मा के पारमार्थिक आनंदमय स्वरूप को प्रकट करने वाली शक्ति विद्या कहलाती है तथा परमात्मा की प्रापंचिक विभिन्ननाओं के आवरण से अवगुंठित शक्ति अविद्या कहलाती है।
परमात्मा की अभिन्न शक्ति के ही दोनों रूप हैं। नाना आकारों में उसकी ही अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति उसकी शक्ति का विलास है, लीला है। यह ब्रह्माण्ड परमात्मा की निजी शक्ति का व्यावहारिक पक्ष है। पारमार्थिक पक्ष में परमात्मा पूर्णतया एक है-एकं द्वितीयो नास्ति।’ उसके चरम सत् और चित् में कोई भेद नहीं, उसके स्वभाव में कोई द्वैत एवं सापेक्षिता नहीं। यहां वह चरम अनुभव की अवस्था में है जिसमें स्वनिर्मित ज्ञाता-ज्ञेय का कोई भेद नहीं है।
परमात्मा का यह स्वरूप प्रकाश स्वरूप है।परमात्मा की शक्ति का विमर्श पक्ष उसे व्यावहारिक स्तर पर आत्म-चेतन बना देता है। अतः विमर्श-शक्ति शिव की आत्म चेतनता पर आत्मोद्घाटन की शक्ति मानी जाती है। यहां परमात्मा ज्ञाता ज्ञेय के रूप में अपने आपको विभाजित कर लेता है।
परमात्मा की यह वस्तुगत आत्म-चेतना है जो विभिन्न स्तरों के भोक्ता या भोग्य पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। काल, दिक्, कारणत्व एवं सापेक्षिकता चारों परमात्मा के वस्तुगत रूप हैं। परमात्मा की विमर्श शक्ति को माया शक्ति भी कहा जाता है।
जो सृष्टि में है वही पिण्ड में है। ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे।’ समस्त शरीरों का अन्तिम आधार एक परम आध्यात्मिक शक्ति है जो अपने मूल रूप में अद्वैत परमात्मा शिव से अभिन्न है। समस्त शरीर एक स्वतः विकासमान दिव्य शक्ति की आत्माभिव्यक्ति है। वह शक्ति अद्वैत शिव से अभिन्न है। वही आत्म चैतन्य आत्मानंद, अद्वैत परमात्मा अपने आत्म रूप में स्थित होती है तब शिव कहलाती है और जब सक्रिय होकर अपने को ब्रहमाण्ड रूप में परिणत कर लेती है तब शक्ति कहलाती है। यह शक्ति पिण्ड में कुण्डलिनी के रूप में स्थित है। यही शक्ति महाकुण्डलिनी के रूप में ब्रह्माण्ड में स्थित है।
- अलकनंदा सिंह
शुक्रवार, 22 जुलाई 2016
Politics: महिलाओं के लिए बदजुबानी में कौन कम है भला
women के लिए बदजुबानी में कौन कम है भला, खासकर राजनीति में और वो भी
राजनीति अगर यूपी की हो तो कहने ही क्या। यूपी बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह के
बयान से देश की सियासत में उबाल है। उनकी मायावती पर की गई भद्दी टिप्पणी
को राजनीतिक के गिरते स्तर का एक और नमूना कहा जा रहा है। हालांकि ऐसा पहली
बार नहीं हुआ है।
घटनाक्रम तेजी से बदल रहे हैं जिसके तहत -दयाशंकर सिंह के अपशब्दों के विरोधस्वरूप बसपा के गालीबाजों को अपनी जुबान साफ करने का मौका मिल गया और उन्होंने अपने नेता नसीमुद्दीन सिद्दकी की अगुवाई में दयाशंकर की पत्नी स्वाति व उनकी 12 साल की बच्ची को ”पेश” करने की बात कहकर गंदी जुबान की पराकाष्ठा पार कर दी। मायावती इसे TiT for Tat यानि गाली का बदला गाली बता रही हैं । कम से कम यूपी में सब जानते हैं कि बदजुबानी में तो स्तरहीन वह भी हैं ।
हालांकि दयाशंकर को भाजपा से निष्काषित कर उन्हें पदच्युत कर भाजपा ने अपना कर्तव्य निभाया, यूपी पुलिस दयाशंकर को खोजने में जुटकर अपना कर्तव्य निभा रही है और उनकी पत्नी स्वाति सिंह अपने व अपनी बेटी के प्रति बसपाइयों द्वारा बोले गए ”अपमानजनक अपशब्दों ” को लेकर मायावती के खिलाफ लखनऊ के हजरतगंज थाने में मामला दर्ज करवा चुकी हैं। उनका कहना सही भी है कि पूरे देश ने देखा कि कल बसपा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने किस भाषा का इस्तेमाल किया। क्या यह महिलाओं की गरिमा के खिलाफ नहीं है।
बहरहाल, इस बदलते घटनाक्रमों के बावजूद बात तो ये है कि महिलाओं को लेकर इतनी बदजुबानी क्यों। इसी वजह से सियासत में महिलाओं का आना सभ्रांत स्तर का नहीं माना जाता।
ज़रा एक नजर समय समय पर दिए गए ”बड़े नेताओं” के इन गरियाऊ बयानों पर –
1. दिसंबर 2012 में जब गुजरात विधानसभा के चुनाव नतीजे आए थे, तब कांग्रेस के पूर्व सांसद संजय निरुपम ने स्मृति ईरानी को ठुमके वाली कह डाला था। निरुपम ने कहा था- आप तो टीवी पर ठुमके लगाती थीं और आज चुनावी विश्लेषक बन गई हैं।
2. कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह अपनी ही पार्टी की तत्कालीन सांसद मीनाक्षी नटराजन (मंदसौर) को सौ टंच माल करार दिया था।
3. वर्तमान में केंद्रीय मंत्री और पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह ने मीडिया को presstitutes कह कब संबोधित किया था।
4. दिल्ली से भाजपा विधायक ओपी शर्मा ने सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की विधायक अल्का लांबा को रात में घूमने वाली करार दिया था।
5. 2015 में जदयू नेता शरद यादव ने राज्यसभा में दक्षिण भारतीय महिलाओं पर अजीब टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था, दक्षिण भारत की महिलाएं दिखने में काली होती हैं, लेकिन उनका शरीर सुंदर होता है। ऐसा यहां नजर नहीं आता।
6. 2014 में मुंबई के शक्तिमील में दो महिलाओं से गैंगरेप में कोर्ट के फैसले पर मुलायम सिंह यादव यह कह बैठे थे कि लड़के तो लड़के हैं। गलतियां करेंगे ही। जब भी दोस्ती खत्म होती है, लड़की के लिए लड़का रेपिस्ट बन जाता है।
7. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी का यह बयान भी खासा विवादों में रहा, जिसमें उन्होंने निर्भया गेंगरेप कांड के दौरान कहा था कि जो लड़कियां यहां हाथों में मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन कर रही हैं, वो रात में डिस्को जाती हैं।
ये तो वो उदारण हैं जो मुझे याद रहे अन्यथा हम अपने घर, मोहल्ले से लेकर हाई प्रोफाइल सोसाइटीज तक महिलाओं को गरियाने वालों को या तो तिरछी नजर से देखकर छोड़ देते हैं या फिर दो चार बात सुनाकर। राजनीति में आने वाली महिलाओं के लिए सम्मान पाना बड़ी टेढ़ी खीर है। खासकर तब जबकि हमारी नीति नियंता जमात चारित्रिक अपशब्दों का जखीरा अपनी कांख में हमेशा दबाए घूमती फिरती हो। किसी महिला से ज़रा सा मात खाए नहीं कि बिलबिलाकर गालियों को थूकने में देर नहीं करते, साथ ही जस्टीफाई भी करते हैं कि ”वो” तो है ही इसी लायक, ये सब तो राजनीति में चलता ही है, नहीं सुन सकती तो राजनीति में आई ही क्यों… आदि आदि।
मायावती के बहाने से ही सही, ये बात एकबार फिर उठी है और संसद से इसकी जोरदार भर्त्सना भी हुई, यह सूचक है कि समाज के सांस्कृतिक पतन को अब चुप होकर नहीं सुना जा सकेगा… आवाज उठेगी ही…।
– अलकनंदा सिंह
घटनाक्रम तेजी से बदल रहे हैं जिसके तहत -दयाशंकर सिंह के अपशब्दों के विरोधस्वरूप बसपा के गालीबाजों को अपनी जुबान साफ करने का मौका मिल गया और उन्होंने अपने नेता नसीमुद्दीन सिद्दकी की अगुवाई में दयाशंकर की पत्नी स्वाति व उनकी 12 साल की बच्ची को ”पेश” करने की बात कहकर गंदी जुबान की पराकाष्ठा पार कर दी। मायावती इसे TiT for Tat यानि गाली का बदला गाली बता रही हैं । कम से कम यूपी में सब जानते हैं कि बदजुबानी में तो स्तरहीन वह भी हैं ।
हालांकि दयाशंकर को भाजपा से निष्काषित कर उन्हें पदच्युत कर भाजपा ने अपना कर्तव्य निभाया, यूपी पुलिस दयाशंकर को खोजने में जुटकर अपना कर्तव्य निभा रही है और उनकी पत्नी स्वाति सिंह अपने व अपनी बेटी के प्रति बसपाइयों द्वारा बोले गए ”अपमानजनक अपशब्दों ” को लेकर मायावती के खिलाफ लखनऊ के हजरतगंज थाने में मामला दर्ज करवा चुकी हैं। उनका कहना सही भी है कि पूरे देश ने देखा कि कल बसपा नेताओं और कार्यकर्ताओं ने किस भाषा का इस्तेमाल किया। क्या यह महिलाओं की गरिमा के खिलाफ नहीं है।
बहरहाल, इस बदलते घटनाक्रमों के बावजूद बात तो ये है कि महिलाओं को लेकर इतनी बदजुबानी क्यों। इसी वजह से सियासत में महिलाओं का आना सभ्रांत स्तर का नहीं माना जाता।
ज़रा एक नजर समय समय पर दिए गए ”बड़े नेताओं” के इन गरियाऊ बयानों पर –
1. दिसंबर 2012 में जब गुजरात विधानसभा के चुनाव नतीजे आए थे, तब कांग्रेस के पूर्व सांसद संजय निरुपम ने स्मृति ईरानी को ठुमके वाली कह डाला था। निरुपम ने कहा था- आप तो टीवी पर ठुमके लगाती थीं और आज चुनावी विश्लेषक बन गई हैं।
2. कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह अपनी ही पार्टी की तत्कालीन सांसद मीनाक्षी नटराजन (मंदसौर) को सौ टंच माल करार दिया था।
3. वर्तमान में केंद्रीय मंत्री और पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह ने मीडिया को presstitutes कह कब संबोधित किया था।
4. दिल्ली से भाजपा विधायक ओपी शर्मा ने सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की विधायक अल्का लांबा को रात में घूमने वाली करार दिया था।
5. 2015 में जदयू नेता शरद यादव ने राज्यसभा में दक्षिण भारतीय महिलाओं पर अजीब टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था, दक्षिण भारत की महिलाएं दिखने में काली होती हैं, लेकिन उनका शरीर सुंदर होता है। ऐसा यहां नजर नहीं आता।
6. 2014 में मुंबई के शक्तिमील में दो महिलाओं से गैंगरेप में कोर्ट के फैसले पर मुलायम सिंह यादव यह कह बैठे थे कि लड़के तो लड़के हैं। गलतियां करेंगे ही। जब भी दोस्ती खत्म होती है, लड़की के लिए लड़का रेपिस्ट बन जाता है।
7. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के बेटे अभिजीत मुखर्जी का यह बयान भी खासा विवादों में रहा, जिसमें उन्होंने निर्भया गेंगरेप कांड के दौरान कहा था कि जो लड़कियां यहां हाथों में मोमबत्तियां लेकर प्रदर्शन कर रही हैं, वो रात में डिस्को जाती हैं।
ये तो वो उदारण हैं जो मुझे याद रहे अन्यथा हम अपने घर, मोहल्ले से लेकर हाई प्रोफाइल सोसाइटीज तक महिलाओं को गरियाने वालों को या तो तिरछी नजर से देखकर छोड़ देते हैं या फिर दो चार बात सुनाकर। राजनीति में आने वाली महिलाओं के लिए सम्मान पाना बड़ी टेढ़ी खीर है। खासकर तब जबकि हमारी नीति नियंता जमात चारित्रिक अपशब्दों का जखीरा अपनी कांख में हमेशा दबाए घूमती फिरती हो। किसी महिला से ज़रा सा मात खाए नहीं कि बिलबिलाकर गालियों को थूकने में देर नहीं करते, साथ ही जस्टीफाई भी करते हैं कि ”वो” तो है ही इसी लायक, ये सब तो राजनीति में चलता ही है, नहीं सुन सकती तो राजनीति में आई ही क्यों… आदि आदि।
मायावती के बहाने से ही सही, ये बात एकबार फिर उठी है और संसद से इसकी जोरदार भर्त्सना भी हुई, यह सूचक है कि समाज के सांस्कृतिक पतन को अब चुप होकर नहीं सुना जा सकेगा… आवाज उठेगी ही…।
– अलकनंदा सिंह
गुरुवार, 21 जुलाई 2016
Tribute: दो महान शख्सियतों का यूं चले जाना
दो महान शख्सियतों का यूं चले जाना नदी में सिर्फ पानी का बहते जाना ही
तो नहीं है , कई सवाल, कई आशाऐं- अपेक्षाओं का दफन होने जैसा है। आज दो
महान शख्सियत इस दुनिया से कूच कर गई। एक अयोध्या के बाबरी मस्जिद की
पैरवी करने वाले हाशमि अंसारी और दूसरे हॉकी का आखिरी ओलंपिक पदक दिलाने
वाले मोहम्मद शाहिद ।
96 वर्षीय हाशिम अंसारी और मोहम्मद शाहिद दोनों ही गंगा जमुनी तहजीब के रहनुमा। अफसोस होता है जब ऐसी शख्सियतें दुनिया से विदा होती हैं।
कभी हाशिम अंसारी ने बाबरी मस्जिद विवाद निपटने में बार बार आ रहे अड़ंगों से आजिज आकर अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी...लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ." यह उस विडंबना की बानगी है जो हमारी न्याय व्यवस्था हमें दिखाती रही है।
मुकद्दमों की बेतहाशा तादाद पर यूं तो कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री की मौजूदगी में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर ने इमोशनल होते हुए चिंता व्यक्त की थी और इन्हें द्रुत गति से निपटाने में सरकार से न्यायाधीशों कम संख्या का रोना भी रोया था।
हमको उनका इमोशनल चेहरा, पोंछते आंसू याद रह गये और वो अपनी इसी चिंता के मुखौटे के पीछे विदेशों में भारी भरमक खर्च के साथ पूरी गर्मियों की छुट्टियों के मजे लेते रहे। ये तो तब था जब वो स्वयं आंसू पोंछते हुए गर्मियों की छुट्टियों में कोर्ट केसेस निबटाने का वादा कर रहे थे।
हाशिम अंसारी जैसे सीधे सच्चे लोग, हमारे और आप जैसे लोग अपनी उम्र के ना जाने कितने दशक कोर्ट की फाइलों, वकीलों के बिस्तरों- केबिनों और पेशकार की झिड़कियों में काट देने को विवश होते रहते हैं।
तभी तो एक बार कोर्ट में मामला जाने पर 96 की उम्र तक लड़ते रहे हाशिम चचा। निराशा की पराकाष्ठा में ही उन्होंने कहा था कि "मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी...लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ. कुछ मायूसी है, हालात को देखते हुए. जो मुखालिफ़ पार्टियां चैलेंज कर रही हैं, उससे मायूसी है और हुकूमत कोई एक्शन नहीं लेती."
छह दशकों से ज़्यादा समय तक बाबरी मस्जिद की क़ानूनी लड़ाई लड़ने वाले हाशिम अंसारी का आज बुधवार को अयोध्या में अपने घर पर निधन हो गया।
हाशिम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे जो दशकों तक अपने धर्म और बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और क़ानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ते रहे ।
स्थानीय हिंदू साधु-संतों से उनके रिश्ते कभी ख़राब नहीं हुए और वे चचा के संबोधन को संवारते रहे उसे और गहराई देते रहे। मेरी तरह आपको भी साल रहा होगा हाशिम चचा का जाना।
इसी तरह पूर्व हॉकी कप्तान मोहम्मद शाहिद का जाना।
1980, 84 और 88 के लगातार तीन ओलंपिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम की कमान संभाल चुके एक विजेता का जाना।
हॉकी की दुनिया में ड्रिब्लिंग के बादशाह का जाना।
शाहिद लीवर और किडनी की समस्या से जूझ रहे थे और उनकी उम्र 56 वर्ष थी और 29 जून से मेदांता अस्पताल में भर्ती थे।
भारतीय खेल में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। मॉस्को ओलंपिक 1980 में आखिरी बार गोल्ड मेडल जीतने वाली टीम की कमान शाहिद के ही हाथों में थी। वह मूल रूप उत्तर प्रदेश के वाराणसी के निवासी थे। उन्हें 1981 में अर्जुन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। 1982 और 1986 एशियाड खेलों में सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल दिलाने में इस खिलाड़ी की अहम भूमिका रही थी।
कुछ दिन पहले बीमारी के दौरान उनके निधन की खबरें वायरल हो गई थीं, तब उनकी बेटी ने सफाई दी थी कि शाहिद का अभी इलाज चल रहा है। उनका निधन भारतीय हॉकी के लिए एक बड़ी क्षति है कम से कम उस समय जब हॉकी इंडिया अपनी वापसी करती दिख रही है।
बहरहाल दोनों शख्सियतों का जाना आज हमें कुछ संकल्पों के प्रति गंभीरता से सोचने के लिए और इन्हें लेकर प्रतिबद्धता बनाए रखने को प्रेरित कर रहा है ।
हाशिम चचा और शाहिद भाई को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।
- Alaknanda
96 वर्षीय हाशिम अंसारी और मोहम्मद शाहिद दोनों ही गंगा जमुनी तहजीब के रहनुमा। अफसोस होता है जब ऐसी शख्सियतें दुनिया से विदा होती हैं।
कभी हाशिम अंसारी ने बाबरी मस्जिद विवाद निपटने में बार बार आ रहे अड़ंगों से आजिज आकर अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि "मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी...लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ." यह उस विडंबना की बानगी है जो हमारी न्याय व्यवस्था हमें दिखाती रही है।
मुकद्दमों की बेतहाशा तादाद पर यूं तो कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री की मौजूदगी में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर ने इमोशनल होते हुए चिंता व्यक्त की थी और इन्हें द्रुत गति से निपटाने में सरकार से न्यायाधीशों कम संख्या का रोना भी रोया था।
हमको उनका इमोशनल चेहरा, पोंछते आंसू याद रह गये और वो अपनी इसी चिंता के मुखौटे के पीछे विदेशों में भारी भरमक खर्च के साथ पूरी गर्मियों की छुट्टियों के मजे लेते रहे। ये तो तब था जब वो स्वयं आंसू पोंछते हुए गर्मियों की छुट्टियों में कोर्ट केसेस निबटाने का वादा कर रहे थे।
हाशिम अंसारी जैसे सीधे सच्चे लोग, हमारे और आप जैसे लोग अपनी उम्र के ना जाने कितने दशक कोर्ट की फाइलों, वकीलों के बिस्तरों- केबिनों और पेशकार की झिड़कियों में काट देने को विवश होते रहते हैं।
तभी तो एक बार कोर्ट में मामला जाने पर 96 की उम्र तक लड़ते रहे हाशिम चचा। निराशा की पराकाष्ठा में ही उन्होंने कहा था कि "मैं फ़ैसले का भी इंतज़ार कर रहा हूँ और मौत का भी...लेकिन यह चाहता हूँ मौत से पहले फ़ैसला देख लूँ. कुछ मायूसी है, हालात को देखते हुए. जो मुखालिफ़ पार्टियां चैलेंज कर रही हैं, उससे मायूसी है और हुकूमत कोई एक्शन नहीं लेती."
छह दशकों से ज़्यादा समय तक बाबरी मस्जिद की क़ानूनी लड़ाई लड़ने वाले हाशिम अंसारी का आज बुधवार को अयोध्या में अपने घर पर निधन हो गया।
हाशिम अयोध्या के उन कुछ चुनिंदा बचे हुए लोगों में से थे जो दशकों तक अपने धर्म और बाबरी मस्जिद के लिए संविधान और क़ानून के दायरे में रहते हुए अदालती लड़ाई लड़ते रहे ।
स्थानीय हिंदू साधु-संतों से उनके रिश्ते कभी ख़राब नहीं हुए और वे चचा के संबोधन को संवारते रहे उसे और गहराई देते रहे। मेरी तरह आपको भी साल रहा होगा हाशिम चचा का जाना।
इसी तरह पूर्व हॉकी कप्तान मोहम्मद शाहिद का जाना।
1980, 84 और 88 के लगातार तीन ओलंपिक खेलों में भारतीय हॉकी टीम की कमान संभाल चुके एक विजेता का जाना।
हॉकी की दुनिया में ड्रिब्लिंग के बादशाह का जाना।
शाहिद लीवर और किडनी की समस्या से जूझ रहे थे और उनकी उम्र 56 वर्ष थी और 29 जून से मेदांता अस्पताल में भर्ती थे।
भारतीय खेल में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। मॉस्को ओलंपिक 1980 में आखिरी बार गोल्ड मेडल जीतने वाली टीम की कमान शाहिद के ही हाथों में थी। वह मूल रूप उत्तर प्रदेश के वाराणसी के निवासी थे। उन्हें 1981 में अर्जुन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। 1982 और 1986 एशियाड खेलों में सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल दिलाने में इस खिलाड़ी की अहम भूमिका रही थी।
कुछ दिन पहले बीमारी के दौरान उनके निधन की खबरें वायरल हो गई थीं, तब उनकी बेटी ने सफाई दी थी कि शाहिद का अभी इलाज चल रहा है। उनका निधन भारतीय हॉकी के लिए एक बड़ी क्षति है कम से कम उस समय जब हॉकी इंडिया अपनी वापसी करती दिख रही है।
बहरहाल दोनों शख्सियतों का जाना आज हमें कुछ संकल्पों के प्रति गंभीरता से सोचने के लिए और इन्हें लेकर प्रतिबद्धता बनाए रखने को प्रेरित कर रहा है ।
हाशिम चचा और शाहिद भाई को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि।
- Alaknanda
शनिवार, 16 जुलाई 2016
ये कैसा धर्म है जो इतना डरा हुआ है... जिसे हर बात-बेबात पर खतरा दिखाई देने लगता है ?
आज पाकिस्तानी मॉडल कंदील बलोच की हत्या से ना जाने कितने सवाल जहन में आ रहे हैं जो ये सोचने पर विवश कर रहे हैं कि आखिर इस्लाम के नाम पर, गैर मजहब के नाम पर, महिलाओं (औरत शब्द का प्रयोग मैं नहीं करूंगी क्योंकि इस शब्द का प्रयोग अरब देशों में महिला के जेनाइटल भाग को संबोधित करने के लिए किया जाता रहा है मगर उर्दू में आते-आते इसे महिलाओं के ही लिए प्रयोग किया जाने लगा) के नाम पर एक पूरा का पूरा धर्म इतना डरा हुआ क्यों है कि उसे सब अपने विरुद्ध जाते दिखाई दे रहे हैं।
क्यों उसके धर्म गुरू इतने भीरू हो गए हैं कि भटकी हुई सोच और हावी होती क्रूरता को वे कंट्रोल नहीं कर पा रहे।
दशकों से चलता आ रहा ये तंगदिली का खेल फतवों से आगे ही नहीं बढ़ पा रहा। यदि कहीं बढ़ रहा है तो वह हथियार, खूनखराबा, जो जहालत के नए नए प्रतिमान गढ़ रहा है, जो अपने लिए तमाम प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हुए सफाइयां तलाश रहा है। अपनी जाहिल सोच को जस्टीफाई करने पर आमादा है।
आखिर क्या वजह है कि पूरी दुनिया में जहां कहीं भी कत्लोआम और आतंकवादी वारदात होती हैं वहां बतौर गुनहगार कथित इस्लामपरस्त जरूर मौजूद होता है।
मैं देशों और आतंकवाद पर ना जाते हुए आज ही घटे क्रूर घटनाक्रम ''कंदील बलोच की हत्या '' के ही मुद्दे पर आती हूं. इसके मानने वाले इतने तंगदिल हैं कि कंदील बलोच के वीडियो को, उसकी सेंसेशनल बने रहने की ख्वाहिश को सहन नहीं कर पाए और उसे उसके अपनों ने ही मौत की नींद सुला दिया।
सोशल मीडिया पर चल रही खबरें बताती हैं कि कंदील के इस कथित ''गुनाह'' के कितने चाहने वाले थे जिसमें पुरुष ही नहीं औरतें भी हैं, सब पूछ रहे हैं कि 'आज़ाद ख्याल लड़की से क्या इस्लाम ख़तरे में था'।
क़ंदील बलोच की हत्या के बाद लोग सोशल मीडिया पर उन्हें याद कर रहे हैं। क़ंदील की हत्या उन्हीं के भाई ने कर दी है, पंजाब पुलिस ने इसकी पुष्टि की है।
पाकिस्तानी मीडिया इसे ऑनर किलिंग यानी सम्मान के नाम पर क़त्ल तो बता रहा है मगर उसकी डरपोक प्रवृत्ति उन कारणों की ओर रुख नहीं करती जो उस देश को जहालत के गर्त में धकेल रहे हैं। पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी क़ंदील बलोच की खबरें ट्विटर पर टॉप ट्रेंड हो रही हैं।
बहरहाल, पाकिस्तानी फ़िल्मकार शर्मीन ओबैद ने लिखा, "ऑनर किलिंग में क़ंदील बलोच की हत्या. हमारे ऑनर किलिंग विरोधी क़ानून बनाने से पहले कितनी महिलाओं को अपनी जान देनी होगी."
भारतीय अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने लिखा, "भ्रूण के रूप में लड़कियां बाप के हाथों मारी जाती हैं, सम्मान के नाम पर भाइयों के हाथों मारी जाती हैं और पत्नी के रूप में दहेज़ के लिए मारी जाती हैं.'
मीशा शफ़ी ने लिखा, "क्या आपने कभी सुना है कि किसी बहन ने अपने भाई की बैग़ैरती के लिए उसकी हत्या कर दी हो? नहीं. ये सम्मान का नहीं पितृसत्ता का मामला है."
मंसूर अली ख़ान ने लिखा, "प्रिय मीडिया, ग़ैरत (सम्मान) के नाम पर क़त्ल जैसी कोई चीज़ नहीं होती. ये वाक्य ही अपने आप में अपमानजनक है."
उमैर जावेद ने लिखा, "कैसा दयनीय छोटी सोच वाला देश है. हमें अपने आप पर ही शर्म आ रही है."
वहीं नज़राना गफ़्फ़ार ने लिखा, "उनके बेटे और पति की तस्वीरें प्रकाशित करने वाली मीडिया भी इसके लिए ज़िम्मेदार है. आपने भी उनके क़त्ल को उक़साया है."
महीन तसीर ने लिखा, "क़ंदील के बारे में लोगों के व्यक्तिगत विचार भले ही जो भी हों लेकिन क़त्ल को सही नहीं ठहराया जा सकता. उनके भाई को फ़ांसी होनी चाहिए."
सुंदूस रशीद ने लिखा, "एक पुरुष की इज़्ज़त महिला के शरीर में क्यों होती हैं?"
प्रमोद सिंह ने लिखा, "पाकिस्तानी मॉडल क़ंदील बलोच की हत्या.. ज़रा सा आज़ाद ख़याल वाली लड़की से भी इस्लाम खतरे में पड़ गया था!"
अजब है ये सोच। पाकिस्तान में क़दील बलोच के वीडियो को लोग ख़ूब देखते थे लेकिन उसे बुरा भी कहते रहे तो क्या कंदील पाकिस्तानी समाज का दोहरा चरित्र उजागर करती हैं? यूं भारत भी इस सोच से अलहदा नहीं है। भारतीय भी चाहते हैं चटपटे और सेंसेशनल वीडियो देखना साथ ही ये भी कि उनके घर की महिलायें इस बावत सोचें भी नहीं। मगर यह भी सच है कि भारत में हम बोल सकते हैं कि पुरुषों की ये दोहरी सोच स्वयं उन्हीं की कमजोरी जाहिर करती है, इसके ठीक उलट पाकिस्तान या किसी भी इस्लामिक देश में महिलाऐं बोलना तो दूर, वो अपनी भावनाएं जाहिर तक नहीं करा सकतीं। और जो कराने का साहस करती भी हैं उन्हें कंदील बलोच के हश्र को देखना होता है ।
अब वक्त आ गया है कि पूरी दुनिया में ''एक ही धर्म पर'' उसकी तंगदिली पर तमाम एंगिल से उठ रही उंगलियों की बावत मंथन हो, धर्म गुरू सोचें कि आखिर ''खून'' में डूबता-उतराता ये धर्म कब तक अपनी वकालत करेगा कि वह कट्टरपंथी नहीं है, वह शांति की बात करता है ।
- Alaknanda singh
क्यों उसके धर्म गुरू इतने भीरू हो गए हैं कि भटकी हुई सोच और हावी होती क्रूरता को वे कंट्रोल नहीं कर पा रहे।
दशकों से चलता आ रहा ये तंगदिली का खेल फतवों से आगे ही नहीं बढ़ पा रहा। यदि कहीं बढ़ रहा है तो वह हथियार, खूनखराबा, जो जहालत के नए नए प्रतिमान गढ़ रहा है, जो अपने लिए तमाम प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हुए सफाइयां तलाश रहा है। अपनी जाहिल सोच को जस्टीफाई करने पर आमादा है।
आखिर क्या वजह है कि पूरी दुनिया में जहां कहीं भी कत्लोआम और आतंकवादी वारदात होती हैं वहां बतौर गुनहगार कथित इस्लामपरस्त जरूर मौजूद होता है।
मैं देशों और आतंकवाद पर ना जाते हुए आज ही घटे क्रूर घटनाक्रम ''कंदील बलोच की हत्या '' के ही मुद्दे पर आती हूं. इसके मानने वाले इतने तंगदिल हैं कि कंदील बलोच के वीडियो को, उसकी सेंसेशनल बने रहने की ख्वाहिश को सहन नहीं कर पाए और उसे उसके अपनों ने ही मौत की नींद सुला दिया।
सोशल मीडिया पर चल रही खबरें बताती हैं कि कंदील के इस कथित ''गुनाह'' के कितने चाहने वाले थे जिसमें पुरुष ही नहीं औरतें भी हैं, सब पूछ रहे हैं कि 'आज़ाद ख्याल लड़की से क्या इस्लाम ख़तरे में था'।
क़ंदील बलोच की हत्या के बाद लोग सोशल मीडिया पर उन्हें याद कर रहे हैं। क़ंदील की हत्या उन्हीं के भाई ने कर दी है, पंजाब पुलिस ने इसकी पुष्टि की है।
पाकिस्तानी मीडिया इसे ऑनर किलिंग यानी सम्मान के नाम पर क़त्ल तो बता रहा है मगर उसकी डरपोक प्रवृत्ति उन कारणों की ओर रुख नहीं करती जो उस देश को जहालत के गर्त में धकेल रहे हैं। पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी क़ंदील बलोच की खबरें ट्विटर पर टॉप ट्रेंड हो रही हैं।
बहरहाल, पाकिस्तानी फ़िल्मकार शर्मीन ओबैद ने लिखा, "ऑनर किलिंग में क़ंदील बलोच की हत्या. हमारे ऑनर किलिंग विरोधी क़ानून बनाने से पहले कितनी महिलाओं को अपनी जान देनी होगी."
भारतीय अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने लिखा, "भ्रूण के रूप में लड़कियां बाप के हाथों मारी जाती हैं, सम्मान के नाम पर भाइयों के हाथों मारी जाती हैं और पत्नी के रूप में दहेज़ के लिए मारी जाती हैं.'
मीशा शफ़ी ने लिखा, "क्या आपने कभी सुना है कि किसी बहन ने अपने भाई की बैग़ैरती के लिए उसकी हत्या कर दी हो? नहीं. ये सम्मान का नहीं पितृसत्ता का मामला है."
मंसूर अली ख़ान ने लिखा, "प्रिय मीडिया, ग़ैरत (सम्मान) के नाम पर क़त्ल जैसी कोई चीज़ नहीं होती. ये वाक्य ही अपने आप में अपमानजनक है."
उमैर जावेद ने लिखा, "कैसा दयनीय छोटी सोच वाला देश है. हमें अपने आप पर ही शर्म आ रही है."
वहीं नज़राना गफ़्फ़ार ने लिखा, "उनके बेटे और पति की तस्वीरें प्रकाशित करने वाली मीडिया भी इसके लिए ज़िम्मेदार है. आपने भी उनके क़त्ल को उक़साया है."
महीन तसीर ने लिखा, "क़ंदील के बारे में लोगों के व्यक्तिगत विचार भले ही जो भी हों लेकिन क़त्ल को सही नहीं ठहराया जा सकता. उनके भाई को फ़ांसी होनी चाहिए."
सुंदूस रशीद ने लिखा, "एक पुरुष की इज़्ज़त महिला के शरीर में क्यों होती हैं?"
प्रमोद सिंह ने लिखा, "पाकिस्तानी मॉडल क़ंदील बलोच की हत्या.. ज़रा सा आज़ाद ख़याल वाली लड़की से भी इस्लाम खतरे में पड़ गया था!"
अजब है ये सोच। पाकिस्तान में क़दील बलोच के वीडियो को लोग ख़ूब देखते थे लेकिन उसे बुरा भी कहते रहे तो क्या कंदील पाकिस्तानी समाज का दोहरा चरित्र उजागर करती हैं? यूं भारत भी इस सोच से अलहदा नहीं है। भारतीय भी चाहते हैं चटपटे और सेंसेशनल वीडियो देखना साथ ही ये भी कि उनके घर की महिलायें इस बावत सोचें भी नहीं। मगर यह भी सच है कि भारत में हम बोल सकते हैं कि पुरुषों की ये दोहरी सोच स्वयं उन्हीं की कमजोरी जाहिर करती है, इसके ठीक उलट पाकिस्तान या किसी भी इस्लामिक देश में महिलाऐं बोलना तो दूर, वो अपनी भावनाएं जाहिर तक नहीं करा सकतीं। और जो कराने का साहस करती भी हैं उन्हें कंदील बलोच के हश्र को देखना होता है ।
अब वक्त आ गया है कि पूरी दुनिया में ''एक ही धर्म पर'' उसकी तंगदिली पर तमाम एंगिल से उठ रही उंगलियों की बावत मंथन हो, धर्म गुरू सोचें कि आखिर ''खून'' में डूबता-उतराता ये धर्म कब तक अपनी वकालत करेगा कि वह कट्टरपंथी नहीं है, वह शांति की बात करता है ।
- Alaknanda singh
शनिवार, 9 जुलाई 2016
पाकिस्तान में ईधी और कश्मीर में वानी: किसका इस्लाम सच्चा ?
एक मजहब, एक धरती, लगभग एक जैसा खानपान और तो और रवायतें भी एक जैसी मगर
जब एक आइने में इनकी दो तस्वीरें नज़र आऐं तो…तो क्या कीजिऐगा…
जी हां, आइना एक, शक्लें दो…ये हम पर है कि इंसानियत का कौन सा रूप है हमें देखना और दिखाना है ।
हम भारत में हैं तो बात पहले कश्मीर से शुरू करनी होगी। कश्मीर में कल मारे गए एक दहशतगर्द बुरहान वानी की मौत पर खून बहाने वाले कश्मीरी युवा, अलगाववादियों और आतंक के सरगनाओं द्वारा कश्मीर की हरी धरती को लाल करने की जिद ने मजहब का जो रंग व शक्ल दिखाई, वह उस शक्ल से एकदम अलग थी, एकदम विपरीत थी जो पाकिस्तान में आज समाजसेवी अब्दुल सत्तार ईधी के मरने के बाद दिखी। मजहब एक ही है मगर मकसद बदल जाने से उद्देश्य बदल गए और इसका इंसानियत से वास्ता भी बदल गया।
आइने का पहला एक रुख देखिए-
बीबीसी में वुसुतुल्लाह खान लिखते हैं- ”अब्दुल सत्तार ईधी के निधन की सूचना आने के बावजूद कराची के क़रीब तरीन इलाके खरादर के ईधी फाउंडेशन ट्रस्ट के कंट्रोल रूम में काम एक लम्हे के लिए भी नहीं रु का.
जहां-जहां से इमरजेंसी कॉल आ रही हैं, वहां-वहां एंबुलेंस ज़ख़्मी-बीमार लोगों को लेने आ-जा रही है.
अज़ीब लोग हैं जो शोक में तो डूबे हैं लेकिन एक मिनट भी अपना काम नहीं रोक पा रहे. कंट्रोल रूम का ऑपरेटर कॉलर्स को ये तक नहीं कह रहा है कि आज रहने दो, तुम्हारे मोहल्ले से कल लावारिस लाश उठा लेंगे. बस ईधी साहब का अंतिम संस्कार होते ही तुम्हारे बीमार के लिए एंबुलेंस रवाना कर देंगे.
कोई ये नहीं कह रहा कि आज कॉल मत करो, आज हम बंद हैं, सदमे से निढाल हैं. आज हमारे बाप का इंतकाल हो गया है.
पूरे पाकिस्तान के पौने चार सौ ईधी केंद्रों में कोई सरगर्मी एक पल के लिए भी नहीं रुकी, ऐसा लगता है ईधी साहब परलोक नहीं, बस कुछ दिनों के लिए विदेशी दौरे पर गए हैं.
इसे कहते हैं शो मस्ट गो ऑन.”
उक्त लफ्जों से उस एक अदना से दिखने वाले मगर पाकिस्तान जैसे उथल पुथल वाले देश में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ईधी फाउंडेशन के अध्यक्ष समाज सेवी अब्दुल सत्तार ईधी को श्रद्धांजलि दी जा रही है।
वहीं अब आइने का दूसरा रुख देखिए-
कश्मीर में बुरहान वानी के मरने के बाद सबसे पहले तो कश्मीर के ही पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ट्वीट करते हैं कि बुरहान ने जीते जी जो तबाही नहीं मचाई, वह उसकी मौत के बाद मचेगी… इसका अर्थ क्या लगाया जाए कि जिस देश का नमक खा रहे हैं कश्मीरी अलगाववादी, जिस देश के आमजन का टैक्स हजम किए जा रहे हैं कश्मीरी आतंकवादी, उसी देश के खिलाफ हथियार उठा रहे हैं और उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि समस्या राजनीतिक है, बुरहान जैसों का मरना कोई जलजला ले आएगा। नमक हलाली ना करने वालों को क्या कहते हैं, क्या ये भी बताना पड़ेगा। बुरहान जैसे गद्दारों और देश तोड़ने वालों के लिए जो लोग अपने आंसू जाया कर रहे हैं, क्या उन्हें उन पुलिसकर्मियों और सेना के जवानों की शहादत दिखाई नहीं देती जो एक कश्मीर को बचाने के लिए अपना खून बहा रहे हैं। आतंकियों की मौत को शहादत कहने वाले क्या अब भी नहीं समझ रहे कि आईएसआईएस भी अपने लड़ाकों को शहीद कहता है।
निश्चित जानिए कि भस्मासुरों की जमात चाहे कितना भी कहर बरपा ले मगर वो उस ओहदे को कभी हासिल नहीं कर सकती जो ओहदा इंसानियत की सेवा करने से हासिल होता है। इसीलिए आज भले ही बुरहान वानी के सरमाएदारों ने जूलूस निकाल कर कश्मीर में खूनी प्रदर्शन किया और उसे अलगाववादियों का समर्थन भी मिल रहा हो मगर वह वो इज्जत वो श्रद्धा कभी हासिल नहीं कर सकते जो अब्दुल सत्तार साहब ने बिना किसी की मदद के अपनी सेवा से हासिल की।
बहरहाल, अब ये तो हमें ही तय करना होगा कि समाज को बचाने वालों को ज्यादा अहमियत देनी है या उन बददिमागों को जो खून बहाने पर आमादा हैं।
सच तो यह है कि कश्मीर आज जिस मुकाम पर खड़ा है वहां से उसकी वापसी तभी संभव है जब दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कुछ कठोर निर्णय लिए जाएं और आतंकवादियों के साथ-साथ अलगाववादियों को भी अब तक के उनके किए की माकूल सजा दिलाई जाए अन्यथा पाकिस्तान में तो ईधी जैसे किसी शख्स की शक्ल में आइने के दो पहलू नजर भी आ रहे हैं, कश्मीर में आने वाली नश्लें उसके लिए भी तरस जाएंगी।
–Alaknanda singh
जी हां, आइना एक, शक्लें दो…ये हम पर है कि इंसानियत का कौन सा रूप है हमें देखना और दिखाना है ।
हम भारत में हैं तो बात पहले कश्मीर से शुरू करनी होगी। कश्मीर में कल मारे गए एक दहशतगर्द बुरहान वानी की मौत पर खून बहाने वाले कश्मीरी युवा, अलगाववादियों और आतंक के सरगनाओं द्वारा कश्मीर की हरी धरती को लाल करने की जिद ने मजहब का जो रंग व शक्ल दिखाई, वह उस शक्ल से एकदम अलग थी, एकदम विपरीत थी जो पाकिस्तान में आज समाजसेवी अब्दुल सत्तार ईधी के मरने के बाद दिखी। मजहब एक ही है मगर मकसद बदल जाने से उद्देश्य बदल गए और इसका इंसानियत से वास्ता भी बदल गया।
आइने का पहला एक रुख देखिए-
बीबीसी में वुसुतुल्लाह खान लिखते हैं- ”अब्दुल सत्तार ईधी के निधन की सूचना आने के बावजूद कराची के क़रीब तरीन इलाके खरादर के ईधी फाउंडेशन ट्रस्ट के कंट्रोल रूम में काम एक लम्हे के लिए भी नहीं रु का.
जहां-जहां से इमरजेंसी कॉल आ रही हैं, वहां-वहां एंबुलेंस ज़ख़्मी-बीमार लोगों को लेने आ-जा रही है.
अज़ीब लोग हैं जो शोक में तो डूबे हैं लेकिन एक मिनट भी अपना काम नहीं रोक पा रहे. कंट्रोल रूम का ऑपरेटर कॉलर्स को ये तक नहीं कह रहा है कि आज रहने दो, तुम्हारे मोहल्ले से कल लावारिस लाश उठा लेंगे. बस ईधी साहब का अंतिम संस्कार होते ही तुम्हारे बीमार के लिए एंबुलेंस रवाना कर देंगे.
कोई ये नहीं कह रहा कि आज कॉल मत करो, आज हम बंद हैं, सदमे से निढाल हैं. आज हमारे बाप का इंतकाल हो गया है.
पूरे पाकिस्तान के पौने चार सौ ईधी केंद्रों में कोई सरगर्मी एक पल के लिए भी नहीं रुकी, ऐसा लगता है ईधी साहब परलोक नहीं, बस कुछ दिनों के लिए विदेशी दौरे पर गए हैं.
इसे कहते हैं शो मस्ट गो ऑन.”
उक्त लफ्जों से उस एक अदना से दिखने वाले मगर पाकिस्तान जैसे उथल पुथल वाले देश में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ईधी फाउंडेशन के अध्यक्ष समाज सेवी अब्दुल सत्तार ईधी को श्रद्धांजलि दी जा रही है।
वहीं अब आइने का दूसरा रुख देखिए-
कश्मीर में बुरहान वानी के मरने के बाद सबसे पहले तो कश्मीर के ही पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ट्वीट करते हैं कि बुरहान ने जीते जी जो तबाही नहीं मचाई, वह उसकी मौत के बाद मचेगी… इसका अर्थ क्या लगाया जाए कि जिस देश का नमक खा रहे हैं कश्मीरी अलगाववादी, जिस देश के आमजन का टैक्स हजम किए जा रहे हैं कश्मीरी आतंकवादी, उसी देश के खिलाफ हथियार उठा रहे हैं और उमर अब्दुल्ला कह रहे हैं कि समस्या राजनीतिक है, बुरहान जैसों का मरना कोई जलजला ले आएगा। नमक हलाली ना करने वालों को क्या कहते हैं, क्या ये भी बताना पड़ेगा। बुरहान जैसे गद्दारों और देश तोड़ने वालों के लिए जो लोग अपने आंसू जाया कर रहे हैं, क्या उन्हें उन पुलिसकर्मियों और सेना के जवानों की शहादत दिखाई नहीं देती जो एक कश्मीर को बचाने के लिए अपना खून बहा रहे हैं। आतंकियों की मौत को शहादत कहने वाले क्या अब भी नहीं समझ रहे कि आईएसआईएस भी अपने लड़ाकों को शहीद कहता है।
निश्चित जानिए कि भस्मासुरों की जमात चाहे कितना भी कहर बरपा ले मगर वो उस ओहदे को कभी हासिल नहीं कर सकती जो ओहदा इंसानियत की सेवा करने से हासिल होता है। इसीलिए आज भले ही बुरहान वानी के सरमाएदारों ने जूलूस निकाल कर कश्मीर में खूनी प्रदर्शन किया और उसे अलगाववादियों का समर्थन भी मिल रहा हो मगर वह वो इज्जत वो श्रद्धा कभी हासिल नहीं कर सकते जो अब्दुल सत्तार साहब ने बिना किसी की मदद के अपनी सेवा से हासिल की।
बहरहाल, अब ये तो हमें ही तय करना होगा कि समाज को बचाने वालों को ज्यादा अहमियत देनी है या उन बददिमागों को जो खून बहाने पर आमादा हैं।
सच तो यह है कि कश्मीर आज जिस मुकाम पर खड़ा है वहां से उसकी वापसी तभी संभव है जब दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कुछ कठोर निर्णय लिए जाएं और आतंकवादियों के साथ-साथ अलगाववादियों को भी अब तक के उनके किए की माकूल सजा दिलाई जाए अन्यथा पाकिस्तान में तो ईधी जैसे किसी शख्स की शक्ल में आइने के दो पहलू नजर भी आ रहे हैं, कश्मीर में आने वाली नश्लें उसके लिए भी तरस जाएंगी।
–Alaknanda singh
गुरुवार, 7 जुलाई 2016
UP Election में BJP की ”चीता चाल” तो नहीं स्मृति को हटाना ?
कहीं UP Election 2017 के लिए ये एक चीता चाल तो नहीं, कहीं स्मृति
ईरानी को बड़ी जिम्मेदारी देने के लिए ही तो कम महत्व का मंत्रालय नहीं
दिया गया, कहीं अमेठी में राहुल गांधी को कड़ी टक्कर देने वाली स्मृति को
यूपी की कमान तो नहीं दी जा रही…?
ऐसे तमाम प्रश्न चुनावी पंडितों के जहन में तैर रहे हैं, लाजिमी भी है ऐसा होना क्योंकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय से हटाकर अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण कपड़ा मंत्रालय यदि प्रखर वक्ता और मीडिया में मोदी जी के बहुत करीबी मानी जाने वाली मंत्री को दे दिया जाए तो ये चर्चा तो होगी ही। लोग तो सोचेंगे ही कि आखिर उनके पर क्यों कतरे गए।
चुनावी विश्लेषक तो ये भी कह रहे हैं कि चीता सी चाल यानि ‘दो कदम आगे फिर एक कदम पीछे’ रहकर अटैक करने में विश्वास करने वाले प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, स्मृति ईरानी के लिए यूपी में किसी रोल की पटकथा तैयार कर चुके हों तो कोई हैरानी नहीं होगी।
मंत्रिमंडल विस्तार के बाद आए इस बड़े बदलाव पर भले ही स्मृति का कद छोटा करने की चर्चा आम हो गई पर राजनीतिक पंडित मानते हैं कि ये स्मृति ईरानी के पर कतरने नहीं, बल्कि पर फैलाने का इंतजाम किया गया है। इसकी वजह भी है कि कपड़ा मंत्रालय के जरिए रोजगार के सर्वाधिक अवसर और उत्तर प्रदेश में चुनावों तक इसे जमीन पर उतारना व इसके जरिए युवा वोटरों को भाजपा तक लेकर आना। इस पूरी कवायद में एक तो स्मृति का चेहरा, उनकी आक्रामकता और रोजगार… ये तीनों ही कारण निम्न वर्ग व मध्यम वर्ग के युवाओं को भाजपा के वोट में तब्दील कर सकते हैं।
इन पॉलिटिकल पंडितों की मानें तो स्मृति ईरानी की छवि जिस तरह से युवाओं में लगातार बढ़ रही है और जिस तरह से लोकसभा चुनाव से ही वह गांधी परिवार से उनके ही गढ़ में लोहा लेती रही हैं, उसे देखते हुए उन्हें यूपी महासमर का प्रणेता बनाया जा सकता है।
भाजपा लगातार यूपी के चुनावी महासंग्राम की न सिर्फ तैयारी में लगी है बल्कि विरोधी पार्टियों की चाल को भी पढ़ने में जुटी है। मंत्रिमंडल में फेरबदल इसी का नतीजा है व इसके बाद संगठन और संघ में भी फेरबदल इसी चाल को पढ़ कर किया जाने वाला है।
कांग्रेस द्वारा जिस तरह से यूपी के लिए प्रियंका वाड्रा के रूप में ब्रह्मास्त्र छोड़ने का लगभग ऐलान किया जाना तय माना जा रहा है, उसी तरह से भाजपा भी स्मृति को मुख्यमंत्री के तौर पर यूपी चुनाव में उतार सकती है, हालांकि अभी दोनों पार्टियां इनके लिए किसी भी तरह की घोषणा से बच रही हैं।
कुछ दिन पहले हुए भाजपा के एक आंतरिक सर्वे में भले ही वरुण गांधी और राजनाथ सिंह को यूपी की कमान संभालने पर बराबर का वोट मिला हो लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि स्मृति ईरानी ने भी वहां जबरदस्त प्रदर्शन किया था। एक असम को छोड़कर कई अन्य राज्यों की भांति भाजपा मुख्यमंत्री के लिए कोई एक नाम लेकर चलने की बजाय इन तीनों को ही लेकर चले तो भी अप्रत्याशित नहीं कहा जाएगा। ये उनकी पॉलिटकल स्ट्रेटजी भी रही है, इससे मुख्यमंत्री पद को लेकर आंतरिक कलह से बचा जा सकता है और हर प्रत्याशित व्यक्ति की क्षमताओं का भरपूर उपयोग भी किया जा सकता है ।
जहां तक बात स्मृति ईरानी की है तो लोकसभा चुनाव के दौरान अमेठी में वह भले ही राहुल गांधी से हार गईं थी लेकिन उस चुनाव में राहुल को अगर 4 लाख वोट मिले थे तो स्मृति भी 3 लाख वोट पाकर दूसरे स्थान पर रही थीं और चुनावों के बाद भी जितनी बार स्मृति अमेठी गई हैं उतनी बार राहुल गांधी नहीं गये।
अमेठी में लोकसभा चुनाव जैसा करिश्मा करने वाली वह पहली भाजपा नेता हैं। स्मृति के इस बढ़ते कद से कांग्रेस भी एक बार सकते में आ गई थी इसलिए भाजपा आलाकमान स्मृति ईरानी के इस करिश्मे को भुलाए बिना और कैश कराना चाहती है, इसके पूरे पूरे आसार है।
बहरहाल, अभी स्मृति के कद को छोटा करने की रणनीति को किसी पनिशमेंट के बतौर सोचना जल्दबाजी होगी, वह भी उत्तर प्रदेश जैसे राजनैतिक रूप से अतिमहत्वपूर्ण राज्य के आसन्न चुनावों को देखते हुए। यही वजह रही कि कल स्मृति से उनके मंत्रालय को लेकर टिप्पणी जब की गई तो उन्होंने लगभग ठहाका लगाते हुए कहा था कि कुछ तो लोग कहेंगे और मेरा व आपका (मीडिया) साथ तो और आगे बढ़ेगा ही।
ऐसे तमाम प्रश्न चुनावी पंडितों के जहन में तैर रहे हैं, लाजिमी भी है ऐसा होना क्योंकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय से हटाकर अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण कपड़ा मंत्रालय यदि प्रखर वक्ता और मीडिया में मोदी जी के बहुत करीबी मानी जाने वाली मंत्री को दे दिया जाए तो ये चर्चा तो होगी ही। लोग तो सोचेंगे ही कि आखिर उनके पर क्यों कतरे गए।
चुनावी विश्लेषक तो ये भी कह रहे हैं कि चीता सी चाल यानि ‘दो कदम आगे फिर एक कदम पीछे’ रहकर अटैक करने में विश्वास करने वाले प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, स्मृति ईरानी के लिए यूपी में किसी रोल की पटकथा तैयार कर चुके हों तो कोई हैरानी नहीं होगी।
मंत्रिमंडल विस्तार के बाद आए इस बड़े बदलाव पर भले ही स्मृति का कद छोटा करने की चर्चा आम हो गई पर राजनीतिक पंडित मानते हैं कि ये स्मृति ईरानी के पर कतरने नहीं, बल्कि पर फैलाने का इंतजाम किया गया है। इसकी वजह भी है कि कपड़ा मंत्रालय के जरिए रोजगार के सर्वाधिक अवसर और उत्तर प्रदेश में चुनावों तक इसे जमीन पर उतारना व इसके जरिए युवा वोटरों को भाजपा तक लेकर आना। इस पूरी कवायद में एक तो स्मृति का चेहरा, उनकी आक्रामकता और रोजगार… ये तीनों ही कारण निम्न वर्ग व मध्यम वर्ग के युवाओं को भाजपा के वोट में तब्दील कर सकते हैं।
इन पॉलिटिकल पंडितों की मानें तो स्मृति ईरानी की छवि जिस तरह से युवाओं में लगातार बढ़ रही है और जिस तरह से लोकसभा चुनाव से ही वह गांधी परिवार से उनके ही गढ़ में लोहा लेती रही हैं, उसे देखते हुए उन्हें यूपी महासमर का प्रणेता बनाया जा सकता है।
भाजपा लगातार यूपी के चुनावी महासंग्राम की न सिर्फ तैयारी में लगी है बल्कि विरोधी पार्टियों की चाल को भी पढ़ने में जुटी है। मंत्रिमंडल में फेरबदल इसी का नतीजा है व इसके बाद संगठन और संघ में भी फेरबदल इसी चाल को पढ़ कर किया जाने वाला है।
कांग्रेस द्वारा जिस तरह से यूपी के लिए प्रियंका वाड्रा के रूप में ब्रह्मास्त्र छोड़ने का लगभग ऐलान किया जाना तय माना जा रहा है, उसी तरह से भाजपा भी स्मृति को मुख्यमंत्री के तौर पर यूपी चुनाव में उतार सकती है, हालांकि अभी दोनों पार्टियां इनके लिए किसी भी तरह की घोषणा से बच रही हैं।
कुछ दिन पहले हुए भाजपा के एक आंतरिक सर्वे में भले ही वरुण गांधी और राजनाथ सिंह को यूपी की कमान संभालने पर बराबर का वोट मिला हो लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि स्मृति ईरानी ने भी वहां जबरदस्त प्रदर्शन किया था। एक असम को छोड़कर कई अन्य राज्यों की भांति भाजपा मुख्यमंत्री के लिए कोई एक नाम लेकर चलने की बजाय इन तीनों को ही लेकर चले तो भी अप्रत्याशित नहीं कहा जाएगा। ये उनकी पॉलिटकल स्ट्रेटजी भी रही है, इससे मुख्यमंत्री पद को लेकर आंतरिक कलह से बचा जा सकता है और हर प्रत्याशित व्यक्ति की क्षमताओं का भरपूर उपयोग भी किया जा सकता है ।
जहां तक बात स्मृति ईरानी की है तो लोकसभा चुनाव के दौरान अमेठी में वह भले ही राहुल गांधी से हार गईं थी लेकिन उस चुनाव में राहुल को अगर 4 लाख वोट मिले थे तो स्मृति भी 3 लाख वोट पाकर दूसरे स्थान पर रही थीं और चुनावों के बाद भी जितनी बार स्मृति अमेठी गई हैं उतनी बार राहुल गांधी नहीं गये।
अमेठी में लोकसभा चुनाव जैसा करिश्मा करने वाली वह पहली भाजपा नेता हैं। स्मृति के इस बढ़ते कद से कांग्रेस भी एक बार सकते में आ गई थी इसलिए भाजपा आलाकमान स्मृति ईरानी के इस करिश्मे को भुलाए बिना और कैश कराना चाहती है, इसके पूरे पूरे आसार है।
बहरहाल, अभी स्मृति के कद को छोटा करने की रणनीति को किसी पनिशमेंट के बतौर सोचना जल्दबाजी होगी, वह भी उत्तर प्रदेश जैसे राजनैतिक रूप से अतिमहत्वपूर्ण राज्य के आसन्न चुनावों को देखते हुए। यही वजह रही कि कल स्मृति से उनके मंत्रालय को लेकर टिप्पणी जब की गई तो उन्होंने लगभग ठहाका लगाते हुए कहा था कि कुछ तो लोग कहेंगे और मेरा व आपका (मीडिया) साथ तो और आगे बढ़ेगा ही।
- Alaknanda singh
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