लगभग दो दशक पहले की बात है जब संयुक्त परिवार बड़ी तेजी के एकल परिवारों
में बदल रहे थे। दादा- दादी की बंदिशों, उनके उपदेशों से पीछा छुड़ाकर इन
नए गढ़े परिवारों में स्वच्छंदता की एक अलग अनुभूति थी। जड़ों को छोड़ने पर
खुश होने वाले इन परिवारों को कहां पता था कि वे जिस पीढ़ी के सुख के लिए
ये सब कर रहे हैं, वह पीढ़ी संवेदनाओं से शून्य हो जाएगी। एक ओर मां-बाप
अपने अपने हिसाब से बच्चों की परवरिश करने, नित नए भौतिक साधनों से घरों को
भरने में लगे थे, घरों में इलेक्ट्रॉनिक्स आइटम्स की भीड़ बढ़ रही थी तो
दूसरी ओर खोए हुए रिश्ते अपने लिए घरों में एकमात्र कोना ढूढ़ते रह गए।
स्वच्छंदता भरी इस अंधी दौड़ में सब के सब बेतहाशा भागे जा रहे थे… क्या
बच्चे और क्या बड़े…। इस दौड़ में मगर जो बहुत पीछे छूटती जा रही थी, वह थी
संवेदनशीलता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि या तो जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं व्यक्ति को संवेदनहीन बना देती हैं या जरूरत से ज्यादा स्वच्छंदता अथवा बंधन, लेकिन ग्रेटर नोएडा की उस भीड़ में ऐसा कौन सा कारण मौजूद था जो 150-200 लोगों के हुजूम को संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक ले गया । क्यों सब के सब अपने मोबाइल से घटना की वीडियो क्लिपिंग बनाने में जुटे रहे, क्यों किसी ने उन अपराधियों को रोका नहीं जो संख्या में मात्र तीन या चार थे, उनके हाथों में कोई ऐसा हथियार भी नहीं था, उन्होंने एक आदमी को उसके बालों से पकड़ा हुआ था और उसका अपहरण करके गाड़ी में डाल रहे थे, वह व्यक्ति मदद के लिए चिल्ला रहा था मगर मदद तो दूर किसी ने पुलिस स्टेशन पर खबर तक करने की जरूरत नहीं समझी। भीड़ की इस बेहयाई के कारण अगले दिन उसकी लाश मिली।
दूसरा वाकया है बैंगलौर का है, जहां एक गाड़ी आकर रुकती है, एक लड़का पीछे से उतरता है और दिनदहाड़े ही लगभग 30-35 लोगों के सामने एक लड़की को पीछे से आकर पकड़ता है तथा खींचता हुआ अपनी गाड़ी में डाल लेता है, लड़की चिल्लाती है…मदद की गुहार लगाती है। आश्चर्य देखिए कि उसकी आवाज़ मौजू़द लोगों में से किसी के भी कानों तक नहीं पहुंचती, देखते सब रहते हैं। इस दुस्साहसिक घटना को पास से गुजरती एक औरत भी देखती है और पलभर में ही मुंह फेर लेती है। गोया कहीं कुछ घटित ही ना हुआ हो ।
बताइये इन दो घटनाओं को आप क्या कहेंगे, संवेदनहीनता, अभिव्यक्ति का मर जाना या मरे हुए लोगों से आशा करना कि वो अपनी संवेदनाओं के साथ किसी भी अनुचित और दुखद घटना का प्रतिरोध करेंगे। यही लोग जब किसी अपने के साथ कुछ बुरा घटित होते देखते हैं तो कहते हैं किसी ने हमारी मदद नहीं की, या लोग इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि किसी के साथ क्या घट रहा है, यह देखना भी जरूरी नहीं समझते। जब स्वयं दर्शक होते हैं तो भूल जाते हैं कि वे भी चुप बने रहे थे… क्यों, ये जानना इनके लिए जरूरी नहीं क्योंकि तब घटना का शिकार इनके अपने नहीं होते।
अतिवाद किसी का भी हो, भावनाओं का, अपेक्षाओं का, महात्वाकांक्षाओं का, कर्तव्यों का किसी भी जीवित कौम के लिए आत्मघाती होता है। संवेदनाओं के हर स्तर को ध्वस्त करने का सिलसिला बहुत पहले ही तभी शुरू हो चुका था जब परिवारों में विघटन एक आदत और फिर जरूरत बन गया। और आज ये अपने विकराल रूप में हमारे सामने है।
सरकारें चाहे कितने ही कानून बना लें, हम यानि आमजन उनके बनाए कानूनों में कितने ही लूपहोल्स निकाल लें मगर ये सत्य जो हमें दिखाई दे रहा है कि परिवार, संस्कार और संवेदनाएं सब के सब आधुनिकता और सिर्फ ”मैं” की भेंट चढ़ चुके हैं।
इस संदर्भ में इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमैनिटीज के छात्रों द्वारा किये गए एक सर्वे को यहां उद्धृत करना जरूरी है जिसमें कुल 30 बड़े शहरों व मझले शहर- ग्रामीण क्षेत्रों के हर वर्ग के परिवारों को शामिल किया गया। सबसे एक ही सवाल पूछा गया, कि ”आपके घर में आग लगी है, पड़ोस का एक बच्चा उसमें फंसा है, आप किसे पहले बचाऐंगे… स्वयं को या उस पड़ोसी के उस बच्चे को”। शहरी लोगों के 74% विचार पहले स्वयं को बचाने के थे जबकि ग्रामीण और छोटे शहरों के 75% लोगों ने पहले बच्चे को बचाने की बात कही।
इस सर्वे के आंकड़े ये बताने को काफी हैं कि अगर हमें स्वयं को और अपने बच्चों को सुरक्षित करना है तो पहले उन जीवन मूल्यों को बचाना होगा जो ”सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया” के आधार स्तंभ रहे हैं। देर नहीं हुई है, इन जीवन मूल्यों को अभी भी सहेजा जा सकता है बशर्ते सिर्फ ”मैं” से हटकर सोचने की प्रवृत्ति अपनाई जाए …बशर्ते ग्रेटर नोएडा हो या बैंगलौर, हम क्लिपिंग बनाने वाली भीड़ ना बनें,अपराधियों पर टूट पड़ने वाले हाथ बन जाएं।
-अलकनंदा सिंह
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि या तो जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं व्यक्ति को संवेदनहीन बना देती हैं या जरूरत से ज्यादा स्वच्छंदता अथवा बंधन, लेकिन ग्रेटर नोएडा की उस भीड़ में ऐसा कौन सा कारण मौजूद था जो 150-200 लोगों के हुजूम को संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक ले गया । क्यों सब के सब अपने मोबाइल से घटना की वीडियो क्लिपिंग बनाने में जुटे रहे, क्यों किसी ने उन अपराधियों को रोका नहीं जो संख्या में मात्र तीन या चार थे, उनके हाथों में कोई ऐसा हथियार भी नहीं था, उन्होंने एक आदमी को उसके बालों से पकड़ा हुआ था और उसका अपहरण करके गाड़ी में डाल रहे थे, वह व्यक्ति मदद के लिए चिल्ला रहा था मगर मदद तो दूर किसी ने पुलिस स्टेशन पर खबर तक करने की जरूरत नहीं समझी। भीड़ की इस बेहयाई के कारण अगले दिन उसकी लाश मिली।
दूसरा वाकया है बैंगलौर का है, जहां एक गाड़ी आकर रुकती है, एक लड़का पीछे से उतरता है और दिनदहाड़े ही लगभग 30-35 लोगों के सामने एक लड़की को पीछे से आकर पकड़ता है तथा खींचता हुआ अपनी गाड़ी में डाल लेता है, लड़की चिल्लाती है…मदद की गुहार लगाती है। आश्चर्य देखिए कि उसकी आवाज़ मौजू़द लोगों में से किसी के भी कानों तक नहीं पहुंचती, देखते सब रहते हैं। इस दुस्साहसिक घटना को पास से गुजरती एक औरत भी देखती है और पलभर में ही मुंह फेर लेती है। गोया कहीं कुछ घटित ही ना हुआ हो ।
बताइये इन दो घटनाओं को आप क्या कहेंगे, संवेदनहीनता, अभिव्यक्ति का मर जाना या मरे हुए लोगों से आशा करना कि वो अपनी संवेदनाओं के साथ किसी भी अनुचित और दुखद घटना का प्रतिरोध करेंगे। यही लोग जब किसी अपने के साथ कुछ बुरा घटित होते देखते हैं तो कहते हैं किसी ने हमारी मदद नहीं की, या लोग इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि किसी के साथ क्या घट रहा है, यह देखना भी जरूरी नहीं समझते। जब स्वयं दर्शक होते हैं तो भूल जाते हैं कि वे भी चुप बने रहे थे… क्यों, ये जानना इनके लिए जरूरी नहीं क्योंकि तब घटना का शिकार इनके अपने नहीं होते।
अतिवाद किसी का भी हो, भावनाओं का, अपेक्षाओं का, महात्वाकांक्षाओं का, कर्तव्यों का किसी भी जीवित कौम के लिए आत्मघाती होता है। संवेदनाओं के हर स्तर को ध्वस्त करने का सिलसिला बहुत पहले ही तभी शुरू हो चुका था जब परिवारों में विघटन एक आदत और फिर जरूरत बन गया। और आज ये अपने विकराल रूप में हमारे सामने है।
सरकारें चाहे कितने ही कानून बना लें, हम यानि आमजन उनके बनाए कानूनों में कितने ही लूपहोल्स निकाल लें मगर ये सत्य जो हमें दिखाई दे रहा है कि परिवार, संस्कार और संवेदनाएं सब के सब आधुनिकता और सिर्फ ”मैं” की भेंट चढ़ चुके हैं।
इस संदर्भ में इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमैनिटीज के छात्रों द्वारा किये गए एक सर्वे को यहां उद्धृत करना जरूरी है जिसमें कुल 30 बड़े शहरों व मझले शहर- ग्रामीण क्षेत्रों के हर वर्ग के परिवारों को शामिल किया गया। सबसे एक ही सवाल पूछा गया, कि ”आपके घर में आग लगी है, पड़ोस का एक बच्चा उसमें फंसा है, आप किसे पहले बचाऐंगे… स्वयं को या उस पड़ोसी के उस बच्चे को”। शहरी लोगों के 74% विचार पहले स्वयं को बचाने के थे जबकि ग्रामीण और छोटे शहरों के 75% लोगों ने पहले बच्चे को बचाने की बात कही।
इस सर्वे के आंकड़े ये बताने को काफी हैं कि अगर हमें स्वयं को और अपने बच्चों को सुरक्षित करना है तो पहले उन जीवन मूल्यों को बचाना होगा जो ”सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया” के आधार स्तंभ रहे हैं। देर नहीं हुई है, इन जीवन मूल्यों को अभी भी सहेजा जा सकता है बशर्ते सिर्फ ”मैं” से हटकर सोचने की प्रवृत्ति अपनाई जाए …बशर्ते ग्रेटर नोएडा हो या बैंगलौर, हम क्लिपिंग बनाने वाली भीड़ ना बनें,अपराधियों पर टूट पड़ने वाले हाथ बन जाएं।
-अलकनंदा सिंह