आज पत्रकारिता दिवस पर विशेष
"बिना लिबास आये थे इस जहां में...
बस एक कफ़न की खातिर इतना सफ़र करना पड़ा"
मुश्किल मंज़िलों के एक एक पायदान को पार करते हुए हिन्दी पत्रकारिता के जिस सफ़र की शुरुआत उदंत मार्तंड (The Rising Sun) के पं. जुगलकिशोर शुक्ल ने 30 मई 1826 को कोलकाता से की थी, उसके हर पायदान पर एक अलग गाथा लिखी हुई है।
आज यानि 30 मई, का बस एक दिन पत्रकारिता के उस पेशे के नाम किये जाने का रिवाज़ बन गया है जो गाहेबगाहे हमें यह अहसास दिलाता रहता है कि मार्केटिंग और छा जाने की लालसा के बीच भी सच ज़िंदा रहता ही है । इसीलिए तमाम पेशेगत अनिश्चितताओं के बावज़ूद सच को कहने और उसके प्रतिपरिणाम देखने व भोगने वाले आज भी पत्रकारिता की दुनिया में विचरण करते मिल जाते हैं । हां, चलिए एक पत्रकारिता दिवस के बहाने ही सही, आज ही के दिन हम उन चुनौतियों पर भी अपना मुंह भी बिसूर ही लेते हैं जो खाटी कॉमर्शियलाइज्ड होकर अपने लक्ष्य को भुलाती जा रही हैं।
आज के दिन हमें उन तल्ख़ हकीकतों से भी रूबरू होना होता है जो पत्रकारिता को बाजार में खड़ा रखने के लिए ज़रूरी होती हैं ।समय आगे बढ़ चुका है जिसमें बाजार और सच नाम की दो कश्तियां हैं और उन पर पांव रखकर सिर्फ एक ही व्यक्ति को चलना है जिसका नाम,ओहदा,धर्म और पहचान सिर्फ और सिर्फ पत्रकार है। निश्चित ही उदंत मार्तंड के संपादक पं.जुगलकिशोर शुक्ला की तरह एक साप्ताहिक के लिए भी धन का बंदोबस्त करने की मजबूरी वाले दिन अब नहीं रहे बल्कि मार्केटिंग से अपनी रीडरशिप सर्वे को चमकाने वाले और मीडियाघरानों के दिन हैं जो जब चाहे जैसे चाहे अपने वर्कर(पत्रकार नहीं) को 'यूज' कर सकते हैं। वो भी क्या करें वजू़द बचाकर रखना है , रेस में बने रहना है तो सारी स्ट्रेटजीज को भी कारपोरेटाइज करना ही होगा।
कुछ तल्ख सच्चाइयां 'कमाने' की भी है कि बिना धन के कोई कारोबार नहीं चलता,यहां तक कि उस पत्रकार का भी घर पैसे मांगता है। फिर अरबों के कारोबारियों से यह अपेक्षा भी बेमानी है कि वे सच के लिए लाभ कमाना छोड़ दें। यूं भी ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मूल मंत्र हैं, जो नहीं है उसका सपना दिखाना। इसके ठीक उलट है पत्रकारिता का मंत्र , जो छिपा रहा है उसे सामने लाना। दोनों के मंत्र एकदम उलट हैं। विज्ञापन झूठ बात को सच बताये तो पत्रकारिता सच को सामने लाये। दोनों का केरि बेरि का संग है...और संग है तो संपर्क में आने पर अंग फाटे ही फाटे,यह निश्चित है । इस दौर में सच पर झूठ हावी है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले को खबर लिखने वाले से बेहतर पैसा मिलता है। उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है। और बेहतर प्रतिभावान उसी दिशा में जाते हैं। आखिर उन्हें भी तो अपना घर चलाना है।
बहरहाल पत्रकारिता को अपनी चुनौतियों से स्वयं ही जूझना है,जिसमें मीडिया को निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे कुछ मूल्यों से बांधना ही होगा वरना क्रेडिबिलिटी की धज्जियां उड़ जायेंगीं । सनसनीखेज होने से ज्यादा जरूरी है भरोसेमंद होना और ये बात तो मीडिया घरानों के कारपोरेट मैनेजरों को भी समझनी होगी कि झूठ का कारोबार बढ़ता दिखता अवश्य है मगर अपनी जड़ों को खोखला करते हुये। तो दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में झाँके बिना और तथ्यों को तोड़े-मरोड़े बिना भी न केवल कमाया जा सकता है बल्कि अपने मूल्यों पर टिका भी रहा जा सकता है । आफ्टर ऑल! क्वांटिटी नहीं ,क्वालिटी मैटर रखती है। सारा खेल ही बैलेंस का जो है ।आज एक दिन ही सही, उस रास्ते के बारे में सोचा अवश्य जाना चाहिए जिससे कि पत्रकारिता के सिद्धांत भी ज़मींदोज़ ना हों और कारोबार भी चलता रहे ,बेहतरी की कोशिशें तो होनी चाहिये।
हर कोई यहां बिना लिबास ही आया है, एक कफ़न के लिए ज़मीर को बचाये रखना ज्यादा जरूरी है और किसी का हो ना हो, पत्रकारिता का ज़मीर से पहला नाता है।
- अलकनंदा सिंह
"बिना लिबास आये थे इस जहां में...
बस एक कफ़न की खातिर इतना सफ़र करना पड़ा"
मुश्किल मंज़िलों के एक एक पायदान को पार करते हुए हिन्दी पत्रकारिता के जिस सफ़र की शुरुआत उदंत मार्तंड (The Rising Sun) के पं. जुगलकिशोर शुक्ल ने 30 मई 1826 को कोलकाता से की थी, उसके हर पायदान पर एक अलग गाथा लिखी हुई है।
आज यानि 30 मई, का बस एक दिन पत्रकारिता के उस पेशे के नाम किये जाने का रिवाज़ बन गया है जो गाहेबगाहे हमें यह अहसास दिलाता रहता है कि मार्केटिंग और छा जाने की लालसा के बीच भी सच ज़िंदा रहता ही है । इसीलिए तमाम पेशेगत अनिश्चितताओं के बावज़ूद सच को कहने और उसके प्रतिपरिणाम देखने व भोगने वाले आज भी पत्रकारिता की दुनिया में विचरण करते मिल जाते हैं । हां, चलिए एक पत्रकारिता दिवस के बहाने ही सही, आज ही के दिन हम उन चुनौतियों पर भी अपना मुंह भी बिसूर ही लेते हैं जो खाटी कॉमर्शियलाइज्ड होकर अपने लक्ष्य को भुलाती जा रही हैं।
आज के दिन हमें उन तल्ख़ हकीकतों से भी रूबरू होना होता है जो पत्रकारिता को बाजार में खड़ा रखने के लिए ज़रूरी होती हैं ।समय आगे बढ़ चुका है जिसमें बाजार और सच नाम की दो कश्तियां हैं और उन पर पांव रखकर सिर्फ एक ही व्यक्ति को चलना है जिसका नाम,ओहदा,धर्म और पहचान सिर्फ और सिर्फ पत्रकार है। निश्चित ही उदंत मार्तंड के संपादक पं.जुगलकिशोर शुक्ला की तरह एक साप्ताहिक के लिए भी धन का बंदोबस्त करने की मजबूरी वाले दिन अब नहीं रहे बल्कि मार्केटिंग से अपनी रीडरशिप सर्वे को चमकाने वाले और मीडियाघरानों के दिन हैं जो जब चाहे जैसे चाहे अपने वर्कर(पत्रकार नहीं) को 'यूज' कर सकते हैं। वो भी क्या करें वजू़द बचाकर रखना है , रेस में बने रहना है तो सारी स्ट्रेटजीज को भी कारपोरेटाइज करना ही होगा।
कुछ तल्ख सच्चाइयां 'कमाने' की भी है कि बिना धन के कोई कारोबार नहीं चलता,यहां तक कि उस पत्रकार का भी घर पैसे मांगता है। फिर अरबों के कारोबारियों से यह अपेक्षा भी बेमानी है कि वे सच के लिए लाभ कमाना छोड़ दें। यूं भी ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मूल मंत्र हैं, जो नहीं है उसका सपना दिखाना। इसके ठीक उलट है पत्रकारिता का मंत्र , जो छिपा रहा है उसे सामने लाना। दोनों के मंत्र एकदम उलट हैं। विज्ञापन झूठ बात को सच बताये तो पत्रकारिता सच को सामने लाये। दोनों का केरि बेरि का संग है...और संग है तो संपर्क में आने पर अंग फाटे ही फाटे,यह निश्चित है । इस दौर में सच पर झूठ हावी है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले को खबर लिखने वाले से बेहतर पैसा मिलता है। उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है। और बेहतर प्रतिभावान उसी दिशा में जाते हैं। आखिर उन्हें भी तो अपना घर चलाना है।
बहरहाल पत्रकारिता को अपनी चुनौतियों से स्वयं ही जूझना है,जिसमें मीडिया को निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे कुछ मूल्यों से बांधना ही होगा वरना क्रेडिबिलिटी की धज्जियां उड़ जायेंगीं । सनसनीखेज होने से ज्यादा जरूरी है भरोसेमंद होना और ये बात तो मीडिया घरानों के कारपोरेट मैनेजरों को भी समझनी होगी कि झूठ का कारोबार बढ़ता दिखता अवश्य है मगर अपनी जड़ों को खोखला करते हुये। तो दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में झाँके बिना और तथ्यों को तोड़े-मरोड़े बिना भी न केवल कमाया जा सकता है बल्कि अपने मूल्यों पर टिका भी रहा जा सकता है । आफ्टर ऑल! क्वांटिटी नहीं ,क्वालिटी मैटर रखती है। सारा खेल ही बैलेंस का जो है ।आज एक दिन ही सही, उस रास्ते के बारे में सोचा अवश्य जाना चाहिए जिससे कि पत्रकारिता के सिद्धांत भी ज़मींदोज़ ना हों और कारोबार भी चलता रहे ,बेहतरी की कोशिशें तो होनी चाहिये।
हर कोई यहां बिना लिबास ही आया है, एक कफ़न के लिए ज़मीर को बचाये रखना ज्यादा जरूरी है और किसी का हो ना हो, पत्रकारिता का ज़मीर से पहला नाता है।
- अलकनंदा सिंह