सोमवार, 26 अगस्त 2013

तैयार हुआ हिंदू विश्वकोश

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दुनिया के सबसे प्रमुख धर्मों में से एक हिंदू धर्म के विश्वकोश का अगले हफ्ते साउथ कैरोलिना में लोकार्पण होगा। स्वामी चिदानंद द्वारा स्थापित इंडियन हेरिटेज रिसर्च फाउंडेशन इस विश्वकोश का जनक है। 25 वर्षों के अकादमिक प्रयासों से तैयार ग्यारह खंडों वाले इस कोश में हिंदू आध्यात्मिक मतों, परंपराओं और दर्शन का विस्तृत वर्णन है। यह अंग्रेजी में है। हिंदुवाद और इसके अनुशीलन से संबंधित इसमें करीब 7000 लेख हैं। इसमें भारतीय इतिहास, भाषाएं, कला, संगीत, नृत्य, वास्तुकला, औषधि और महिलाओं के मुद्दे की भी विस्तार से चर्चा है। इस पूरे इनसाइक्लोपीडिया में एक हजार से अधिक चित्र हैं।
हिंदू देवी देवताओं के चमचमाते रंगीन चित्रों से पूरे पेज भरे पड़े हैं। इन सबके नीचे देवताओं के रूप और उनकी शक्ति का वर्णन है। इस परियोजना से जुड़े साउथ कैरोलिना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हाल फ्रेंच ने कहते हैं कि इसका मकसद कुछ अच्छा एवं स्पष्ट तैयार करना था। यह केवल हिंदुवाद ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशियाई परंपराओं के बारे में है। फ्रेंच पहली बाद वर्ष 1987 में विद्वानों के एक ऐसे समूह से मिले थे जिसने इस परियोजना के लिए शैक्षिक सहयोग देने का प्रस्ताव दिया था। उनका कहना है यह शोध एक मील का पत्थर है जिसने पूर्वी और पश्चिमी पांडित्य को एक साथ लाया।
इसके प्रत्येक खंड में 600 से 700 पृष्ठ हैं। पहले संस्करण में इसकी करीब तीन हजार प्रतियां प्रकाशित की जा रही हैं। हिंदू धर्म विश्व का तीसरा सबसे बड़ा धर्म है और दुनिया भर में करीब एक अरब लोग इसे मानते हैं। इस विश्वकोष की प्रबंध संपादक और इंडियन हेरिटेज रिसर्च फाउंडेशन की सचिव साध्वी भगवती सरस्वती कहती हैं कि दुनिया के विभिन्न भागों में रहने वाले हिंदू अपने बच्चों के लिए धर्म के बारे में विस्तार पूर्ण जानकारी का स्रोत चाहते हैं। उनके लिए यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।

एक मुकम्‍मल घर तक नहीं हासिल

मैं अपने चश्‍मे से डरी हुई नैतिकता को जब ढहते देखती हूं, निरीह औरतों और बच्‍चियों का शरीर उधेड़ने वाले भेड़ियों को देखती - सुनती हूं... तो समझ नहीं आता है कि इस विषय पर किस कोण से अपनी बात रखूं कि सारी बातें कह पाऊं, कितना कुछ है कहने को..कितना कुछ है बताने को।जानती हूं कि जितना भी लिखूंगी कम ही लगेगा..दोहराया हुआ भी लग सकता है।
आदिकाल-वैदिककाल और न जाने कितने कालों के उदाहरण हमारे पुराणों में मौज़ूद हैं- ये बताने के लिए कि औरत चाहे विदुषी बन गई, शासक भी बनी, घर से बाहर तक सबकुछ संभाला, बच्‍चों से लेकर बूढ़ों तक को संभाला, मगर पुरुष की मानसिकता को इतना भी लिबरल नहीं बना पाई कि बता सके उसे कि मैं भी हूं...मेरी इच्‍छायें...और सांसें भी मेरे वज़ूद में घुली हैं....और तो क्‍या कहें औरत के लिए, जिसे अपना 'एक मुकम्‍मल घर' तक हासिल न हो पाया हो, वह आज हाथों में अगर नारे और बैनर लेकर अपने को खोज रही है..बता रही है तो ये सुखद परिवर्तन तो हैं ना। मैं मात्र इसी आशावाद से सुरक्षित महसूस कर पा रही हूं अगली पीढ़ी तक बड़ी होने वाली बेटियों का भविष्‍य..।
यूं बलात्‍कार जैसा अपराध तो पूरी दुनिया में और बहुत पहले से मौज़ूद है। अंतर अब इतना आया है कि घटनाओं पर से पर्दा उठने लगा है, अपराधी को अपराधी कहने का साहस कर पाई है औरत। महानगरों में ही सही, कह तो पा रही है कि इसमें मैं क्‍यों दोषी मानी जाऊं।
एक ओर मुंबई रेप केस की बखिया उधेड़ू बहस चल रही थी टीवी पर तभी मैंने एक डेनिश फिल्‍म मेकर की फिल्‍म देखी, ये इत्‍तिफ़ाक ही था कि उसका सब्‍जेक्‍ट भी मुंबई की घटना से मिलता जुलता था।
विदेशों में तो इस विषय पर न सिर्फ चर्चा होती है बल्‍कि हमारे बॉलीवुडिया मसालों से इतर हॉलीवुड भी बड़ा हिस्‍सेदार है ये बताने में समस्‍या का मूल कहां है और क्‍या हैं कारण। इन प्‍वाइंट्स पर फिल्‍मों ने बाकायदा एवार्ड तक जीते हैं। इनमें नैतिक अवमूल्‍यन की वजह और इसका सामाजिक बुनावट में हिस्‍सा आदि सब तय किया जाता है, इस पर चर्चा के बगैर नैतिकता के मानदंडों पर हायतौबा करना कुछ ठीक नहीं होगा।
तो जो फिल्‍म मैं देख रही थी उसके बारे में बताना चाहूंगी, हो सकता है आपमें से किसी ने देखी भी हो। अभी तक आपने सुना होगा 'ड्रग एडिक्ट', 'अल्कोहल एडिक्ट'। अब पढ़ने में आ रहा है कि 'लव एडिक्ट' भी होते हैं। एक फिल्‍ममेकर हैं डेनमार्क के ...नाम है परनील रोज ग्रॉंजिकर(Pernille Rose Gronkjier), उन्‍हीं की फिल्‍म आई है- 'लव एडिक्शन' जिसका प्यार से कुछ लेना-देना नहीं है, बल्कि शॉर्ट फिल्‍म है।
इस फिल्‍म की केंद्रीय भूमिका में है एक लव एडिक्‍ट, जिसका सम्बन्ध उपेक्षित बचपन और उससे उत्पन्न पीड़ा से है। उन्‍होंने फिल्‍म में बताया है कि किस तरह से 'अल्कोहल' और 'ड्रग' के मुकाबले 'लव एडिक्शन' से मुक्ति पाना सर्वाधिक कठिन है। इन एडिक्‍ट्स पर नेगेटिविटी जब हावी होती है तो बलात्‍कार जैसे कृत्‍य करते हैं।
इस संबंध में ग्रॉंजिकर कहते हैं-  They are those who are not worth loving.
ये 'लव एडिक्ट' वही लोग होते हैं जिन्होंने बचपन में घोर उपेक्षा, अकेलापन और प्यार में दुत्कार सहे होते हैं।
बहरहाल मनोविज्ञान चाहे कितने ही विश्‍लेषण कर ले मगर भुक्तभोगी का न तो कोई विश्‍लेषण होता है न ही इस से अपराध की गंभीरता कम हो जाती है। सोचने की बारी तो पुरुषों की है अब...





रविवार, 25 अगस्त 2013

My mom says...



My mom says that spoon feeding in infants affects gum/palate structure...also
natural and good bacteria in clean hands is good for digestion and immunity.

Idli dough will never raise unless you mix it with hands.
As first touch of a freind could make it relation deeper.

thanks to bacteria or so I am told that teach us a good thinking therapy of touching.
Indian culture is the best way to keep relation...that bacteria make it healthier.

thanks to mom also...that make possible easy way to life.
if hand touching convert to make disease then why the most popution make it in behaviour....tell me...

- Alaknanda singh

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कारों की घोषणा

नई दिल्‍ली। साहित्य अकादमी ने वर्ष 2013 के लिए 23 भाषाओं में युवा पुरस्कारों की घोषणा की, जिसमें 16 कविता संग्रह, एक उपन्यास, पांच कहानी संग्रह और एक साहित्यिक आलोचना की पुस्तक शामिल है।
अकादमी द्वारा यहां जारी विज्ञप्ति के अनुसार अर्चना भैसारे (हिन्दी), रवी कोरडे (मराठी), दिलीप कुमार झा लूटन (मैथिली), हरप्रीत कौर (पंजाबी), कुमार अजय (राजस्थानी), राजकुमार मिश्र (संस्कृत), विजय शंकर बर्मन (असमिया), शुभ्र बंद्योपाध्याय (बांग्ला), धीरज केसर निक्का (डोगरी), अशोक चावड़ा बेदिल (गुजराती), योगिनी बोरकार (कोंकणी), लाक्कुर आनंद (कन्नड़), अखोम यांदिबाला देवी (मणिपुरी), कतिर भारती (तमिल), सबा शाहीन (कश्मीरी) और मंत्री कृष्ण मोहन (तेलुगु) को कविता के लिए पुरस्कृत किया गया।
कहानी संग्रह के लिए जेनिस पेरियाट (अंग्रेजी), पीवी शाजी कुमार (मलयालम), सूरज धड़कन (नेपाली), क्षेत्रबसी नाइक (ओडिया) और लालचंद सारेन (संथाली) का चयन किया गया। साहित्यिक आलोचना के लिए मोइद रशीदी (उर्दू) और उपन्यास के लिए सानसुमै खंग्रि बसुमतारि (बोड़ो) को पुरस्कृत किया गया। इस साल सिंधी के लिए पुरस्कार नहीं दिया गया।
साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में कार्यकारी मंडल की बैठक में इन पुरस्कारों का अनुमोदन किया गया। ये पुरस्कार 1 जनवरी 2013 को 35 वर्ष आयु तक के लेखकों को दिये गये। पुरस्कार स्वरूप ताम्रफलक और पचास हजार रुपये का चेक बाद में आयोजित विशेष समारोह में प्रदान किया जायेगा।
- एजेंसी

शनिवार, 17 अगस्त 2013

Place of women in our vedic culture

Only Five Points Define

1."Women must be honored and adorned by their fathers, brothers, husbands, and brothers-in-law, who desire their own welfare. Where women are honored, there the gods are pleased; but where they are not honored, no sacred rite yields rewards. Where the female relations live in grief, the family soon wholly perishes; but that family where they are not unhappy ever prospers.

2.the men who seek (their own) welfare, should always honor women on holidays and festivals with (gifts of) ornaments, clothes and (dainty) food." (Manu Smriti III.55-59)

3.Grandfather Bhishma explained: "O ruler of the earth
 (Yuddhisthira) the lineage in which daughters and the daughters-in-law are saddened by ill treatment, that lineage is destroyed. When out of their grief these women curse these households, such households lose their charm, prosperity and happiness." (Mahabharata, Anushashanparva, 12.14)

4.  Atharva-Veda 14.1.43-44  says, when a woman is invited into the family through marriage, she enters "as a river enters the sea" and "to rule there along with her husband, as a queen, over the other members of the family."  This kind of equality is rarely found in any other religious scripture.

5.many a woman is more firm and better than the man who turns away from Gods, and offers not." (Rig-Veda, 5.61.6)  

--------Collected  By Alaknanda Singh

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

आखिरी पायदान की फितरतें

चंदे में भी धंधा करने वालों ने किस तरह नोबल कॉज़ को मिट्टी में मिला दिया है इसका जीता जागता उदाहरण हैं मेरी कॉलोनी के वे वरिष्‍ठ नागरिक जो उम्र के आखिरी पायदान पर खड़े हैं, रिटायर हो चुके हैं ।
कालोनी में इन्‍हीं वरिष्‍ठजनों को श्रीकृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी के लिए चंदा उगाही का काम सौंपा गया है।
सुबह सुबह ही चंदा मांगने आये इन वरिष्‍ठजनों को आज मना करके बड़ा सुकून मिला ।
जानते हैं क्‍यों?
ठहरिये बताती हूं...
हमें बचपन से अभी तक ये ही सिखाया गया था कि जो रिटायर हो जाये उसके साथ सहानुभूति और आदर के साथ पेश आना चाहिए, उसकी हर बात को सिर झुकाकर मान लेना चाहिए।
मगर चंदा मांगने आये उन वरिष्‍ठ महानुभावों की आपसी बातें अगर कोई भला आदमी सुन ले तो हैरान हुये बिना नहीं रह सकेगा। घृणित सोच और चंदे में भी भ्रष्‍टाचार किये जाने के तरीके व बचे हुये पैसे से किसतरह अय्याशी करके ठिकाने लगाना  है, की ट्रिक्‍स बताने वाले संवाद निश्‍चित ही ये सोचने पर विवश कर देने वाले थे कि क्‍या ये वही बुज़ुर्ग हैं जिनके लिए हमें उपदेशित किया जाता रहा है या जिनका सम्‍मान करने के लिए बड़े बड़े अभियान चलाये जाते हैं। 
मैं अच्‍छी तरह जानती हूं इन आदरणियों में 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो सरकारी कागजों में भले ही रिटायर हो गये हों मगर ना तो उनकी तृष्‍णायें शांत हुई हैं और ना ही आकांक्षायें, जब ओहदों पर विराजमान थे तब सरकारी सहूलियतों को खूब धोया और अब कालोनी के वाशिंदों को धो रहे हैं, उनकी शक्‍लें देखकर कोई नहीं कह सकता कि ये वही श्रद्धेय गुणीजन हैं जिनके पैर छूने को कहा जाता है,आज वही चंदे के धंधे के मास्‍टरमाइंड के रूप में हमारे सामने हैं।
क्‍या सिक्‍के के इस दूसरे पहलू को हम अपनी आने वाली पीढ़ी के सामने हकीकत रख पायेंगे या उन्‍हें बताने का साहस करेंगे कि उम्र देखकर नहीं सीरत देखकर पहचानें कि व्‍यक्‍ति श्रद्धा का पात्र है भी या नहीं....अंधानुकरण तो किसी का भी ठीक नहीं... ।
आप कैसे सुझायेंगे अपने बच्‍चों को बुजु़र्गों का सम्‍मान करना...मुझे भी बतायें ताकि उपरोक्‍त बातें मेरे भी ज़हन से निकल सकें।
   

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

कठपुतलियां एक हो रही हैं


वह 15 मार्च 2012 का दिन था जब उत्‍तर प्रदेश का भविष्‍य किसी नौजवान मुख्‍यमंत्री के हाथों में देख  प्रदेश के हर वर्ग में कुछ अपेक्षाओं ने जन्‍म लिया था कि कम से कम अब तो पूरे प्रदेश को हाथियों की  मूर्तियों से... तानाशाहीपूर्ण कुशासन से......सारी कुव्‍यवस्‍थाओं के लिए राज्‍य सरकार द्वारा केंद्र को और  केंद्र द्वारा राज्‍य सरकार को कोसने वाले बदहाली के राग गायन से मुक्‍ति मिलेगी।
लेकिन महज डेढ़ साल में ही सत्‍तारूढ़ सपा ने कुछ पाया हो या ना पाया हो मगर मुख्‍यमंत्री अखिलेश  यादव प्रशासनिक उद्दंडता पर रोने और अपनी लाचारी का ढिंढोरा पीटने वाले मंत्रियों के सुर में सुर जरूर  मिलाने लगे हैं।
ये तो शासन की बदगुमानी ही कही जायेगी कि एक ओर प्रशासनिक अफसरों को हद में रहने की  हिदायत दी जाती है तो दूसरी ओर उनके काम न करने पर चार-चार आंसू बहाये जाते हैं। अराजकता का  ऐसा माहौल कि प्रदेश में किसी भी क्षेत्र के विकास की कामना ज़मींदोज़ हुई जा रही है...वह एक  दिवास्‍वप्‍न बन गई है।
तानाशाही और अफरातफरी का ऐसा आलम कि अफसरों के 'परों' को काटकर कहा जा रहा है कि किसी  भी तरह तुन्‍हें उड़ना तो होगा और 'सिर्फ' लोकसभा चुनाव तक हिन्‍दू बनाम मुसलमान का भय फैलाते  हुए इसी अराजकता को कैश करने का माहौल बनाये रखना होगा।
ताज़ा मामला युवा आईएएस अफसर और नोएडा की एसडीएम दुर्गा शक्‍ति नागपाल का है।
जहां राई भी ना हो वहां पूरा का पूरा पहाड़ खड़ा कर देने की काबिलियत रखने वाले हमारे नेता अपने  स्‍वार्थ में किस कदर अफसरशाही का प्रयोग करते हैं, इसकी ज्‍वलंत मिसाल है दुर्गाशक्‍ति का मामला।
बहरहाल, अब इलाहाबाद हाईकोर्ट में दुर्गाशक्‍ित के लिए दायर याचिका पर सुनवाई होनी है, तब तक कुछ  भी कहना उचित नहीं होगा।
फिलहाल वे सस्‍पेंड हैं और मंथन का केंद्रबिंदु बनी हुई हैं...सत्‍तारूढ़ सराकार थोड़ी चिंतित है कि अब तक  उसके इशारों पर नाचने वाली प्रशासनिक कठपुतलियां दुर्गाशक्‍ित के पक्ष में एक हो रही हैं और अफसर  मंथन कर रहे हैं कि सर्वोच्‍च प्रतिष्‍ठा वाली सर्विस की आन कैसे बचाई जाये।
यूं कहा जा सकता है कि दुर्गा तो महज माध्‍यम बन गईं हैं। दरअसल अफसरों व नेताओं द्वारा एक दूसरे  को ''यूज'' करने की उठापटक का ये खेल अब निर्णायक मोड़ पर आ गया है।
इस बीच आईएएस लॉबी का भी विचारमंथन सकारात्‍मक दिशा में जाते हुए देखना सचमुच आने वाले  समय की दिशा व दशा दिखा रहा है कि वह कम से कम किसी मुद्दे पर एकराय तो हुए और उन्‍हीं के  बीच से लालची अफसरों को ठीक करने की आवाजें तो उठीं।
अब देखना यह होगा कि राजनेताओं के इशारों पर नाचने वाले अफसर अपने आकाओं को क्‍या सही राह  दिखा पाते हैं अथवा चंद दिनों बाद उसी रटी-रटाई राह पर चल पड़ते हैं जिसके वो लगभग आदी हो गये  हैं।
 - अलकनंदा सिंह