सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

इसे द‍िवाली नहीं दीवाली बोल‍िए...

 
आज कल अख़बारों में ‘दीवाली’ को ‘दिवाली’ ल‍िखा जाता है जबक‍ि सही शब्द है–दीवाली। 

असल में ‘दीवाली’ का दिवालिया निकले दस-बारह बरस से ज़्यादा नहीं हुए हैं और हमारे ज़िम्मेदार अख़बारों ने ही यह काम किया है, क्योंकि पुस्तक सहित कई और दूसरे लेखन में ‘दीवाली’ का सही रूप अभी तक लिखा जाता रहा है।   

यों बोलचाल में देशज प्रयोग ‘दिवाली’ हम सुन सकते हैं, पर पढ़े-लिखे लोग लिखने-बोलने में सही रूप का प्रयोग करेंगे तो अन्ततः यही हिन्दी के हित में होगा। दुर्भाग्य यह है कि हम अपनी ही भाषा के शब्द के लिए वर्तनी निर्धारण अँग्रेज़ी में लिखे जा रहे DIWALI के आधार पर करने लगते हैं और आई (I) देखकर ‘दीवाली’ के ‘द’ पर छोटी ‘इ’ की मात्रा तय कर देते हैं।

मूल शब्द है, दीप। बताने की ज़रूरत नहीं है कि दीप का मतलब दीया। ‘दीप’ में जुड़ा ‘आलि/आली’ (कतार, शृङ्खला) तो बना ‘दीपालि/दीपाली’। ‘आवलि’ या ‘आवली’ जोड़िए तो ‘दीपावलि’ या ‘दीपावली’। ‘दीप’ में ‘माला’ जुड़ा तो ‘दीपमाला’। ‘मालिका’ जोड़िए तो ‘दीपमालिका’। अर्थ वही है। हिन्दी के स्वभाव के हिसाब से ‘दीपाली’ और ‘दीपावली’ का सहज परिवर्तन ‘दीवाली’ है। 

महादेवी वर्मा की कृति ‘दीपशिखा’ की यह पंंक्त‍ि पढ़िए—इस मरण के पर्व को मैं आज दीवाली बना लूँ। 

सोहनलाल द्विवेदी को पढ़िए—राजा के घर, कँगले के घर/हैं वही दीप सुन्दर सुन्दर/दीवाली की श्री है पग-पग/जगमग जगमग जगमग जगमग! वैसे कविताओं में ‘दीवाली’ और ‘दिवाली’ दोनों मिलेंगे, क्योंकि लय के हिसाब से मात्राओं की कमर थोड़ी लचकाने की ज़रूरत पड़ सकती है।

‘दीवाली’ चाहें तो ‘दीवा’ से भी बना सकते हैं, इसलिए कि ‘दीवा’ की कुण्डली भी संस्कृत के पास मौजूद है। ‘दीवा’ का अर्थ है ‘दीप’ या ‘दीया’, जबकि ‘दिवा’ का अर्थ है दिन। इसी ‘दिवा’ से ‘दिवाकर’ बना है, जिसका अर्थ है सूर्य। संस्कृत का दीप ही ‘दीया’ और ‘दीवा’ तक पहुँचा। ‘दीया’ हमारे अवध में आज भी ‘दीया’ ही है। ‘दीया’ से ‘दियना’, ‘दियरा’, ‘दिवना’ और छोटे दीये के लिए ‘दियरी’ तो बन गया, पर ‘दिया’ नहीं बना, क्योंकि लोगों को पता है कि हम ‘दिया’ को क्रिया के रूप में इतना इस्तेमाल करते हैं कि भ्रम की सम्भावना ज़्यादा बढ़ जाएगी। छूट सिर्फ़ कविताओं के लिए है या कुछ शब्द-संयोगों के लिए। जैसे कि ‘दीया’ में ‘सलाई’ जोड़कर शब्द बना ‘दीयासलाई’ (दीपशलाका) और फिर ‘दियासलाई’।

संस्कृत के शब्द प्राकृत में बिगड़कर आए हैं, पर वहाँ भी ‘दीवाली’ ही मिलेगा, ‘दिवाली’ नहीं। कुछ लोगों का तर्क है कि यह एक नाम है, इसलिए दिवाली लिखना सही है। अब बात यह कि नाम है तो नाम ही रहना चाहिए न! नाम को तो और भी दृढ़ता के साथ बिगड़ने से बचाना चाहिए। आख़िर किसने कह दिया कि नाम ‘दीवाली’ नहीं ‘दिवाली’ है? 

सही बात यही है कि ‘दिवाली’ अमानक प्रयोग है, पर जब चलाया ही जाएगा तो ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’ की तरह आम लोग भी इसे ही मानक मान लेंगे। 

अच्छा है कि हम शब्दों के सही रूप को यथाशक्य अपनाएँ और अपनी भाषा को अराजक होने से बचाएँ। हमारे अख़बार चाहें तो एक साफ़-सुथरी भाषा आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकते हैं।

बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

ये पोस्ट उनके ल‍िए जो #RatanTata का अंधसमर्थन कर ब‍िछे जा रहे हैं


 रतन टाटा के हाथ में जब टाटा समूह का नेतृत्व आया तो उन्होंने आर्ट के नाम पर 'न्यूड‍िटी'  को प्रमोट करने वाले  #PAG यानी "प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप" को खुले हाथ से संरक्षण द‍िया और भारतीय संस्कृत‍ि को आर्ट के जर‍िए प्रदर्श‍ित करने वाले  #बंगाल_स्कूल_ऑफ_आर्ट को खत्म कर दिया । 

इसी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के पेंटर थे, हेब्बार, शुजा, रजा और मकबूल फिदा हुसैन। यह सत्य टाटा स्टील चेयरमैन रूसी मोदी ने बताया था, ज‍िन्हें बाद में नाइत्तफिाकी के चलते रतन टाटा ने टाटा स्टील से न‍िकाल बाहर क‍िया था। 

ये देख‍िए उन प्रोग्रेस‍िव कलाकारों की कुछ कलाकृत‍ियां जो अरबप‍ितयों के ड्रॉइंग रूम्स की शोभा बनीं। 



F. N. Souza, Self Portrait,1949, Oil on board.
 












.N Souza, Mithuna 

 
Akbar Padamsee. Lovers, 1952. Oil on board. H. 62 x W. 32 in. (157.5 x 81.3 cm). Collection Amrita Jhaveri.







F.N. Souza. Temple Dancer, 1957



नई पीढ़ी को यह सच भी जानना जरूरी है 

इसी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के पेंटर्स द्वारा अध‍िकतम न्यूड पेंट‍िंग्स बनाई गईं और ज‍िनकी कीमत लाखों से शुरू होकर करोड़ों तक में गई। उस समय आर्थ‍िक अपराध के ल‍िए मनीलॉड्र‍िंग जैसा शब्द आमजन के जुबान पर नहीं था और सांस्कृत‍िक सोच भी वामपंथ की कैद में थी इस ल‍िए इन सभी च‍ित्रकारों को कला के नाम पर भगवान की तरह पूजा जाने लगा। हम भारतीय सभ्यता को न्यूड‍िटी के हाथों कुचलता देखते रहे एकदम शून्य भाव से। हम नहीं समझ सके क‍ि ये प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट दरअसल कला का पराभव है। 

अपनी सफाई में इन्होंने हमेशा खजुराहो को सामने कर द‍िया परंतु ये नहीं बताया क‍ि वे काम क्रीड़ा के आसन थे जो योग की श्रेणी में आते हैं।


बहरहाल क‍िसी भी शख्स‍ियत के दो चेहरे होते हैं, रतन टाटा के भी थे, हमें उन दोनों चेहरों को देखकर अपना आंकलन स्वयं करना चाह‍िए क‍ि हम कहां तक इसे देश, संस्कार, और भारतीय सभ्यता के ह‍ित में देखते हैं।   

K.H. Ara, Untitled (Large Nude), 1965. Oil on canvas. H. 68 7/8 x W. 27 1/2 in. (175 x 70cm). Collection of Jamshyd and Pheroza Godrej. Courtesy of the lender. - अलकनंदा स‍िंंह


सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

"ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर 'गरबा' करते देखना आहत कर गया


 आज एक वीडियो "ओ मुझे प्यार हुआ अल्ला मीयाँ" फिल्मी गाने पर लोगों को 'गरबा' करते देखा, हृदय आहत हुआ। 'गरबा' क्या है ? यह श्री विपुल नागर ©vipulnagar ने बखूबी बताया।

वैसे गरबा के नाम पर सिर्फ और सिर्फ कमर मटका रहे देश को फ़र्क नहीं पड़ेगा लेकिन जिन्हें गरबा का असली मतलब जानना हो उनके लिए सनद रहे- 

मूल गरबो शब्द पात्रवाचक था। 

इस शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के गर्भदीप से हुई है। एक मत के अनुसार ‘‘दीप- गर्भ: घट:’’ में से दीप शब्द हट गया और गर्भ:घट: का अपभ्रंश गरबो प्रचलित हुआ। दूसरे मत के अनुसार गर्भ शब्द का ही अर्थ घड़ा होता है। (गर्भेषु पिहितं धान्यं)। छेद वाले घड़े को गरबो कहा जाता है। मिट्टी के छोटे घड़े या हाँडी में बहुत से छिद्र (चौरासी या 108 छिद्र होने का भी उल्लेख मिलता है) करके उसमें दीपक रखा जाता है। घड़े में छेद करने की इस क्रिया को ‘‘गरबो कोराववो’’ कहा जाता है। 

84 छिद्र वाला गरबो 84 लाख योनियों का प्रतीक है जबकि 108 छिद्र वाला गरबो (मिट्टी का घड़ा) ब्रह्मांड का प्रतीक है। इस घड़े में 27 छेद होते हैं - 3 पंक्तियों में 9 छेद - ये 27 छेद 27 नक्षत्रों का प्रतीक होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं (27 * 4 = 108)। नवरात्रि के दौरान, मिट्टी का घड़ा बीच में रखकर उसके चारों ओर गोल घुमना ऐसा माना जाता है जैसे हम ब्रह्मांड के चारों ओर घूम रहे हों। यही 'गरबा' खेलने का महत्व है।

यह हाँडी या तो मध्यभूमि में रखी जाती है या किस महिला को बीच में खड़ा करके उसके सिर पर रखी जाती है, जिसके चारों ओर अन्य महिलाएँ गोलाई में घूम कर गरबो गाती हैं। दीप को देवी अथवा शक्ति का प्रतीक मान कर उसकी प्रदक्षिणा की जाती है। 

कालान्तर में इस नृत्य और गीत का नाम भी गरबो पड़ गया। इस प्रकार गरबो का अर्थ वह पद्य हो गया, जो वृत्ताकार घूम-घूम कर गाया जाता है।

पात्रवाचक से क्रियावाचक गीत वाचक या काव्य वाचक बनने से पहले गरबो शब्द अनेक सांस्कृतिक भूमिकाओं से गुजरा है। 

गरबो के प्रथम लेखक वल्लभ मेवाड़ा माने गये हैं। (१६४० ई. से १७५१)। स्थूल या पात्र-वाचक गरबे का वर्णन उन्होंने अपने गरबे मां ए सोना नो गरबो लीधो, के रंग मा रंग ता़डी में किया है। 

सौ. चैतन्य बाला मजूमदार ने अपनी पुस्तक ललित कलाओं अने बीजा साहित्यलेखो में इस प्रक्रिया का बहुत सुन्दर आकलन किया है। उनके अनुसार– नवरात्रि में स्थापित कलश, अखण्ड ज्योति बिखेरता गरबा हुआ; इस गरबे को मध्य में स्थापित कर सुहागिनों ने उसमें स्थापित ज्योति स्वरूप शक्ति का पूजन किया एवं परिक्रमा आरम्भ की; इस प्रकार पूजित गरबो को भक्ति के आवेश की वृद्धि के साथ-साथ माथे पर रख कर घूमने की वृत्ति जागी और सुन्दरियाँ अपने गरबे को सिर पर रख कर गोलाई में घूमने लगीं; भाव की वृद्धि हुई, जिसे प्रगट करने की सहज वृत्ति में उनके कंठ से स्वर फूटे, भाषा की सहायता से ये स्वर पद्य बने, परन्तु इतने से ही हृदय का आवेश पूरा-पूरा व्यक्त नहीं हो सका। 

सर पर गरबा रख कर गीत गाते-गाते घूमते हुए हाथ, पैर, नेत्र, वाणी सभी को एक दिशा मिली। 

सब अंग नृत्य करने लगे। 

गीत, संगीत और नृत्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ और इस प्रकार एक नयी विधा का जन्म हुआ, जो गुजरात का प्रतिनिधि लोकनृत्य बन गया।

और अब तो देश में सब नाच रहे हैं। सिर्फ नाच रहे हैं!

साभार: फेसबुक से 

बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

ब्रज का सांझी उत्सव, आज हुआ समापन, सूखे रंगों की साँझी ने मनमोहा

 वृन्दावन के मंदिरों में आजकल तरह-तरह की सांझी उत्सव सज रही है। भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से सांझी उत्सव प्रारंभ होता है जो कि भाद्रपद कृष्ण अमावस्या (श्राद्धपक्ष में 15 दिनों ) तक चलता है। आज इसका समापन हो गया है। 

ये देख‍िए सूखे रंगों की साँझी






'जुगल जोड़ी', 'श्रीकृष्ण रास' और 'श्रीराम का राजतिलक', ये तीनों सूखे रंगों की पारम्परिक साँझी ग्वालियर के युवा कलाकार यमुनेश नागर ने बनाई हैं। प्रत्येक साँझी में ६ से ८ साँचे, एक के बाद एक रख कर, अलग अलग रंग डाले गये हैं।

यमुनेश नागर ग्वालियर आकाशवाणी पर बी हाई ग्रेड का पखावज वादक भी हैं।


ये है सांझी उत्सव मनाने का असली कारण

वैष्णव जन के हर घर के आंगन और तिबारे में बनाने की परंपरा है। राधारानी अपने पिता वृषभान के आंगन में सांझी पितृ पक्ष में प्रतिदिन सजाती थी। उनके भाई एवं परिवार का मंगल हो इसके लिए फूल एकत्रित करते थे और इसी बहाने श्री राधा कृष्ण का मिलन होता था। कन्याएं एवं रसिक भक्त जन आज भी पितृ पक्ष में अपने घरों में गाय के गोबर से सांझी सजाती हैं। इसमें राधा कृष्ण की लीलाओं का चित्रण अनेक संम्प्रदाय के ग्रंथों में मिलता है। ऐसा विश्वास है कि श्री राधा कृष्ण उनकी सांझी को निहारने के लिए अवश्य आते हैं।


शुरू में पुष्प और सूखे रंगों से आंगन को सांझी से सजाया जाता था। अब समय के साथ सांझी सिर्फ सांकेतिक रह गई है। 

सरस माधुरी काव्य में सांझी का कुछ इस तरह उल्लेख किया गया है। 

सलोनी सांझी आज बनाई, 

श्यामा संग रंग सों राधे, रचना रची सुहाई। 

सेवा कुंज सुहावन कीनी, लता पता छवि छाई। 

मरकट मोर चकोर कोकिला, लागत परम सुखराई।

- अलकनंदा स‍िंंह 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2024

सत्य तो यह है, हम अनपढ़ ही हैं वरना अपने हाथों से क्यों म‍िटाते अपनी पहचान



 मिट्टी..दर्री है या चिकनी? बर्तन कैसे बनेंगे? चके पर कितना उठेंगे? आग पर फटेंगे या नहीं? किससे घड़ा और किस मिट्टी का बर्तन भोजन पकाने के काम आएगा? ऐसे बहुत से प्रश्नों को जानने में मुझे #कुम्हार के पास चार वर्ष लगे। और कहते हैं, हम पढ़े-लिखे हैं? 

सत्य तो यह है, हम अनपढ़ हैं।

और इससे भी अध‍िक च‍िंताजनक बात ये है क‍ि कथ‍ित आधुनि‍कतावश हम ना तो कुम्हार को उच‍ित स्थान दे पाये और ना ही उसकी अद्भुत कला को। र‍िजर्वेशन और सरकारी नौकरी के लालच ने इन कलाकारों का अस्त‍ित्व व औच‍ित्य दोनों के साथ साथ सनातन को भी भारी नुकसान पहुंचाया है।   

उस व्यक्ति की कुशलता सोचिए जो ६ वर्ष की आयु से यही काम करते करते ६० वर्ष का हो गया और जो हजारों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी अपना काम कर रहा हो उसकी कार्य कुशलता  तो अकल्पनीय ही है। ३ वर्ष का ग्रेजुएट और २ वर्ष मास्टर्स उसका मुकाबला क्या करेगी, 

वर्ण आधारित हजारों वर्षों की कुशलता आधुनिक बनने के चक्कर में हमने नष्ट कर डाली।

जातियों को मिटाना मतलब सदियों तक घिस घिस कर पीढ़ियों द्वारा अर्जित किए ज्ञान को नाली में बहा देना, अपनी अर्थव्यवस्था गैरों को सौंप देना।

इतनी सी बात हिन्दुत्व की बागडोर थामे ना तो नेतृत्व समझता और ना ही हम जो बंटने पर हार हाल में आमादा हैं जैसे क‍ि - 

कुम्हार, सुथार, विश्वकर्मा, नाई, लुहार, चर्मकार, पंड‍ित, बन‍िया और ठाकुर...फेहर‍िस्त बड़ी लंबी है  ....कहां तक ल‍िखूं ...आज मन इस बंटाव को देखकर दुखी है क‍ि हम कहां थे और कहां आ गए...नौकरी की भीख मांगते मांगते ।

इसी बात पर हसीब सोज़ का एक शेर देख‍िए----

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीख को जिस ने पुरुस-कार समझ रक्खा है।

- अलकनंदा स‍िंंह 


गुरुवार, 19 सितंबर 2024

मथुरा की गल‍ियों में बसा करते थे कवि और साहित्यकार, पढ़‍िए डॉ. नटवर नागर की ल‍िखी ये पाती


 मथुरा नगर पूरा ही, अनेक कवियों का नगर रहा है परन्तु वर्तमान के पत्रकारों को मथुरा में कवि और साहित्यकार, दिखाई ही नहीं देते। मथुरा आरम्भ से अब तक हिन्दी के आधारभूत साहित्यकारों का गढ़ रहा है। आज हिन्दी दिवस है हिन्दी के उन आधार स्तम्भों का स्मरण करना तो बनता ही है। 

रीतिकाल का कुछ समय ऐसा रहा है जब 'तिलक द्वार' से लेकर कंसखार तक का क्षेत्र विशेष रूप से मथुरा में महाकवियों की बस्ती रहा है। इस क्षेत्र में 'बिहारीपुरा' मोहल्ला लगभग इस क्षेत्र के मध्य में है, यह मोहल्ला मथुरा का एक प्राचीन मौहल्ला है। बिहारीपुरा और उसके चारों ओर के मोहल्लों में अनेक प्राचीन श्रेष्ठ कवियों के आवास रहे हैं।

मैं इसी 'बिहारीपुरा' में रहता हूँ, मेरे मकान की बाईं ओर की दीवार से सटे हुआ मकान में कभी प्रतिष्ठित  भाषा- वैज्ञानिक एवं साहित्यकार डाॅ. कैलाशचन्द्र भाटिया रहते थे जो बाद में देहरादून और अन्त में अलीगढ़ में जा कर रहे, यह उनका पैतृक आवास था। एक बार किसी साहित्यिक आयोजन में मेरी डाॅ. भाटिया जी से भेंट हुई तब उन्होंने ही मुझे यह बताया कि वे बिहारीपुरा मुहल्ले में, हमारे पड़ौसी रहे हैं। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि रीति कालीन कवि बिहारीलाल अपने अन्तिम समय में जयपुर से मथुरा आकर इसी बिहारीपुरा में रहे थे। बाद में कविवर बिहारीलाल के नाम पर ही मोहल्ले का नाम बिहारीपुरा हुआ। बिहारी कवि के विषय में मुझे यह तो ज्ञात था कि वे माथुर चौबे थे, उनकी ससुराल मथुरा में थी और वे अपने अंतिम समय में मथुरा में आकर बस गये थे पर वे मथुरा में बिहारीपुरा में आकर बसे थे, यह बात मुझे सर्वप्रथम डॉ. कैलाशचन्द्र भाटिया से ही ज्ञात हुई थी।

बिहारीपुरा से पूर्व की ओर 'मारू गली' है, मारू गली में 'उद्धव शतक' के रचनाकार जगन्नाथदास 'रत्नाकर' के काव्य गुरु, उद्भट कवि आचार्य नवनीत जी चतुर्वेदी का आवास है। ये रीति काल के अन्त में हुए हैं। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर इनके पौत्र डाॅ. मानिकलाल चतुर्वेदी जो केन्द्रीय हिन्दी संस्थान से सेवानिवृत्त हुए थे, उन्होंने शोधकार्य किया था। जगन्नाथदास 'रत्नाकर' के अतिरिक्त महाकवि आचार्य गोविंद चतुर्वेदी, अमृतध्वनि छंद सम्राट कविवर रामलला आदि अनेक श्रेष्ठ कवि इनके शिष्य हुए हैं।

बिहारीपुरा के दक्षिण में मोहल्ला 'चूनाकंकड़ है, इस मोहल्ले में महाकवि ग्वाल का आवास था। वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. भगवानसहाय पचौरी ने ग्वाल कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोधकार्य किया है। इनका कार्यकाल भी रीति काल के अन्त में ही रहा है। चूनाकंकड़ पर आज भी ग्वाल कवि का शिव मंदिर है। चूनाकंकड़ से थोड़ा आगे, तिलक द्वार के समीप ही बल्ला गली में कविवर बल्लभसखा का आवास है। बल्लभसखा की होली बहुत प्रसिद्ध रही है। इनके नाम पर ही इनकी गली का नाम बल्ला गली रखा गया प्रतीत होता है।

बिहारीपुरा के पश्चिम में छत्ताबाजार को पार करके 'ताज पुरा' है। यहाँ मुग़ल बेगम ताज का आवास था। ताज बेग़म ब्रजभाषा की कृष्ण भक्त कवयित्री हुई हैं। इन्होंने वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र गो. विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली थी। इन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति से युक्त बहुतसे पद और छंद लिखे हैं। इनकी यह पंक्ति "हों तौ मुग़लानी हिंदुआनी बन रहों गी मैं" बहुत प्रसिद्ध हुई है। कहा जाता है, श्रीनाथजी के समक्ष होली की धमार गाते गाते ताज बेगम ने अपनी देह छोड़ी थी। महावन में कविवर रसखान की समाधि के निकट ही, एक स्थान पर इनकी भी समाधि बनी हुई है।

बिहारीपुरा के उत्तर में रामजीद्वारा है, जहाँ महाकवि गो. तुलसीदास को श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीराम के दर्शन हुए थे। रामजीद्वारा के आगे अष्टछाप के कृष्ण भक्त कवि छीतस्वमी का आवास था, इनके वंशज आज भी वहाँ रहते हैं। इन कवियों के अतिरिक्त भी समय-समय पर इस क्षेत्र में अनेक कवि हुए हैं जिन्होंने भारती के भण्डार को भरा है। 

ब्रज विकास परिषद और मथुरा-वृंदावन नगर निगम को इस क्षेत्र का विकास एक साहित्यिक परिक्षेत्र के रूप में करना चाहिए। मारू गली और चूनाकंकड़ मोहल्लों के नाम क्रमश: कविवर नवनीत जी और कविवर ग्वाल के नाम पर रखे जाने चाहिए, यह माँग मैं बहुत समय से करता रहा हूँ। यथा स्थान सम्बन्धित कवियों के संक्षिप्त जीवन वृत्त शिलालेख के रूप में लगने चाहिए जिससे आगे आने वाली पीढ़ियों को उनके विषय में जानकारी मिलती रहे।


डॉ. नटवर नागर, मथुरा (उ. प्र.)

लेखक, पत्रकार एवं शिक्षाविद्

मंगलवार, 3 सितंबर 2024

क्या आप जानते हैं, शाम को फूलों पर बैठी हुई मधुमक्खियाँ बूढ़ी मधुमक्खियाँ होती हैं

 

क्या आप जानते हैं, शाम को फूलों पर बैठी हुई मधुमक्खियाँ बूढ़ी मधुमक्खियाँ होती हैं। 🐝🐝

बूढ़ी और बीमार मधुमक्खियाँ दिन के अंत में छत्ते में वापस नहीं आती हैं। वे रात को फूलों पर बिताती हैं, और अगर उन्हें फिर से सूर्योदय देखने का मौका मिलता है, तो वे पराग या अमृत को कॉलोनी में लाकर अपनी गतिविधि फिर से शुरू कर देती हैं। वे यह महसूस करते हुए ऐसा करती हैं कि अंत निकट है। कोई भी मधुमक्खी छत्ते में मरने का इंतज़ार नहीं करती ताकि दूसरों पर बोझ न पड़े। तो, अगली बार जब आप रात के करीब आते हुए किसी बूढ़ी छोटी मधुमक्खी को फूल पर बैठे हुए देखें... . . .मधुमक्खी को उसकी जीवन भर की सेवा के लिए धन्यवाद दें🐝❣️🐝


मधुमक्खियों से जुड़ी कुछ और बातें: 
 
मधुमक्खियां आमतौर पर अंडाकार आकार की होती हैं और इनका रंग सुनहरा-पीला और भूरे रंग की पट्टियों वाला होता है. 
 
मधुमक्खियां संघ बनाकर रहती हैं और हर संघ में एक रानी, कई सौ नर, और बाकी श्रमिक होते हैं. 
 
मधुमक्खियां नृत्य के ज़रिए अपने परिवार के सदस्यों को पहचानती हैं. 
 
मधुमक्खियां लीची, कॉफ़ी, और कोको जैसे फूलों के परागण में अहम भूमिका निभाती हैं. 
 
मधुमक्खियां चीनी की चाशनी खाना पसंद करती हैं. 
 
मधुमक्खियां अक्टूबर से दिसंबर के बीच अंडे देती हैं. 
 
मधुमक्खियां ज़्यादातर तभी हमला करती हैं जब उन्हें खतरा महसूस होता है. 
 
मधुमक्खियां विषैला डंक मारती हैं.

रविवार, 1 सितंबर 2024

ना उम्र की सीमा हो.... तुर्की की दादी-नानियों का थिएटर ग्रुप जो पर्यावरण बचाने को आगे आया


 तुर्की के छोटे से कस्बे अरलंस्कॉय की 62 साल की दादी मां इन दिनों पूरे देश में चर्चा हैं। इसकी वजह है- उनके द्वारा शुरू किया गया थियेटर ग्रुप। इस ग्रुप में सभी महिलाएं हैं। ग्रुप क्लाइमेट चेंज को लेकर जागरुकता लाने के लिए अलग-अलग जगह पर नाटक का मंचन करता है। इन दिनों ये महिलाएं अपने नए नाटक 'मदर, द स्काय इज पीयर्स्ड की रिहर्सल में व्यस्त हैं। इस महिला थियेटर ग्रुप की प्रमुख उम्मिये कोकाक चाहती हैं कि दुनियाभर में लोग इस समस्या को समझें और गंभीरता से लें। 

कोकाक के काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचाना जाता है। 2013 में तुर्की की महिलाओं पर फिल्म के लिए न्यूयॉर्क फेस्टिवल में अवॉर्ड भी मिला था। कोकाक फुटबॉलर क्रिस्टिआनो रोनाल्डो के साथ एड कर चुकी हैं। 

नाटकों का मकसद धारणा बदलना है



कोकाक के मुताबिक, ‘‘क्लाइमेट चेंज सिर्फ उनके कस्बे की नहीं बल्कि पूरी दुनिया की समस्या है। मैं इस समस्या को लेकर जितनी जोर से आवाज उठा सकती हूं, उठाऊंगी। ये दुनिया हमारी भी है। इसे बेहतर देखभाल की जरुरत है। दरअसल, कोकाक इससे पहले भी नाटक लिखती रही हैं। उनके नाटकों का उद्देश्य धारणाओं को बदलना रहता है। इससे पहले उन्होंने गरीबी, अल्जाइमर रोग, घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर नाटक लिखे हैं। तुर्की के टीवी ड्रामा पर इनकी खासी चर्चा हुई है।’’

महिलाओं की बात सुनी जानी चाहिए



कोकाक का अरलंस्कॉय आना शादी के बाद हुआ। वहां पर उन्होंने देखा कि महिलाएं घर और खेतों में बराबरी से काम करती हैं। उन्हें लगा कि यह ठीक नहीं हैं, इन महिलाओं की बात सुनी जानी चाहिए। वो काफी समय से इस पर काम कर थी। थियेटर ग्रुप इसी का नतीजा है। गांव में कोई हॉल या सेट तो था नहीं, इसलिए कोकाक ने घर के गार्डन में ही रिहर्सल शुरू करवा दीं। धीरे-धीरे इस ग्रुप की चर्चा पूरे तुर्की में फैल गई। अब लोग इन दादी-नानियों को स्थानीय स्तर पर नाटक मंचन के लिए बुलाने लगे हैं। सोशल मीडिया पर उनके वीडियो खूब शेयर हो रहे हैं।

- अलकनंंदा स‍ि‍ंह  


मंगलवार, 20 अगस्त 2024

अजमेर सेक्स स्केंडल: वो भी तो रेप-गैंगरेप था... ज‍िसमें आज 32 साल बाद आया फैसला

 


 अभी कोलकाता, मुरादाबाद और बदलापुर के रेप-गैंगरेप पर हम बात कर ही रहे थे क‍ि आज राजस्थान के अजमेर शहर में 32 साल पहले हुआ अजमेर सेक्स स्कैंडल एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। इस मामले में कोर्ट ने 100 से ज्यादा छात्राओं से सामूहिक दुष्कर्म के मामले में 6 आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। साथ ही 5 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया है. अजमेर की विशेष अदालत ने यह फैसला सुनाया है। 32 साल पुराने इस सेक्स स्केंडल कांड में नफीस चिश्ती, सलीम चिश्ती, इकबाल भाटी, नसीम सैयद, जमीर हुसैन व सोहिल गनी को कोर्ट ने दोषी माना। 


इस सेक्स स्केंडल में कुल 18 आरोपी थे, जिनमें नौ आरोपियों को पहले ही सजा सुनाई जा चुकी है। बाकी बचे नौ आरोपियों में से एक ने सुसाइड कर लिया, एक फरार है और एक कुकर्म के आरोपी का अलग से ट्रायल चल रहा है।


ये था पूरा मामला 


सन् 1992 लगभग 29 साल पहले सोफिया गर्ल्स स्कूल अजमेर की लगभग 250 से ज्यादा हिन्दू लडकियों का रेप जिन्हें लव जिहाद/ प्रेमजाल में फंसा कर, न केवल सामूहिक बलात्कार किया बल्कि एक लड़की का रेप कर उसकी फ्रेंड/ भाभी/ बहन आदि को लाने को कहा, एक पूरा रेप चेन सिस्टम बनाया, जिसमें पीड़ितों की न्यूड तस्वीरें लेकर उन्हें ब्लैकमेल करके यौन शोषण किया जाता रहा।


फारूक चिश्ती, नफीस चिश्ती और अनवर चिश्ती- इस बलात्कार रेप कांड के मुख्य आरोपी थे। तीनों अजमेर में स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह के खादिम (केयरटेकर) के रिश्तेदार/ वंशज तथा कांग्रेस यूथ लीडर भी थे।


फारूक चिश्ती ने सोफिया गर्ल्स स्कूल की 1 हिन्दू लड़की को प्रेमजाल में फंसा कर एक दिन फार्म हाउस पर ले जा कर सामूहिक बलात्कार करके, उसकी न्यूड तस्वीरें लीं और तस्वीरो से ब्लैकमेल कर उस लड़की की सहेलियों को भी लाने को कहा।


एक के बाद एक लड़की के साथ पहले वाली लड़की की तरह फार्म हाउस पर ले जाना, बलात्कार करना, न्यूड तस्वीरें लेना, ब्लैकमेल कर उसकी भी बहन/ सहेलियों को फार्म हाउस पर लाने को कहना और उन लड़कियों के साथ भी यही घृणित कृत्य करना- इस चेन सिस्टम में लगभग 250 से ज्यादा लडकियों के साथ भी वही शर्मनाक कृत्य किया।


उस जमाने में आज की तरह डिजिटल कैमरे नही थे। रील वाले थे। रील धुलने जिस स्टूडियो में गयी वह भी चिश्ती के दोस्त और मुसलमान समुदाय का ही था। उसने भी एक्स्ट्रा कॉपी निकाल लड़कियों का शोषण किया।


ये भी कहा जाता है कि स्कूल की इन लड़कियों के साथ रेप करने में नेता और सरकारी अधिकारी भी शामिल थे। आगे चलकर ब्लैकमैलिंग में और भी लोग जुड़ते गये।


आखिरी में कुल 18 ब्लैकमेलर्स हो गये। बलात्कार करने वाले इनसे तीन गुने। इन लोगों में लैब के मालिक के साथ-साथ नेगटिव से फोटोज डेवेलप करने वाला टेकनिशियन भी था।


यह ब्लैकमेलर्स स्वयं तो बलात्कार करते ही, अपने नजदीकी अन्य लोगों को भी “ओब्लाइज” करते। इसका खुलासा हुआ तो हंगामा हो गया। इसे भारत का अब तक का सबसे बडा सेक्स स्कैंडल माना गया।


इस केस ने बड़ी-बड़ी कंट्रोवर्सीज की आग को हवा दी। जो भी लड़ने के लिए आगे आता, उसे धमका कर बैठा दिया जाता।


अधिकारियों ने, कम्युनल टेंशन (सांप्रदायिक तनाव) न हो जाये, इसका हवाला दे कर आरोपियों को बचाया।


अजमेर शरीफ दरगाह के खादिम (केयरटेकर) चिश्ती परिवार का खौफ इतना था, जिन लड़कियों की फोटोज खींची गई थीं, उनमें से कईयों ने सुसाइड कर लिया।


एक समय अंतराल में 6-7 लड़कियां ने आत्महत्या की।


डिप्रेस्ड होकर इन लड़कियों ने आत्महत्या जैसा कदम उठाया । एक ही स्कूल की लड़कियों का एक साथ सुसाइड करना अजीब सा था। सब लड़कियां नाबालिग और 10वी, 12वी में पढने वाली मासूम किशोरियां।


आश्चर्य की बात यह कि रेप की गई लड़कियों में आईएएस, आईपीएस की बेटियां भी थीं। ये सब किया गया अश्लील फोटो खींच कर। पहले एक लड़की, फिर दूसरी और ऐसे करके 250 से ऊपर लड़कियों के साथ हुई ये हरकत। ये लड़कियां किसी गरीब या मिडिल क्लास बेबस घरों से नहीं, बल्कि अजमेर के जाने-माने घरों से आने वाली बच्चियां थीं।


वो दौर सोशल मीडिया का नहीं, पेड/ बिकाऊ मीडिया का था। फिर पच्चीस तीस साल पुरानी ख़बरें कौन याद रखता है? ये वो ख़बरें थी जिन्हें कांग्रेसी नेताओं ने वोट और तुष्टीकरण की राजनीति के लिए दबा दिया था।


पुलिस के कुछ अधिकारियों और इक्का दुक्का महिला संगठनों की कोशिशों के बावजूद लड़कियों के परिवार आगे नहीं आ रहे थे। इस गैंग में शामिल लोगों के कांग्रेसी नेताओं और खूंखार अपराधियों तथा चिश्तियों से कनेक्शन्स की वजह से लोगों ने मुंह नहीं खोला।


बाद में फोटो और वीडियोज के जरिए तीस लड़कियों की शक्लें पहचानी गईं। इनसे जाकर बात की गई। केस फाइल करने को कहा गया। लेकिन सोसाइटी में बदनामी के नाम से बहुत परिवारों ने मना कर दिया। बारह लड़कियां ही केस फाइल करने को तैयार हुई। बाद में धमकियां मिलने से इनमे से भी दस लड़कियां पीछे हट गई।


बाकी बची दो लड़कियों ने ही केस आगे बढ़ाया। इन लड़कियों ने सोलह आदमियों को पहचाना। ग्यारह लोगों को पुलिस ने अरेस्ट किया। जिला कोर्ट ने आठ लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई।


इसी बीच मुख्य आरोपियों में से फारूक चिश्ती का मानसिक संतुलन ठीक नहीं का सर्टिफिकेट पेश कर फांसी की सजा से बचा कर 10 साल की सजा का ही दंड मात्र दिया।


नवज्योति के संपादक दीनबंधु चौधरी ने स्वीकार किया था कि स्थानीय प्रशासन एवं अन्य अधिकारियों को इस कांड के खुलने के लगभग एक साल पहले से ही इस घोटाले की जानकारी थी, लेकिन उन्होंने स्थानीय राजनेताओं के दवाब और प्रभाव के कारण जांच को रोकने की अनुमति दी और रोके रखा। चौधरी ने कहा कि आखिरकार उन्होंने कहानी के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया क्योंकि यह स्थानीय प्रशासन को कार्रवाई में जागृत करने का एकमात्र तरीका था।


अंत में, पुलिस ने आठ आरोपियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की। आगे की जांच में कुल 18 लोगों को आरोपित किया गया और कई दिनों तक शहर में अत्यधिक तनाव व्याप्त रहा। विरोध करने के लिए लोग सड़कों पर उतर आए और सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया। तीन दिवसीय बंद का आह्वाहन किया गया और फिर बाद में व्यापक शोषण और ब्लैकमेल की खबरें आने लगीं। सेवानिवृत्त राजस्थान के पुलिस महानिदेशक ओमेंद्र भारद्वाज जो उस समय अजमेर में पुलिस उपमहानिरीक्षक थें को आरोपियों ने बहुत परेशान किया और उन्होंने अपनी सामाजिक और वित्तीय ताकत के कारण ओमेंद्र भारद्वाज को इस मामले को आगे लाने से रोकने की बहुत कोशिश की। 

राजस्थान के पुलिस महानिदेशक ओमेंद्र भारद्वाज, जो उस समय डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल के पद पर तैनात थे, ने इस घटना के संबंध में कहा था कि "आरोपी सामाजिक और आर्थिक रूप से अत्यंत हीं सक्षम और समृद्ध थें और इसी कारण पुलिस के लिए इन पीड़ित लड़कियां को इस कांड के घटना की जानकर देने और इस कांड में केस दर्ज करने के लिए आगे लाना अत्यंत ही कठिन कार्य था।"


इसके बाद राजनीतिक प्रभाव और प्रशासनिक अक्षमता की एक और गाथा लिखी गई। लड़कियों को प्रताड़ित करने और ब्लैकमेल करने का मामला अभी भी बंद होने से कोसों दूर था। कई पीड़ित जो गवाह बनने वाले थे, बाद में पलट गए। सामाजिक कलंक और आडंबर की बदबू इतनी बुरी थी कि शहर की लड़कियों को गिरोह का शिकार होने के बाद उन्हें एक दूसरे के साथ पहचान करवा कर आरोपियों ने आपस मे पहचान करा दिया था। पीड़ितों की संख्या कई सौ मानी गई। कुछ ही पीड़ित लड़कियां आगे आई। स्थिति इतनी खराब थी कि भावी दूल्हे, जो अजमेर की लड़कियों से शादी करने वाले थे, अखबारों के कार्यालयों में आ जाते थे और यह पता लगाने की कोशिश करते थे कि जिस लड़की से वे शादी करने जा रहे थे क्या उनकी होने वाली पत्नी कहीं उनमें से एक तो नहीं। अनंत भटनागर, राज्य महासचिव, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज और अजमेर के निवासी ने कहा कि लोग कहते थे कि अगर लड़की अजमेर की थी, तो उन्हें यह पता लगाना होगा कि वह किस तरह की लड़की थी।


इस भयावह मामले का सबसे विचलित करने वाला हिस्सा पीड़ितों की अनकही पीड़ा है। बलात्कार के बाद, अधिकांश पीड़ितों ने उत्पीड़न और धमकियों का सामना किया। इस से बाहर आने के लिए उन्हें समाज या उनके परिवारों से कोई समर्थन नहीं मिला। पुलिस जांच के अनुसार लगभग 6 पीड़ितों ने कथित तौर पर आत्महत्या की। अजमेर महिला संगठन जिसने पीड़ितो की मदद करने और इस पूरे घटना को कानूनी मदद देनी चाही तो उन्हें धमकियां मिलने लगीं और उन धमकियों के मिलने के कारण इस संगठन ने अपना विचार त्याग दिया। उस समय अजमेर में छोटे समय की वीडियोज काफी सनसनीखेज थीं। जैसे कि सैकड़ों लड़कियों का सामूहिक शोषण शहर की अंतरात्मा के लिए कोई नई ख़बर लेकर आई हो। कई पीड़ितों को कथित रूप से इन वीडियोस फ़ोटो और स्थानीय कागजात द्वारा आगे भी ब्लैकमेल किया गया था। उनके पास लड़कियों की स्पष्ट तस्वीरों तक पहुंच थी और मालिकों और प्रकाशकों ने लड़कियों के परिवारों से उन्हें छिपाए रखने के लिए पैसे मांगे।


एक स्थानीय अखबार नवज्योति ने सबसे पहले कुछ लड़कियों के नग्न चित्र और एक कहानी प्रकाशित की जिसमें स्कूली छात्राओं को स्थानीय गिरोह के द्वारा ब्लैकमेल किए जाने की बात कही गई थी। इसके बाद हीं लोगों को इस जघन्य कांड और इस घोटाले के संबंध में पता चला और फिर उसके बाद इस निर्मम कांड के एक-एक तार आपस मे जुड़ते चले गए।


दोनो मुख्य आरोपी अजमेर के प्रसिद्व मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह के खादिमों (या यूं कहें कि उस दरगाह के देखभालकर्ताओं) के कबीले से थें। मुख्य आरोपी फारूक चिस्ती था। उसके अतिरिक्त अजमेर के भारतीय युवा कांग्रेस से जुड़े हुए दो अन्य नफीस चिश्ती और उसका भाई अनवर चिश्ती क्रमशः अजमेर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव थे। अंततः 18 जाने-माने अपराधियों को अदालत में आरोपित किया गया। आठ को जीवन भर के लिए दोषी ठहराया गया था, उनमें से 4 को बाद में 2001 में बरी कर दिया गया था, और शेष को पहले से ही जेल की सजा को कम करने के बाद मुक्त कर दिया गया था।

बुधवार, 24 जुलाई 2024

बड़े धोखे हैं इस राह में...IAS, IPS बनने के लिए ऐसे उड़ाते हैं आरक्षण के न‍ियमों की धज्ज‍ियां

यूपीएससी सिविल सर्विसेस की तैयारी कराने वाले लोकप्रिय IAS मेंटर विकास दिव्यकीर्ति ने बड़े चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। खुद सिविल सर्वेंट रह चुके Vikas Divyakirti ने एएनआई को दिए इंटरव्यू में बताया कि कैसे आईएएस, आईपीएस बनने के लिए यूपीएससी कैंडिडेट्स सरकार की नीतियों की धज्जियां उड़ा रहे हैं। हालांकि उन्होंने कहा कि मैं खुद जनरल हूं, लेकिन जहां तक नीतियों की बात है, मैं आरक्षण के पक्ष में रहता हूं। लेकिन ये बात सही है कि रिजर्वेशन सिस्टम जो हमने रखा है, उसमें लूप होल्स बहुत ज्यादा हैं।


विकास दिव्यकीर्ति ने कहा, 'मेरे ख्याल से जितने लोगों को यूपीएससी सिविल सर्विस परीक्षा में आरक्षण का फायदा मिल रहा है, मुझे नहीं लगता कि 10-20% से ज्यादा वाकई उसके लिए योग्य होते हैं।' हाल में चल रहे आईएएस पूजा खेड़कर के मामले पर उन्होंने कुछ उदाहरण देते हुए समझाया कि कैसे ओबीसी और ईडब्ल्यूएस आरक्षण नीतियों की खामियों का गलत फायदा उठाकर लोग यूपीएससी क्रैक कर रहे हैं।


OBC और EWS आरक्षण में बेहद बारीक पेंच

दिव्यकीर्ति ने कहा, 'ओबीसी और ईडब्ल्यूएस आरक्षण में कितने बारीक पेंच हैं, अगर आप सुनेंगे तो दंग रह जाएंगे। नियम ये है कि अगर आप ओबीसी से हैं, लेकिन क्रीमी लेयर में हैं, तो आपको जेनरल माना जाएगा। लेकिन लोगों को इससे बचना होता है।


एक रूल ये है कि अगर आपके पिता या मां क्लास 1 जॉब में हैं तो आप ओबीसी नहीं हो सकते, आप क्रीमी लेयर में चले जाते हैं। आपके दोनों पैरेंट्स ग्रुप बी में हैं तो भी नहीं हो सकते। लेकिन ग्रुप सी, ग्रुप डी में हैं, इनकम चाहे 8 लाख से ज्यादा हो तो भी आप ओबीसी में रहते हैं। अब एक खेल खेला गया कि कृषि से होने वाली आय की गिनती नहीं होगी। बहुत सारे सिविल सर्वेंट जो करप्शन का रास्ता चुनते हैं वो एग्रीकल्चर इनकम दिखाते हैं। बड़े पैमाने पर।


यूपीएससी परीक्षा में ओबीसी आरक्षण के लिए कैसे होता है खेल?

अब पेंच ये है कि ओबीसी में जो कैंडिडेट है उसकी अपनी इनकम नहीं गिनी जाती। केवल पैरेंट्स की गिनी जाती है। जबकि ईडब्ल्यूएस में सबकी काउंट होती है। एक उदाहरण लेते हैं-

मान लीजिए मेरे पिता IAS ऑफिसर हैं, दो साल में रिटायर होने वाले हैं। मैं ओबीसी में हूं। लेकिन मेरे पिता क्लास-1 जॉब में हैं तो मुझे आरक्षण नहीं मिलेगा। उन्होंने खूब पैसा कमा लिया है। इतना कि जीवनभर काम चल जाएगा। कई बिल्डिंग्स खरीद ली हैं, किराया हर महीने लाखों में आता है। मुझे आईएएस बनना है। मैंने पापा से कहा कि जेनरल से नहीं बन पाऊंगा, ओबीसी से बनना है, आप सपोर्ट करो। आप रिजाइन कर दो। उन्होंने रिजाइन कर दिया। अब मुझपर ये सीमा लागू नहीं होती कि मेरे पिता ग्रुप 1 जॉब में हैं।


लेकिन अब उनकी प्रॉपर्टी/ आय की सीमा लागू होगी। अब मेरे पैरेंट्स अपनी सारी प्रॉपर्टी गिफ्ट डीड से मेरे नाम कर देंगे। अब उनकी इनकम साल की 6 लाख रह गई, मेरी महीने की 60 लाख। लेकिन ओबीसी आरक्षण के लिए मेरी इनकम क्राईटीरिया नहीं है। तो अगर मैं हर महीने 50 लाख भी कमा रहा हूं, जब मैं यूपीएससी परीक्षा दूंगा, मुझे ओबीसी आरक्षण का फायदा मिलेगा। ऐसे कम केस हैं, लेकिन मैं वास्तव में ऐसे लोगों को जानता हूं जिन्होंने ये किया है।


IAS IPS बनने के लिए EWS आरक्षण में खेल कैसे होता है?

EWS में तो खेल और अलग तरीके से चलता है। उसमें नियम ये है कि पूरे परिवार की आय गिनी जाती है, लेकिन सिर्फ पिछले एक साल की। ईडब्ल्यूएस में तो रिजाइन करने की जरूरत भी नहीं होती। ये और आसान है। इसमें नियम है कि-

आपकी कृषि योग्य भूमि 5 एकड़ से ज्यादा न हो।

घर 1000 फीट से ज्यादा बड़ा न हो।

अगर प्लॉट है नोटिफाइड में तो 100 गज, अन-नोटिफाइड में है तो 200 गज से ऊपर न हो।

8 लाख से ऊपर पारिवारिक आय न हो। परिवार मतलब- माता पिता, मेरे भाई-बहन (18 साल तक की उम्र के), पति या पत्नी और बच्चे (18 की उम्र तक)।


हमारे देश में कम से कम 80% से ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, जहां सैलरी/ इनकम का पता नहीं चलता। आय कम दिखाना आसान है। जिस साल आपने अपनी आय 8 लाख से कम दिखा दी, आपके बच्चे अगले साल EWS Reservation के योग्य हो जाते हैं। यहां क्लास-1, क्लास-2 से मतलब नहीं है, सिर्फ पैसे नहीं होने चाहिए।


मैं ऐसे परिवारों को जानता हूं जिनके पास बहुत जमीन थी। उन्होंने 4.9 एकड़ छोड़कर बाकी सब बेच दी या किसी और के नाम पर कर दी। क्योंकि सीमा 5 एकड़ की है। 1000 फीट के फ्लैट की रजिस्ट्री ऐसे करवा ली कि 990 फीट है। पति-पत्नी दोनों कमाते हैं, जिनकी इनकम मिलाकर 1 लाख है। इनमें से एक मेंबर 8 या 9 महीने की मेडिकल लीव (Leave Without Pay) ले लेगा। अब उस साल के ITR में दोनों की सालभर की इनकम 7.90 लाख रुपये आई। उनका बच्चा यानी कि कैंडिडेट अगले यूपीएससी अटेंप्ट में ईडब्ल्यूएस आरक्षण के तहत आ जाता है।


यहां तक मामले हैं, जो बच्चे खुद सिविल सर्वेंट हैं, वो भी ईडब्ल्यूएस में आते हैं। कैसे? मान लीजिए उसकी सैलरी 70 हजार है। लेकिन उसे यूपीएससी क्रैक करना है या हाई रैंक के लिए फिर से परीक्षा देनी है। अब वो 4 महीने की छुट्टी लेगा। ऐसे इसकी और मां या पिता की इनकम मिलाकर 7.90 लाख बन गई। सिर्फ ITR के आधार पर ये फैसला होता है। वो भी सिर्फ पिछले साल के। यानी जब भी जिंदगी में EWS बनना हो, आपको सिर्फ उससे पिछले साल में अपनी इनकम 8 लाख से कम करनी है। बस आपको नौकरी में आरक्षण का फायदा मिल जाता है।


रविवार, 21 जुलाई 2024

मरियम-वेबस्टर डिक्शनरी में नए शब्दों के साथ स्लैंग भी शामिल, आइये जाने इनका अर्थ


 मरियम-वेबस्टर ने नए संस्करण में जीवन के सभी क्षेत्रों से अविश्वसनीय 690 शब्द जोड़े हैं. थर्स्ट ट्रैप, शेफ्स किस, ग्रैमेबल और बीस्ट मोड जैसे कई नए शब्द शब्दकोश में शामिल किए गए हैं. साथ ही डोगो, रिज, गोटेड, बुसिन और सिम्प जैसे अन्य स्लैंग भी शामिल किए गए हैं. आइए इन नए शब्दों का मतलब जानते हैं.

मरियम-वेबस्टर के बड़े संपादक पीटर सोकोलोव्स्की ने कहा कि हम शब्दों के इस नए बैच से बहुत उत्साहित हैं. उन्होंने कहा कि हमें उम्मीद है कि उन्हें पढ़ने में उतनी ही संतुष्टि होगी, जितनी हमें उन्हें परिभाषित करने से मिली थी. शब्दकोश में कई नए शब्द शामिल किए गए हैं, जैसे कि थर्स्ट ट्रैप, शेफ्स किस, ग्रैमेबल और बीस्ट मोड. अन्य कठबोली शब्द जैसे डोगो, रिज, गोटेड, बुसिन और सिम्प भी जोड़े गए.

क्या है गर्लबॉस?

डिक्शनरी में गर्लबॉस को केवल एक महत्वाकांक्षी और सफल महिला (विशेषकर एक व्यवसायी या उद्यमी) के रूप में परिभाषित किया गया है. वहीं प्यास का जाल एक और शब्द है, जिसका अर्थ है तुरंत ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करना. बीस्ट मोड, जिसका अर्थ है किसी व्यक्ति (जैसे कि एक एथलीट) द्वारा क्षण भर के लिए अपनाई गई अत्यधिक आक्रामक या ऊर्जावान शैली या तरीका को भी शामिल किया गया था.

क्या है डोगा का मतलब?

मरियम-वेबस्टर ने इसे सामान्य संज्ञा के रूप में औपचारिक रूप दिया, जिसका अर्थ है कि युवा लोग, खासकर जब उन्हें अनुभवहीन, अनुभवहीन, आदि माना जाता है. अंत में, बना-बनाया शब्द क्रॉमुलेंट, जिसका उपयोग “स्वीकार्य” या “संतोषजनक” चीजों का वर्णन करने के लिए किया जाता है को भी जोड़ा गया हैं. यह पहली बार नहीं है कि सिम्पसन्स से संबंधित शब्द किसी शब्दकोश में आया है. मरियम-वेबस्टर ने 2018 में एम्बिजेन को शामिल किया था.

ये है जुज का मतलब

शब्दकोष में भोजन से संबंधित शब्द भी शामिल हैं जैसे जुज जिसका अर्थ है एक छोटा सा सुधार, समायोजन या परिवर्धन, जो किसी चीज के समग्र रूप, स्वाद आदि को पूरा करता है. टीएफडब्ल्यू (वह एहसास जब), एनजीएल (झूठ नहीं बोलूंगा) और टीटीवाईएल (बाद में आपसे बात करेंगे) जैसे शब्द भी शामिल किए गए हैं.


शनिवार, 6 जुलाई 2024

बाढ़ और सुखाड़ पर फणीश्वरनाथ रेणु ने तब ल‍िखा था ये रिपोर्ताज, आज भी स्थ‍ित‍ि जस की तस है

 
'ऋणजल धनजल' फणीश्वरनाथ 'रेणु' का एक संस्मरणात्मक रिपोर्ताज है। इस रिपोर्ताज का शीर्षक कौतूहलवर्द्धक है। इसमें ऋणजल का अर्थ है-जल की कमी अर्थात् सूखा और धनजल का अर्थ है- जल की अधिकता अर्थात् बाढ़। इसमें बिहार में सन् 1966 में पड़े सूखे और सन् 1975 में आई भयंकर बाढ का चित्रण है। सन 1966 में बिहार में भयानक सूखा पडा था, जिससे पूरे दक्षिण बिहार में अकाल की काली छाया व्याप्त हो गई थी। सूखी धरती पर मनुष्यों एवं अन्य जीवों के कंकाल ही कंकाल दिखाई पड़ते थे। बिहार में ही सन् 1975 में आई प्रलयंकारी बाढ़ ने पटना की सड़कों और घरों को जलमग्न करके लाखों का जीवन संकट में डाल दिया था। प्रकृति के सम्मुख लाचार मानव हाहाकार कर रहा था। यह देखकर संवेदनशील लेखक का हृदय प्रस्तुत रिपोर्ताज लिखने को विवश हो उठा था।

धनजल अर्थात् बाढ़

यद्यपि रिपोर्ताज के शीर्षक में पूर्व पद ऋणजल है, परन्तु लेखक ने रचना के प्रारम्भ में धनजल का वर्णन प्रस्तुत किया है। सन् 1975 में आई बाढ़ के दृश्य का चित्रांकन करते हुए रेणु जी लिखते हैं कि पटना का पश्चिमी इलाका छातीभर पानी में डूब चुका था। इस स्थिति में घर में ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, पेयजल तथा आवश्यक दवाइयों की व्यवस्था कर ली गई। लेखक उस समय की आँखों देखी और कान से सुनी घटनाओं का चित्रात्मक वर्णन करते हुए कहता है कि सुबह समाचार मिला कि राजभवन और मुख्यमन्त्री आवास भी बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में आ गए हैं। गोलघर भी पानी से घिर गया है।

प्रतिदिन की तरह लेखक कॉफी हाउस जाने के लिए घर से निकला, तो रिक्शे वाले ने कॉफी हाउस भी पानी से घिर जाने की सूचना दी। फिर भी रेणु जी ने आगे चलकर वहाँ का दश्य देखने की इच्छा प्रकट की और रिक्शे पर बैठ गए। रिक्शे वाला आगे जाने की सोच ही रहा था कि एक व्यक्ति ने करण्ट (धारा) बहुत तेज होने की सूचना देकर आगे जाने को मना कर दिया। आकाशवाणी केन्द्र तक पानी पहुँच जाने के समाचार को सुनकर लेखक भयभीत हुआ, परन्तु पानी देखकर लौटते हुए लोगों को हर रोज की तरह हँसते-बोलते देखकर वह सहज भी हो गया। दुकानदार अधिक-से-अधिक सामान को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने की जुगाड़ में लगे हुए थे। लेखक आश्चर्यचकित था कि संकट को सामने देखकर भी कोई प्राणी आतंकित नहीं था।

बाढ़ की विभीषिका देख-सुनकर जब लेखक कुछ पत्रिकाएँ लेकर अपने । फ्लैट पर वापस आ रहा था, तो मार्ग में जनसम्पर्क की गाड़ियों से घोषणा की जा रही थी कि रात के बारह बजे तक पानी लोहिनीपुर, कंकड़बाग और राजेन्द्र में घुस जाने की सम्भावना है। अत: सभी लोग सावधान रहें और सुरक्षित स्थान पर जाने का प्रयास करें। बाढ़ का संकट सामने आता हुआ देखकर भी जनता बाट के दृश्यों का आनन्द ले रही थी। सड़कों पर आवागमन में भी कोई कमी दिखाई नहीं दे रही थी। रात के साढ़े ग्यारह बजे भी शहर जगा हुआ था। लेखक भी सी नहीं पा रहा था। सो भी कैसे सकता था, उसने पिछली बाढ़ को देखा और भोगा था। उसके दृश्य लेखक के मस्तिष्क में बार-बार कौंध रहे थे।

रेणु जी को सन् 1947 में मनिहारी में आई गंगा की बाढ़ की स्मृति हो आई। उस समय वे अपने गुरु सतीशनाथ भादुड़ी के साथ नाव पर चढ़कर बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में राहत बाँटने गए थे। उसी समय मुसहरी गाँव में आई परमान नदी की बाढ़ के दृश्य भी उनकी स्मृति में कौंधने लगे। उस समय भी बाढ़ के संकट के समय लोगों की मौज-मस्ती की उन्हें याद हो आई। एक नटुआ लाल साड़ी पहनकर दुलहिन का हाव-भाव प्रदर्शित करते हुए किस प्रकार एक घरवाली, जिसे वहाँ की भाषा में 'धानी' कहा जाता है, का अभिनय करता हुआ मस्ती में डूबकर औरतों के गाने गा रहा था।

रेणु जी ने सन् 1937 में सिमरवनी-शंकरपुर में आई बाढ़ के समय नाव को लेकर हुई लड़ाई का दृश्य भी देखा था। उस समय जहाँ एक ओर गाँव के लोग नाव के अभाव में केले के पेड़ के तनों का बेड़ा बनाकर किसी तरह काम चला रहे थे, वहीं दूसरी तरफ सवर्ण जमींदार के लड़के नाव पर हारमोनियम-तबला लेकर जल विहार करने निकले थे। गाँव के नौजवानों ने मिलकर उनकी नाव छीन ली थी।

इसी प्रकार सन् 1967 में पुनपुन नदी का पानी राजेन्द्र नगर में घुस आया था। तभी कुछ युवक-युवतियों की टोली नाव पर चढ़कर मौज-मस्ती करने निकली। नाव पर स्टोव जल रहा था और एक लड़की एस्प्रेसो कॉफी बना रही थी। दूसरी लड़की बड़े मनोयोग से कोई सचित्र पत्रिका देख रही थी। ट्रांजिस्टर पर गाना बज रहा था-"हवा में उड़ता जाए मोरा लाल दुपट्टा मलमल का।" लेखक के घर के पास नाव पहुँचने पर मुहल्ले के लड़कों ने छतों पर खड़े होकर सीटियों, फब्तियों, किलकारियों की ऐसी वर्षा की कि उनकी सारी मौज-मस्ती फुस्स हो गई।

स्मृतियों का ताँता तब टूटा जब बाढ़ का पानी लेखक के ब्लॉक तक आ पहुँचा। रेणु जी दौड़कर छत पर चले गए। चारों ओर शोर, कोलाहल, चीखपुकार और तेज धार से आने वाले पानी की कल-कल ध्वनि सुनाई दे रही थी।फ्लैट के ग्राउण्ड फ्लोर में छाती तक पानी भर चुका था। सन् 1967 की बाढ़ इस समय के बाढ़ की पासंग मात्र थी। पानी चक्राकार नाच रहा था। लेखक रामकृष्ण

देव के चित्र के सामने बैठकर प्रार्थना करने लगा-"ठाकुर रक्षा करो, बचाओ | इस शहर को इस जल प्रलय से।" लेखक फिर चिन्तन करने लगा कि यह प्रकृति | का नाच है। जब मनुष्य ट्विस्ट कर सकता है, तो प्रकृति क्यों नहीं कर सकती ? लेखक उस दृश्य को देखकर यही कहता है कि बाढ़ के तरल नृत्य को शब्दबद्ध करना कठिन है।

इसके पश्चात् पानी का बढ़ना रुक गया। तब कड़वी चाय के साथ दो काम्पोज की गोली खाकर रेणु जी सोने चले गए।

ऋणजल अर्थात् सूखा

रेणु जी ने अपने रिपोर्ताज में धनजल के माध्यम से बिहार की बाढ़ के साहित्यिक एवं कलात्मक वर्णन के साथ ही बिहार के भयंकर सूखें एवं अकाल के भी अत्यन्त मर्मस्पर्शी दृश्यों का चित्रांकन किया है। सन् 1966 में सम्पूर्ण दक्षिणी बिहार को सूखे ने अपनी चपेट में ले लिया था। रेणु जी ने सूखे की इस स्थिति का आकलन 'दिनमान' के सम्पादक और अपने मित्र अज्ञेय जी के साथ घूमकर किया था।

सूखे का दृश्य

रेणु जी अज्ञेय जी के साथ गया शहर छोड़कर नवादा की ओर जा रहे थे। मार्ग में सड़क के दोनों ओर की भूमि पूर्ण रूप से शुष्क थी। कहीं भी घास या हरियाली दिखाई नहीं दे रही थी। गाड़ियों में अनाज के बोरे नहीं थे, सूखा पुआल था। दुकानों में मकई नहीं थी। बच्चे भूखे स्कूल पढ़ने जा रहे थे। स्कूलों में भी दूध निःशुल्क नहीं मिलता था। हाल ही में हल्की बारिश हुई थी। इसीलिए कुछ किसान हल जोतते तथा कुदाल चलाते हुए दिखाई दिए। लोग सूखे से लड़ने के लिए कच्चे कुएँ खोदकर पानी का तल नाप रहे थे। पानी पाताल की ओर भागा जा रहा था। रैपुरा-सिरसा गाँव में लेखक ने एक हलवाहे से उसका नाम पूछा, तो उसने अपना नाम 'जोगी' बताया। खेत में काम कर रहे एक आदमी ने अज्ञेय जी और रेणु जी के पास आकर अपने साहस की बात कही कि आदमी जीवन रहने तक तो हार नहीं मानता। इसीलिए हम लोग सूखे से लड़ रहे थे। आगे ईश्वर की इच्छा।

पक्की सड़क से नीचे उतरकर जब लेखक अज्ञेय जी के साथ गाँव के बीच में पहुँचा, तो देखा कि एक बुढ़िया बड़बड़ा रही थी। लेखक ने गाँव में कोई मर्द न देखकर मन-ही-मन सोचा-'कहाँ गेल हो ईसब मनई। जइते कहाँ, कमावे, गोड़े ला।' उन्हें बताया गया कि घर में पकाने को कुछ नहीं है। भूख और बीमारी के कारण लड़के की हालत चिन्ताजनक है। इन लोगों के आने की खबर सुनकर गाँव की बड़ी-बूढ़ी औरतों ने बताया कि पाँच जून की मजूरी पाँच मुट्ठी खेसारी मिलती है, वह भी घुनी हुई। मालिकों ने तो घर में बिजली का कुआँ खुदवा रखा है और अनाज घर में भरा पड़ा है। उन्हें गरीबों की क्या चिन्ता होगी।

भयंकर दर्दशा का चित्रण

लेखक ने अज्ञेय जी के साथ वहाँ की स्थिति का जायजा लेने के लिए गाँव वालों से कुछ सवाल किए, तो उत्तर मिला कि सात दिन पहले बच्चे को जन्म देने वाली माँ को खाना न मिलने से दूध नहीं उतर रहा है। एक लड़की ने पूछने पर अपना नाम जसोधा बताया, तो सौर घर से एक औरत बोली-"ई अकलवा के भी छापी (तस्वीर) उतरवा दे |" अकाल और सूखे में जन्मे बच्चों के नाम 'अकालू', 'अकलवा', 'सूखी' और 'सुखही' ही ठीक रहेंगे। लेखक को पता चला कि यहाँ सरकारी लाल कार्ड नहीं मिले हैं।

सरकारी आँकड़ों में रिलीफ बँट रही है, लाल कार्ड बन रहे हैं, परन्तु वास्तविकता इसके विपरीत थी। रेणु जी और अज्ञेय जी ने लौटकर अधिकारियों से पूछा तो उत्तर मिला कि रिलीफ बँट रही है। जब लेखक ने उन्हें कोसला गाँव में लाल कार्ड न बनने और रिलीफ न बँटने की सूचना दी, तब अधिकारियों ने स्वीकारा कि हाँ, उधर नहीं बँटा है। रेणु जी अज्ञेय जी के साथ डाक बँगले में लौटकर आए, तो देखा कि वहाँ सूखे का कोई प्रभाव नहीं है, क्योंकि यहाँ अधिकारी रहते हैं।

प्रस्तुत रिपोर्ताज में रेणु जी की संवेदनशीलता ने बाढ़ और सूखे के दृश्यों को अत्यन्त मार्मिक बना दिया है। इस रिपोर्ताज में रेणु जी ने आम आदमी की पीड़ा और सरकारी अव्यवस्था का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है।

प्रस्तुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह 

शनिवार, 29 जून 2024

NEET की जरूरत क्यों, कितने रुपए में तैयार होता है एक डॉक्टर


 भारत में अगर आपको किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेना है, तो पहले NEET का एग्जाम क्लियर करना होगा. इसी एग्जाम में पेपर लीक होने को लेकर फिलहाल बवाल मचा है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि नीट की तैयारी से लेकर डॉक्टर बनने तक का भारत में खर्च कितना होता है?


भारत में डॉक्टर बनने की अनिवार्य शर्तों में से एक है NEET का एग्जाम पास करना, क्योंकि इसी एग्जाम की रैंकिंग के आधार पर किसी छात्र को मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिलता है. फिलहाल इसी नीट एग्जाम पर बवाल मचा हुआ, पेपर लीक होने की बातें भी सामने आ रहीं है. इस बीच ये जान लेना बहुत जरूरी है कि किसी बच्चे के माता-पिता पर उसे डॉक्टर बनाने का आर्थिक बोझ कितना आता है.


नीट का एग्जाम क्लियर करने के लिए हर साल लाखों बच्चे अपीयर होते हैं. इनमें से ज्यादातर बच्चे कोचिंग सेंटर से एग्जाम की तैयारी भी करते हैं. इसका सीधा मतलब ये है कि किसी बच्चे के डॉक्टर बनने से पहले ही उसका खर्च शुरू हो जाता है. इसके बाद कॉलेज में दाखिला, ट्यूशन फीस और फिर मास्टर डिग्री की फीस…खर्चे की फेहरिस्त लंबी है.


हर साल बनते हैं देश में इतने डॉक्टर

भारत में डॉक्टर और जनसंख्या का अनुपात 0.9 : 1000 का है. ये विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के औसत अनुपात 1 : 1000 से मामूली ही कम है. वहीं अगर बात करें कि देश में हर साल कितने डॉक्टर तैयार हो सकते हैं, तो आपको बता दें कि NEET Exam देश के अलग-अलग मेडिकल कॉलेज में मौजूद 83,000 सीटों पर एडमिशन के लिए आयोजित होता है. इसमें भी सिर्फ आधी सीट ही सरकारी कॉलेजों में हैं.


मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक देश में सरकारी मेडिकल कॉलेज की संख्या करीब 385 है. जबकि प्राइवेट के कॉलेज 320 हैं. सरकारी कॉलेज में करीब 55,000 और प्राइवेट कॉलेज में करीब 53,000 सीट हैं. हालांकि प्राइवेट कॉलेज की कई सीट मैनेजमेंट कोटा के तहत आती हैं.


इतना आता है डॉक्टर बनने का खर्च

अब अगर देश में डॉक्टर बनने के खर्च को समझना हो तो सबसे पहले आपको बता दें कि प्राइवेट कॉलेज में एमबीबीएस कोर्स की फीस 1 करोड़ रुपए तक जा सकती है. इसलिए मिडिल क्लास के लिए ये बहुत मुफीद ऑप्शन नहीं. इसलिए वह नीट एग्जाम की रैंकिंग से सरकारी कॉलेज में दाखिले पर ही सारा जोर देते हैं.


अगर बात नीट एग्जाम की तैयारी की करें, तो आकाश इंस्टीट्यूट, एलन और विद्या मंदिर क्लासेस जैसे कोचिंग सेंटर की फीस 1.25 लाख रुपए से 4 लाख रुपए के बीच है. ये कोचिंग सेंटर की लोकेशन, उसकी फैकल्टी इत्यादि पर डिपेंड करती है.


अब बात करें एमबीबीएस की फीस की, तो सरकारी कॉलेज में ये फीस 5,000 रुपए से 1.5 लाख रुपए प्रति वर्ष तक होती है. जबकि प्राइवेट कॉलेज में 12 लाख से 25 लाख रुपए तक. इस तरह किसी सरकारी कॉलेज से डॉक्टर बनने की न्यूनतम लागत 20,000 रुपए की ट्यूशन फीस है, तो प्राइवेट कॉलेज में यही खर्च न्यूनतम 50 लाख रुपए है.


भारत में फीस ज्यादा होने की वजह से ही यहां से हर साल हजारों की संख्या में लोग रूस, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, बांग्लादेश, फिलीपींस, यूक्रेन और नेपाल जैसे देशों में डॉक्टरी की पढ़ाई करने जाते हैं.