दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से 14 मार्च 2025 को करोड़ों रुपए के अधजले नोट बरामद होने के बाद अंकज जज सिंड्रोम एक बार फिर बहस का केंद्र बन गया है. इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने “अंकज जज सिंड्रोम” पर तीखा प्रहार किया है.
जस्टिस यशवंत वर्मा के सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट फिर से वापस भेजे जाने के फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन की अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हो गई है. इस हड़ताल के साथ ही पूरे देश के न्यायालयों में एक बार फिर से “अंकल जज सिंड्रोम” और न्यायिक सुधारों पर तीखी बहस शुरू हो गई है.
न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता नहीं होने और इनमें परिवारवाद को वरीयता दिए जाने को “अंकल जज सिंड्रोम” कहते हैं. जब जज बनाने के लिए अधिवक्ताओं के नाम प्रस्तावित किए जाते हैं तो किसी भी स्तर पर किसी से कोई राय नहीं ली जाती.
ऐसे में जिन लोगों का नाम प्रस्तावित किया जाता है. उनमें से कई पूर्व न्यायाधीशों के परिवार से होते हैं या उनके संबंधी होते हैं. विशेष पहुंच के कारण इनके नामों को प्रस्तावित किया जाता है, जो शुचिता और स्वतंत्रता के हित में नहीं होता.
पारदर्शिता के अभाव में न्यायपालिका में नियुक्तियां जब निजी संबंधों और प्रभाव के आधार पर की जाती हैं तो न्यायपालिका में इस परंपरा को 'अंकल जज सिंड्रोम' कहा जाता है. “अंकल जज सिंड्रोम” न्यायपालिका में फैले कथित भाई-भतीजावाद और पक्षपात को दर्शाता है. इससे उस सिद्धांत को ठेस पहुंचती है कि न्याय अंधा होना चाहिए.
भारतीय विधि आयोग ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में उच्च न्यायालयों में ‘अंकल जजों’ की नियुक्ति के मामले का उल्लेख किया है, जिसमें कहा गया है कि जिन जजों के परिजन किसी उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे हैं, उन्हें उसी उच्च न्यायालय में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए.
इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल तिवारी के अनुसार अंकल जज सिंड्रोम का झगड़ा बहुत पुराना है. देश में डेमोक्रेसी के लिए जरूरी है कि न्यायपालिका ट्रांसपैरेंट हो. अंकल जज सिंड्रोम की बात सुप्रीम कोर्ट ने कही है. हमने तो कही नहीं.
न्यायपालिका में साफ सुथरी पारदर्शी व्यवस्था हो जहां जनता को शक बिल्कुल न हो. उसे न्याय मिले. सामान्य घरों से आने वाले अधिवक्ताओं के साथ कोई भेदभाव न हो. जजों की नियुक्तियों में पारदर्शिता हो. यही इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन चाहता है. अंकल जज सिंड्रोम जूडिशियरी में बहुत पुरानी है. सीनियर अधिवक्ता और जज अपने बच्चों और रिश्तेदारों को सेट करने के चक्कर में दूसरे योग्य और विद्वान अधिवक्ताओं का हक मारते हैं. जज जो कोलेजियम में हैं वो अपने बच्चों और रिश्तेदारों के नाम को प्रस्तावित करते हैं.
कोलेजियम सिस्टम शुरू में तो ठीक रहा पर फिर गड़बड़ हो गया. जजों की नियुक्ति सरकार के हाथ में भी नहीं देनी चाहिए. यह लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है. पिछले दिनों उच्च न्यायालयों के जो निर्णय आए वो जूडिशियरी के लिए और लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा हैं.
ऐसे में अगर देश की न्यायपालिका भी बिक गई तो देश में गंभीर खतरा पैदा हो जाएगा. भाई–भतीजावाद से न्यायपालिका और आम आदमी को बहुत नुकसान हो रहा है. लोगों को समय से न्याय नहीं मिल रहा. ज्यूडिशरी में तीन-चार पीढ़ियों से जज का बेटा जज बन रहा है और अधिवक्ता का बेटा अधिवक्ता बन रहा है. नए लोगों को मौके नहीं मिल पा रहे हैं. इसमें भाई भतीजा वाद चल रहा है. इससे लोकतंत्र को नुकसान हो रहा है.
इससे तमाम ज्ञानवान और विद्वान अधिवक्ताओं को मौके नहीं मिल रहे हैं. किसी भी आम अधिवक्ता को जज बनने का मौका ही नहीं मिलता. अंकल जज सिंड्रोम को लेकर के कई बार आंदोलन भी किया गया है, लेकिन ज्यूडिशरी में कोई फर्क नहीं पड़ा.
इसको तभी खत्म किया जा सकता है जब कोलेजियम सिस्टम को बिल्कुल खत्म कर दिया जाए. कोलेजियम सिस्टम से ना होकर, नियुक्ति का दूसरा रास्ता निकाला जाना चाहिए.
इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अनुसार जिनका फैमिली बैकग्राउंड होता है. जिनके घर में कोई जज होता है उनके बच्चों को एक दो साल में सैकड़ों बड़े-बड़े केसे दे दिया जाता है. आम एडवोकेट के खाते में कई बार एक केस भी नहीं होता है.
उसे अपनी जमीन तैयार करने में 8 से 10 साल लग जाते हैं. मेरा कहना है कि जिस हाईकोर्ट में यदि किसी का पिता या बेटा जज हो उसको उसी हाईकोर्ट में प्रैक्टिस से रोका जाना चाहिए. कोलेजियम व्यवस्था को खत्म किया जाना चाहिए. जजों की नियुक्ति एकदम पारदर्शी तरीके से होनी चाहिए.
इलाहाबाद हाईकोर्ट के एडवोकेट्स का कहना है कि न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता न होने से न्याय की आस लेकर बैठे लोगों को निराशा हाथ लगती है. जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ एक आम आदमी की तरह ही कार्रवाई करनी चाहिए.
कोलेजियम की व्यवस्था का ही खोट है कि जस्टिस यशवंत वर्मा जैसे लोग जज बन जाते हैं और उनके घर करोड़ों रुपए बरामद होते हैं. ऐसे में समाज का देश का भरोसा न्यायपालिका से उठ जाएगा. जनता हमारे पास आती है. उसे न्याय नहीं मिल पाएगा तो लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगेगा.