बुधवार, 18 अगस्त 2021

ये उम्‍मीदों का वजन है… जो व‍िस्‍फोट तक जा पहुंचा है


 कोरोना के चलते टोक्‍यो ओलंप‍िक इस बार कई मायनों में खास रहा, बायोबबल, आरटीपीसीअर र‍िपोर्ट और क्‍वारंटीन जैसी स्‍थ‍ित‍ियों से जूझते ख‍िलाड़ी, एक और बड़ी समस्‍या से जूझते म‍िले और वो था ड‍िप्रेशन। हालांक‍ि इस पर चर्चा कभी व‍िस्‍तार नहीं पकड़ पाई परंतु टोक्‍यो ओलंप‍िक में अवसाद यान‍ि ड‍िप्रेशन के दो उदाहरण सामने आए। एक तो भारतीय कमलप्रीत कौर और दूसरी अमेर‍िकी ज‍िमनास्‍ट सिमोन बाइल्स। हालांक‍ि कमलप्रीत ने ड‍िप्रेशन के बावजूद 65 मीटर से ज्यादा दूर तक चक्का फेंक कर र‍िकॉर्ड बनाया मगर स‍िमोन ने तो ओलंपिक के फ़ाइनल इवेंट से ही खुद को अलग कर ल‍िया और सरेआम यह स्‍वीकार भी क‍िया क‍ि वे अपेक्षाओं के बोझ को और नहीं ढो सकतीं ।

ड‍िप्रेशन से ही जुड़ी फार्मास्युटिकल मार्केट रिसर्च संगठन AIOCD – AWACS  की एक र‍िपोर्ट आई है जो च‍िंता बढ़ाती है क‍ि भारत में एंटी-डिप्रेशन दवाइयों की ब‍िक्री ने तो इस बार र‍िकॉर्ड तोड़ा ही इन दवाइयों के खरीददारों में युवा उपभोक्‍ताओं की संख्‍या ने भी सारे र‍िकॉर्ड ध्‍वस्‍त कर द‍िए। अप्रैल 2019 में 189.3 करोड़ रुपए की एंटीडिप्रेसेंट की बिक्री, जुलाई 2020 में बढ़कर 196.9 करोड़ रुपए से अधिक थी, अक्टूबर 2020 में यह आंकड़ा 210.7 करोड़ रुपए का था, अप्रैल 2021 में 217.9 करोड़ रुपए के रिकॉर्ड के साथ शीर्ष पर पहुंच गया है।

आख‍िर इन आंकड़ों का क्‍या अर्थ है, न्यूरो-कॉग्नेटिव इंहेंसर केतौर पर इस्‍तेमाल की जाने वाली एंटीड्रिप्रेसेंट्स दवा की बिक्री और खपत में 20 प्रतिशत की वृद्धि क्‍यों हुई। इस बार हमें भले ही कोरोना और लॉकडाउन आड़ म‍िल जाए परंतु पहले भी इनकी ब‍िक्री कोई कम तो ना थी। जब एंटी डिप्रेसेंट दवाएं सबसे पहले 1950 में बनी तो पाया गया कि इनका असर तो तुरंत दिखाई देता है, लेकिन साइडइफेक्ट धीरे-धीरे नजर आते हैं, एंटी डिप्रेसेंट्स दिमाग की संरचना बदल रही हैं, न्यूरोट्रांसमीटर में बदलाव आ रहा है। न्यूरोट्रांसमीटर जो न्यूरॉन्स (दिमाग की कोशिका) के बीच रासायनिक संदेशवाहक बनकर संपर्क बनाते हैं और संदेश भेजते हैं, उन्हें अगले न्यूरॉन में लगे रेसेप्टर ग्रहण कर तो लेते हैं परंतु कुछ रेसेप्टर खास न्यूरोट्रांसमीटर के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो सकते हैं या फिर असंवेदनशील भी। एंटी डिप्रेसेंट्स, मूड बदलने वाले न्यूरोट्रांसमीटर्स का स्तर धीरे-धीरे बढ़ाते हैं। असर होने पर समय के साथ मरीज डिप्रेशन से बाहर आने लगता है।

ओलंप‍िक हो या आम युवा, ड‍िप्रेशन का इतना अध‍िक आंकड़ा और उसे ट्रीट करने के ल‍िए दवाओं का सहारा, यह सोचने के ल‍िए काफ़ी है क‍ि आख‍िर हम जा क‍िधर रहे हैं।

मेरा स्‍पष्‍ट मत है क‍ि आज “अपेक्षाओं के भार” से लदी इस पीढ़ी का पहला मनोरोग है- फ्रीडम और प्राइवेसी और दूसरा है क‍िसी अन्‍य की आकांक्षाओं को सामने रख स्‍वयं को स‍िद्ध करने का दबाव। बस , यही वो “रेत पर बनी नींव” है जो अकेलापन, स्‍वार्थी दोस्त, घर-परिवार से आत्मीयता न होना सहन नहीं कर पाती और छटपटाहट में इसका दलदल इन्‍हें इनके ही भीतर की ओर धकेलता जाता है, नतीजा होता है ड‍िप्रेशन यान‍ि क‍ि जीवन की सच्‍चाइयों से पलायन। और इस आग में घी का काम करती है संवादहीनता।

दरअसल जब आप संवाद रखते हैं, थोड़ा झुकना, सुनना-सहना सीखते हैं तो आप में संयम, क्षमता, बल आता है। हममें से हर एक अपने भीतर चुपचाप “सुख के नीर” की खोज में कुआँ खोदता एक मजदूर हैं ज‍िसके भीतर की ज़मीन कभी कभी लाख कोशिशों के बाद भी पानी नहीं उलीचती। कुआँ खोदने वाले को एक रोज़ यही प्यास “ड‍िप्रेशन” बनकर निगल जाती है।
तो ये ड‍िप्रेशन कोई रोग नहीं बस, स्‍वयं से स्‍वयं के ऊपर लादा हुआ वो बोझ है ज‍िसे एंटीड‍िप्रेशेंट नहीं बल्‍क‍ि स्‍वयं की इच्‍छाशक्‍त‍ि से ही कम कर करके हटाया जा सकता है जैसे क‍ि स‍िमोन बाइल्स ने क‍िया तभी तो उनके प्रत‍ियोग‍िता से हटने का सभी ने स्‍वागत कि‍या।

क‍िसी युवा कव‍ि ने क्‍या खूब कहा है क‍ि —-

इस नगर में,
लोग या तो पागलों की तरह
उत्तेजित होते हैं
या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं।
जब वे गुमसुम होते हैं
तब अकेले होते हैं
लेकिन जब उत्तेजित होते हैं
तब और भी अकेले हो जाते हैं।

- अलकनंदा स‍िंंह

20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 19 अगस्त 2021 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. स्वयं को अन्य के लिए साबित करने का अनपेक्षित प्रयास ही मानसिक रुग्णता की ओर अनजाने में ही अग्रसर करता है । जब यह विकराल रूप धारण करता है तो कितने सवालों को छोड़ जाता है । समय रहते इसका रोकथाम करने के लिए सबों को सोचना चाहिए ।

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    1. धन्‍यवाद अमृता जी, इतनी सटीक छ‍िप्‍पणी के ल‍िए आभार

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  3. हम किधर जा रहे हैं एक बात है उसी से जुड़ी दूसरी बात हम किधर ले जाए जा रहे भी है अंतर बहुत सूक्ष्म है|

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    1. धन्‍यवाद जोशी जी,ये तो स्‍वयं ही देखना होगा कि‍ "कोईभी" हमें क्‍यों ले जा पा रहा हैश्‍कमी कहां है

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  4. “अपेक्षाओं के भार” ये एक सटीक कड़ी है युवाओं में डिप्रेशन की साथ ही बहुत सी और बातें हैं..
    पर ये आने वाले युग की महा विभिषिका हैं।
    चिंतन परक सार्थक लेख अलकनंदा जी।

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  5. विचारणीय लेख अलकनंदा दी।

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  6. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  7. बहुत ही विचारणीय लेख!इंसान को दुनिया में कोई ताकत तोड़ नहीं सकती उम्मीद के अलावा! किसी ने सही कहा है की
    प्यार सबसे करो पर उम्मीद किसी से नहीं क्योंकि तकलीफ रिश्ते नहीं उम्मीदें देती है!
    और यही अवसाद का कारण बनती है!

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  8. बहुत ही बढ़िया सार्थक लेख।
    सादर

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  9. ओलंप‍िक हो या आम युवा, ड‍िप्रेशन का इतना अध‍िक आंकड़ा और उसे ट्रीट करने के ल‍िए दवाओं का सहारा, यह सोचने के ल‍िए काफ़ी है क‍ि आख‍िर हम जा क‍िधर रहे हैं।....अवसाद पर ही सारगर्भित विशलेशण,

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  10. और भी अकेले हो जाते हैं ... ये सच है ... और आज की पीड़ी इसकी सब्सेज्यादा शिकार है ... उन्हें ही इसका हल भी खोजना होगा ...

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