रविवार, 30 मार्च 2014

शक्‍ति का पर्व ...उल्‍लास का पर्व

जीवन अच्‍छी तरह से जीने के लिए, उसके बीच गुजरते हुए ऐसा बहुत कुछ जो अनावश्‍यक है, आवश्‍यक सा जान पड़ता है इसीलिए जीने के हर क्षण को उत्‍सव की तरह जिया जाये तो शक्‍ति का संचार बना रहता है। संभवत: इसीलिए  ऋतुओं के अनुसार बांटी गयी भारतीय आध्‍यात्‍मिक और सांस्‍कृतिक  परंपराओं का चलन कभी निरुद्देश्‍य नहीं रहा । जीने की आकांक्षा और अभिलाषा के संग स्‍वास्‍थ्य व शक्‍ति का तालमेल बना रहे तो  निश्‍चय ही जीवन में उल्‍लास ही उल्‍लास छलकता है।  प्रकृति के चारों ओर नवजीवन और वसंत की खुमारी इस उल्‍लास में जो वृद्धि करती है, उसी से विभिन्‍न शक्‍तियां संजोने के लिए नवरात्रि का प्रावधान हमारे पूर्वजों ने कर दिया था इसीलिए इसे शक्‍ति पर्व कहते हैं।
शक्‍ति का ही पर्व है नवरात्रि। ये शक्ति की अधिष्ठात्री देवी की आराधना व शक्ति की पूजा का पर्व है।
भारतीय संस्कृति में शक्ति स्‍वरूप जगत माता की स्तुति की गयी  है । दुर्गा सप्तशती में शक्‍ति आराधना का मूल 'मातृरूप' में कुछ इस तरह बताया गया है -
 
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।


व्‍यक्‍तिगत साधना एवं सामाजिक उपासना के माध्यम से नवरात्रि पर्व पर मातृ रूपा शक्ति की पूजा का आयोजन शक्ति-ऊर्जा का अधिष्ठान ही तो है।
हमारे यहां आदिशक्ति के त्रिगुणात्मक तीन रूप हैं। सात्वकि रूप में  वह सरस्वती हैं, राजसी रूप में लक्ष्मी व तामसी रूप में दुर्गा है।
सरस्वती बुद्धि की देवी है। बुद्धि को शक्ति एवं ऐश्वर्य से श्रेष्ठ माना गया है अत: वह राजशक्ति व वैभव से कभी प्रभावित नहीं होती । यही कारण रहा कि हमारे ऋषियों और मनीषियों ने सदैव विश्व में जगद्गुरु का सम्मान प्राप्त किया ।
रजोमयी लक्ष्मी- श्रम व ऊर्जा से प्राप्‍त वैभव तक ले जाने वाली  शक्‍ति की परिचायक हैं। ऊर्जा, श्रम व श्री, तीनों की सम्पन्नता से व्‍यक्‍तिगत  व राष्ट्र का भौतिक विकास चरम पर पहुंचता है।
तमोमयी दुर्गा महिषासुर मर्दिनी शक्ति को दर्शाती हैं। आध्‍यात्‍मिक रूप  से यहां महिषासुर को मोह, पशुत्व एवं अज्ञान का प्रतीक माना गया  है। अज्ञान पर विजय शक्ति एवं श्रम से ही संभव है अत: शक्ति  रूपा दुर्गा-काली की उपासना का विधान शक्ति संचयन के लिये  आवश्यक है।
इस तरह जीवन के लिए इन त्रिगुणात्मक शक्तियों को अर्जित करने पर बल  दिया गया है क्‍योंकि बुद्धि, श्रम, ऊर्जा एवं श्री के साथ किये गये  कामों से ही राष्ट्र शक्ति सम्पन्न हो सकता है।
भारतीय जीवन पद्धति को शक्ति संचयन के इस नौदिवसीय अनुष्ठान के  साथ आध्‍यात्‍मिक-सांस्‍कृतिक-पारंपरिक तौर पर जोड़ कर ये उपाय  किये गये कि राष्‍ट्र का प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति शक्‍तिवान बने, खुशहाल बने। कल इस शक्‍तिपर्व का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हो रहा है जो षष्‍ठी को यमुना के जन्‍म का उत्‍सव मनाते हुए रामनवमी तक चलेगा ।
भारतीय संस्कृति में आज हम पर्व व अनुष्ठानों की मूल भावना को  भूलते जा रहे हैं। समय के अभाव के चलते आपाधापी व जीवन की औपचारिकताएं तेजी से बढ़ रही हैं। बीते समय में जिन वैज्ञानिक तथ्‍यों के साथ शक्‍ति संचयन की विधियों को स्‍थापित किया गया था, उन्‍हें पुरातनपंथी कहकर नई पीढ़ियां से दूर किया गया। आधुनिकता के नाम पर आध्‍यात्‍मिक ज्ञान को पोंगापंथियों द्वारा सतही जानकारी तक समेट  दिया गया। सांस्कृतिक आघातों ने  सहिष्णुता एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना से भरी हमारी शक्ति की अनुभूति को दुर्बल बना दिया है। इतिहास साक्षी है कि रामायण व  महाभारत काल में यज्ञ, जप-तप अनुष्ठानों के माध्यम से राष्ट्र सदैव  शक्ति संग्रहण करता रहा और साधना प्रधान नवरात्रि पर्व इस शक्ति के संग्रह का प्रमुख राष्ट्रीय सांस्कृतिक पर्व बना।
इस समय व्रत, हवन, यज्ञ, दुर्गा पाठ आदि अनुष्ठानों से पवित्र वातावरण का सृजन होता है, जिससे पर्यावरण शुध्द होता है एवं ऋतुसंधिकाल होने के कारण जो संक्रामक रोगों के फैलने का अंदेशा भी रहता है, उन सभी का शमन होता है।  शक्‍ति जागरण के साथ नवरात्रि सामूहिक साधना का एक ऐसा पर्व है, जिसे सामूहिक रूप में  मनाने के मूल में राष्ट्रीय संगठन एवं सहकारिता की भावना भी पैदा  होती है।
यह सुखद संयोग ही कहा जायेगा कि अब नई पीढ़ी अपने पर्वों को फिर से वैज्ञानिक दृष्‍टिकोण के साथ देखने को उत्‍सुक दिखाई दे रही है  परंतु जो नुकसान हो चुका है उससे न केवल रूढ़ियों को पनपने का मौका मिला बल्‍कि सुखमय जीवन की जीने की पुष्‍ट परिकल्‍पना को आघात भी पहुंचा है। नई पीढ़ी की मौजूदा वैज्ञानिक सोच से आशायें तो जागी ही हैं।
....तो आओ, क्‍यों न हम ऐसी सभी आशाओं को संजोकर अपने धर्म के उस आध्‍यात्‍मिक स्‍वरूप का साक्षात्‍कार करें जो जीवन के हर पल में उत्‍साह का संचार करता है और हर दिन को उत्‍सव की भांति जीने की संभावना पैदा करता है।
- अलकनंदा सिंह

मंगलवार, 25 मार्च 2014

प्रत्‍युत्‍तर में बस 'तुम' कहना है

तज़ाकिस्‍तान से तुर्की तक प्रसिद्ध सूफी संत जलालुद्दीन रूमी की एक कहानी बड़ी प्रसिद्ध है -

एक दिन प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पहुंच कर द्वार जोर जोर से खटखटाने लगा,बोला- ''दरवाजा खोलो''. बड़ी देर बाद भीतर से आवाज़ आई – "कौन है?" उसने कहा – "यह मैं हूँ!"
द्वार के भीतर से आवाज़ आई – "इस घर में मैं और तुम एक साथ नहीं रह सकते".
द्वार नहीं खुला. प्रेमी बियाबान में ठोकर खाता रहा. वह अपनी सुध-बुध खोकर हर घड़ी इसी प्रार्थना में डूबा रहता कि द्वार किसी तरह खुल जाए. कुछ साल बाद वह लौटा और उसने द्वार को फिर से खटखटाया.
द्वार के पीछे से किसी ने फिर से पूछा – "कौन है?"
प्रेमी ने कहा – "तुम". और बस द्वार खुल गया.

सूफी संतों की एक लंबी कतार में खड़े रूमी ऐसे उपासकों का प्रतिनिधित्‍व करते हैं जो भारत में भी अपनी छाप अभी तक बनाये रखे हैं । इसका एकमात्र कारण हैं कृष्‍ण और कृष्‍ण का बहुआयामी व्‍यक्‍तित्‍व । संभवत: इसीलिए भारत के सभी सूफी संतों को कृष्‍ण की भक्‍ति रास आई । एकमात्र पूर्ण पुरुष कहलाये गये कृष्‍ण स्‍वयं को भी उपासक ही कहते रहे क्‍योंकि ईश्‍वर को पाने और स्‍वयं ईश्‍वर होने, दोनों ही अवस्‍था में स्‍व को स्‍व से ही दूर करने का नहीं बल्‍कि स्‍व को स्‍व में विलीन करने प्रयोग हुआ । इसीलिए कृष्‍ण हमारे जीवन में रमते हुये दिखाई देते हैं ।

सहजता से जो स्‍वयं को पिघला दे , वह ही संत हो जाता है । सूफी संत कभी साधक नहीं बन पाये ,वे उपासक ही रहे । कृष्‍ण के व्‍यक्‍तित्‍व में भी साधना जैसा कुछ नहीं है क्‍योंकि साधना में जो मौलिक तत्‍व है, वह प्रयास है, effort है, बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती । दूसरा जरूरी तत्‍व है- वह है अहंकार, बिना 'मैं ' के साधना नहीं हो सकती। करेगा कौन? बिना कर्ता के साधना नहीं हो सकती... कैसे होगी...कोई तो करेगा...तभी तो साधना होगी ना...। साधना में 'मैं ' की उपस्‍थिति अनिवार्य हो जाती है। साधना शब्‍द ही बहुत गहरे में अनीश्‍वरवादियों का है जिनके लिए कोई परमात्‍मा नहीं ,बस आत्‍मा ही है जिसे पाने की जद्दोजहद में वे लगे रहते हैं।

इसके ठीक उलट उपासना शब्‍द उनका है जो कहते हैं आत्‍मा नहीं, बस परमात्‍मा है...परमात्‍मा ही है...उसके पास जाना है । उपासना का अर्थ है- पास जाना, बैठ जाना, उप-आसन, निकट होते जाना ...लगातार। इतने निकट कि खुद मिटते जायें जबतक...कोई अर्थ नहीं जब रह जाये...तब तक...। क्‍योंकि हमारा डिस्‍टेंस ही हमारे 'होने' को बताता है और जब तक 'होने' की स्‍थिति मौजूद है , तब तक ईगो है।

यह तो निश्‍चित है कि जितने हम खोते हैं, पिघलते हैं , विगलित होते हैं , बहते हैं, उतने ही हम पास होते हैं । जिसदिन हम बिल्‍कुल नहीं रह जाते ...उस दिन उपासना पूरी हो जाती है। जैसे कि बर्फ से पानी बनता जा रहा हो...। जबकि साधना स्‍वयं बर्फ है जो बढ़ती बढ़ती क्रिस्‍टलाइज्‍़ड तो होती है मगर वह बह नहीं पाती। साधना का अर्थ अंतत: आत्‍मा बन जाना है और उपासना का अर्थ है परमात्‍मा बन जाना। जाहिर जो लोग साधना से जायेंगे ,उनकी मंजि़ल आत्‍मा पर रुक जायेगी। वे आगे की बात नहीं करेंगे, वे कहेंगे कि हमने अपने को पा लिया जबकि उपासक अंतत: अपने को खोने के लिए चला है। कृष्‍ण के लिए साधना का इसीलिए कोई अर्थ नहीं रहा , कोई तत्‍व नहीं ...। साधना से तो कठोर होता जायेगा और कृष्‍ण के जीवन व दर्शन दोनों में कठोरता का क्‍या काम...?अर्थ है तो बस उपासना का...जहां कोई 'रूमी' मौजूद तो रहता है मगर उसका 'मैं ' नहीं रह पाता । ' To be' is the only bondage...होना ही एकमात्र बंधन है और ना होना ही एकमात्र मुक्‍ति ।

रूमी,निजामुद्दीन, मोइनुद्दीन की ये सूफी श्रृंखला के संग कबीर , मीरा, रैदास की भक्‍ति किसी का भी उदाहरण लें, सभी में उपासना ही वो साधन था जिसके लिए बस खुद को मिटाकर सबकुछ मिल जाने की स्‍थिति बनी। संभवत: इसीलिए आज भी सूफियों और भक्‍त कवियों की आमजन से निकटता अधिक रही और इसीलिए कृष्‍ण भी आमजन को ईश्‍वर की बजाय सखा अधिक लगे । उनका ये सखाभाव ही सरलता से ईश्‍वर के करीब होने का मार्ग दिखा भी देता है और 'मैं ' को मिटा भी देता है...कब और कैसे... कृष्‍ण से हम एकात्‍म हो जाते हैं...पता ही नहीं चलता । दरवाजा खोलने के लिए हमें आवाज के प्रत्‍युत्‍तर में बस 'तुम' कहने तक ले जाना है ।

- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 22 मार्च 2014

बाजीगरी या जीतने का डर...

जीतने की आपा-धापी है...एक लंबी दौड़ है...पांव ही नहीं मन को थका देने वाली... और दौड़ में हम अपने को खोने की ओर बड़ी तेजी से भाग रहे हैं। जीतने की इच्‍छा से उपजा असंतुष्‍टि का भाव है। जो मौजूद है उसकी खुशी नहीं हो पा रही और जो नहीं मिला उसे लेकर मन को विकृत किये ले रहे हैं।
एक बार लाओत्‍से ने अपने मित्रों से कहा कि आज तक कोई मुझे हरा नहीं सका...इतना सुनते ही जितने भी मित्र वहां मौजूद थे, उन सभी मित्रों ने झड़ी लगा दी प्रश्‍नों की कि बताओ... बताओ वो कौन सी विधि है जिससे तुम्‍हें कोई हरा नहीं सका, हमें भी बताओ तो..ताकि हमें भी जीत हासिल हो सके। लाओत्‍से ने कहा कि तुम सभी ने मेरा पूरा वाक्‍य ही नहीं सुना और जीत का मंत्र हासिल करने को अधीर हो उठे।
लाओत्‍से बोला, ''मैंने कहा, मुझे ज़िंदगी में कोई हरा न सका था क्‍योंकि मैं पहले से ही हारा हुआ था... मुझे जीतना मुश्‍किल था, क्‍योंकि मैं जीतना ही नहीं चाहता था... तुम मेरे राज को नहीं समझ सकते क्‍योंकि तुम जीतने की आकांक्षा करते हो और वही तुम्‍हारी हार बन जायेगी। सफलता पाने की आकांक्षा ही अंत में असफलता का कारण बनती है। बिल्‍कुल ऐसे ही जैसे कि जीवन की अति आकांक्षा ही अंत में मृत्‍यु बनती है, स्‍वस्‍थ होने का पागलपन ही बीमारी बनता है। ज़िंदगी बहुत अद्भुत है, जिस चीज को हम जोर से मांगते हैं उसी को खो देते हैं। ठीक मुठ्ठी में बंधी रेत की भांति। जीतने की इच्‍छा रखना ही हार की ओर पहला कदम है। प्रकृति ने हमें बहुत कुछ दिया है उसका उसी रूप में अर्थात् प्राकृतिक रूप में ही आनंद लेने की बात होनी चाहिए। ये जीतने की होड़-दौड़ कहीं नहीं रुकती ।
जीत लेने और जीत जाने की बात वही करता है जो कहीं से स्‍वयं को कमतर आंकता है और बार-बार जीत लेने का दावा करता है। जो अपने पास है उसे जीतना क्‍या और जो पास नहीं है उसे कैसे जीता जा सकता है।
मार्शल आर्ट की सभी विधियों में यही सिखाया जाता है कि वार मत करो..वार करने में शक्‍ति जाया होती है। जो पहला वार करेगा वह निश्‍चित ही अपनी आंतरिक व बाह्य शक्‍ति को वार करने में गंवा देगा, जीतने में उसका एक कदम पीछे हो जायेगा। शक्‍ति प्रदर्शन की एक प्रचलित विधि काफी विख्‍यात है- जूडो यानि जुजुत्‍सु, जिसमें शारीरिक शक्‍ति के प्रयोग से पहले मन की दृढ़ता पर काम किया जाता है, प्रतिद्वंदी पर विजय की आकांक्षा नहीं बल्‍कि स्‍वयं को स्‍थिर रहने की शिक्षा दी जाती है, परिणामत: अंत में वही विजयी होता है जो स्‍थिर रह पाता है। निश्‍चित ही शक्‍ति भी उसी के हाथ होगी जो जीतने की इच्‍छा का दमन कर सकेगा और प्राकृतिक व्‍यवहार करेगा ।

गीता में कृष्‍ण अर्जुन से कहते भी हैं कि-

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्रानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ।।38।।

अर्थात्

मैं दमन करने वालों का दण्ड अर्थात् दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छा वालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्व ज्ञान मैं ही हूँ ।।38।।

कृष्‍ण और लाओत्‍से, दोनों की बात पर गौर करें तो पता लगता है कि जीतता वही है, जो हारने को भी तैयार रहता है। यहां समस्‍या यह है कि कोई हारने को तैयार ही नहीं। शायद इसीलिए कोई जीत नहीं पाता और हर बार जब जीत की आकांक्षा के साथ उतरता है तो मन के किसी कोने में हार पहले से घर कर चुकी होती है। वह न खुद से संतुष्‍ट रहता है, न किसी को संतुष्‍ट कर पाता है।

- अलकनंदा सिंह





सिर्फ सज़ा से काम नहीं चलेगा

अस्‍मिता को एक निश्‍चित ठौर दिलाने के लिए बाहर निकली महिला आज कई प्रश्‍नों से एक साथ जूझ रही है । इसके लिए घर से बाहर तक फैले अनेक प्रश्‍नों के चक्रव्‍यूह हर रोज भेदने पड़ते हैं और इस लक्ष्‍यभेदन में औरत का हौसला बढ़ा रहे हैं दिल्‍ली से लेकर मुंबई तक अदालतों के वो निर्णय जिन्‍होंने बलात्‍कारियों को सजा देकर विश्‍वास कायम रखा ।
पिछले दिनों  गैंगरेपिस्‍ट को जिस तरह से अदालतों ने कड़ी सजा सुनाई है वो सुकून तो देते हैं और आशा का संचार व हौसलाअफजाई भी कराते हैं मगर अभी नाकाफी हैं । दरअसल महिलाओं के लिए असुरक्षा का ये सांप जो पूरे देश में लगातार अपना फन फैलाता जा रहा है, वह हमारे देश की अंतर्राष्‍ट्रीय बुराई का भी एक कारण बन गया है । तभी तो देश की तमाम तरक्‍कियों पर कुंडली मारे बैठी हमारे कानून और सुरक्षा व्‍यवस्‍था की ये एक कमी विश्‍वभर की औरतों के कान खड़े कर रही है कि भई...भारत मत जाना...वहां तुम्‍हारी इज्‍़जत की ऐसी तैसी करने को शोहदे हर तिराहे -चौराहों पर, मेट्रो से लेकर होटल की लॉबी तक खड़े हैं। और तो और महिलाओं के लिए असुरक्षित, विश्‍व का चौथा देश बन गया है भारत।
जहां तक बात है बलात्‍कार जैसे घृणित अपराध की जड़ों तक पहुंचने की तो तमाम अन्‍य अपराधों की भांति बलात्‍कार भी कानून, समाज, संस्‍कृति और पारिवारिक मूल्‍यों के अवमूल्‍यन का परिणाम है। सामाजिक व मानसिक स्‍तर पर देखा गया है कि रेप जैसी घटना को अंजाम देने की प्रवृत्‍ति घर से ही उपजती है। इसे पनपाने में 'हमें क्‍या मतलब' या 'ये उनका घरेलू मामला है' जैसे जुमलों का भी हाथ होता है। सामाजिक होने की बजाय एकल मानसिकता से महिलाओं के प्रति आक्रामक नज़रिये में इज़ाफा ही हुआ है। जनसंख्‍या का विस्‍फोटक होते जाना, शिक्षा का गिरता स्‍तर, आधुनिक साधनों का बेतरतीब प्रयोग, कुछ ऐसा बढ़ा है कि जैसे बंदर के हाथ में उस्‍तरा पकड़ा दिया हो । ज़ाहिर है सोचविहीन संस्‍कारों ने ऐसी स्‍थिति बना दी कि अब ना बाप बेटी को देख  पा रहा है और ना भाई बहन को। भक्ष्‍य भी और अभक्ष्‍य...सब-कुछ हवस की आग में भस्‍म हो रहा है।
कुल मिलाकर स्‍थिति इतनी विस्‍फोटक हो चुकी है कि पहले दिल्‍ली और कोलकाता व  मुंबई जैसे औरतों के लिए सुरक्षित माने जाने वाले शहरों में रेप की घटनायें ताबडतोड़ बढ़ीं, फिर छोटे-छोटे शहर भी इसकी जद में आ गये।
इसी संदर्भ में उदाहरण स्‍वरूप दिल्‍ली मेट्रो का एक वीडियो सीन मेरे दिमाग में लगातार कौंध रहा है जो सोशल साइट्स के जरिये कुछ फेमिनिस्‍ट्स ने वायरल किया। इस वीडियो में एक गर्भवती महिला और दो महिलायें अपनी गोदी में बच्‍चों को लेकर ट्रेन के दरवाजे से सटे पिलर को पकड़े खड़ी हैं और पास की ही 'महिलाओं के लिए आरक्षित सीट' पर बैठे दो युवा लड़के आराम से कान में ब्‍लूटूथ लगाये म्‍यूजिक का आनंद ले रहे हैं ...उक्‍त फेमिनिस्‍ट ग्रुप ने बाकायदा लोगों से राय मांगी...लोगों ने राय दी भी ...लाइक करने वालों की संख्‍या देखकर लगा कि अचानक से हमारा समाज इतना सभ्‍य कैसे हो गया..इत्‍तिफाकन लाइक करने वालों में ऐसे लोग भी थे जो  पहले कभी औरतों के लिए शर्मनाक कमेंट लिख चुके थे...फेमिनिस्‍ट्स ने उनकी बखिया उधेड़नी शुरू की...तो समझ में आया कि दोहरी मानसिकता वाली प्रवृत्‍ति भी ऐसे अपराधों के बढ़ाने में एक कारक है।
बलात्‍कार पहले भी होते रहे हैं ..आगे भी रुकेंगे या नहीं ..फिलहाल तो ऐसा नहीं कहा जा सकता मगर स्‍वयं औरत में 'अपने शरीर पर अपना अधिकार' वाली जो चेतना आई है, उससे  इतना तो हुआ कि अब बलात्‍कार पर बात तो की जा रही है...विचारों का प्रवाह बना है...अपराध और अपराधी की जड़ों तक पहुंचने का रास्‍ता बना है..गलत करने पर उसे कड़े दंड का भय इसमें निश्‍चितत: अपनी निर्णायक भूमिका निभायेगा। औरत की  इज्‍ज़त का मतलब उसके जिस्‍म से परिभाषित करने की 'स्‍थापित मानसिकता' को अब आंख दिखाने का वक्‍त आ गया है।
- अलकनंदा सिंह

बुधवार, 19 मार्च 2014

समय के साथ...समय की ..प्रतीक्षा



जीवन में सब कुछ जैसा हम चाहें या कल्‍पना करें वैसा ही नहीं होता। सभी कुछ हमारे सोचे  हुये समय पर घटित नहीं होता। घटित होने वाले निश्‍चित क्षण होते हैं जिसके लिए प्रतीक्षा  करनी होती है। समय है जिसकी राह देखनी होती है। अवसर है जिसके लिए रुकना पड़ता  है। इसे किन्‍हीं भी आयामों में देखा जाये, नतीजा एक ही आता है कि तमाम स्‍वतंत्रताओं  के बाद आज भी हम समय के आधीन  हैं। हमारे ग्रंथों से लेकर आज तक 'समय' के इस एकमेव आधिपत्‍य से कोई नहीं बच सका,  स्‍वयं राम और कृष्‍ण जैसे हमारे ग्रंथों के महानायक भी नहीं। वे अपने समय से जूझे अवश्‍य परंतु उसकी अवहेलना करके नहीं वरन उसकी प्रतीक्षा को कसौटी बनाकर। प्रतीक्षा करके ही समय के उस निश्‍चित क्षण को पाया भी जा सकता है, उसका आनंद लिया जा सकता है।
समय की प्रतीक्षा का सबसे  सटीक उदाहरण है अहिल्‍या का, जो नाम था शुद्धता का।  ऋषि गौतम जैसे मन के तम को भी शुद्ध कर देने वाले ज्ञानी पति  के हुये भी समय के प्रतिकूलन का शिकार बनी । पति के अविश्‍वास का दंश झेलने और सही समय की प्रतीक्षा में पत्‍थर हो गई । उसका पत्‍थर हो जाना , सारी चेष्‍टाओं का निष्‍क्रिय हो जाना, राम की प्रतीक्षा करना अर्थात् एक निश्‍चित 'समय' की प्रफुल्‍लता के लिए  प्रतीक्षा करते करते पत्‍थर की तरह जड़ हो गई स्‍त्री, सबकुछ गंवाने का भय के साथ मन-तन से अचेतन... जड़ता के प्रभाव से वो पड़ी हुई स्‍त्री पत्‍थर ही तो हो गई होगी।
यूं तो पत्‍थर हो जाना कवि की कल्‍पना है जो चेतनावस्‍था की निष्‍क्रियता दर्शाती है। ऐसा व्‍यक्‍ति जो क्रियाशील नहीं है, वह जड़ हो जाता है वह पत्‍थर हो जाता है मगर वह स्‍त्री है अहिल्‍या...जो राम से  खिल पायेगी,राम के स्‍पर्श से ही खिल पायेगी... वह तो जब तक राम ना मिलें तब तक पत्‍थर  ही रहती है। ऐसा नहीं है कि अहिल्‍या कोई शिला बनकर ही पड़ी थी । वह तो कवि का 'मेटाफर' है बस..समय की प्रतीक्षा और उसका एक्‍ज़िस्‍टेंस दिखाने के लिए ।
अहिल्‍या की कहानी  और कवि की कल्‍पना का निचोड़ सिर्फ इतना है कि जो स्‍त्री राम के स्‍पर्श से जीवित हो सकती  है, चेतना बन सकती है, किसी और का स्‍पर्श तो उसे जड़ ही बना छोड़ेगा ना...फिर चाहे वह पुन: मिले ऋषि गौतम ही क्‍यों ना हों । हरेक की अपनी प्रतीक्षा है ... हरेक की अपनी अवेटिेंग है...। निश्‍चित क्षण आये बिना वह घटित नहीं होती, ना कभी हुई है। प्रतीक्षा में एक उत्‍सुकता का जन्‍म स्‍वाभाविक ही है और यदि उत्‍सुकता है तो प्रतीक्षा समाप्‍ति पर मिलने वाला आनंद भी उच्‍चभाव का ही होगा ना। एक अहिल्‍या ही क्‍यों समय की प्रतीक्षा के उदाहरण तो चारों ओर बिखरे पड़े हैं। कारण कोई भी रहे हों परंतु अपने हिस्‍से के समय की प्रतीक्षा तो सभी को करनी पड़ी।  आज भी सही समय की प्रतीक्षा करना ही हमारे भीतर बैठे धैर्य का परिचय हमसे करवाता है, यही निश्‍चित है ।

- अलकनंदा सिंह

शनिवार, 15 मार्च 2014

जाय नर ते नार बनावौ री, होरी में..

और ये लीजिए, होली का त्‍यौहार अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ कि दो दिनों में समाप्‍त होने जा रहा है ...प्रेम की इस पाक्षिक हिस्‍सेदारी से बचे दो आखिरी दिनों में प्रेम की और दो बातें कर लीजिए....फिर तो वही ढर्रे पर चल निकलेगी ज़िंदगी अपनी-अपनी । इन दो दिनों यानि आज और कल.. जब तक कि होली की धूल ना उड़ जाये तब तक हर मज़ाक 'बुरा ना मानो होली है'  के छत्र के नीचे महफूज़ है वरना इसके बाद यदि मजा़क किया तो बस समझो...कि तुम नहीं या फिर हम नहीं...
ब्रजवासी होने के नाते मुझे सर्वाधिक खुशी तब होती है जब सुनती हूं कि जग होरी.. तो ब्रज होरा । अब देखिए ना ...नई दिल्‍ली के हिंदी भवन में भी राधा-कृष्‍ण ने  फूलों की होली खेली, टीम के कलाकारों ने बड़ी सहजता के साथ ब्रज के लोकगीत और भावना दोनों ही का अच्‍छा प्रदर्शन किया तो सिर्फ इसलिए कि अब भी 'जग होरी ब्रज होरा' यानि प्रेम का ये रंगीला उत्‍सव पूरे देश में लगातार महीनेभर तक कहीं नहीं मनाया जाता सिवाय ब्रज के...वह भी पूरे उत्‍साह से..हमारी यानि ब्रजवासियों की होली तो वसंत के रस का , कृष्‍ण की ठिठोलियों का, गोपियों की  मार का, प्रेम के हर रूप का , सौहार्द्र के हर ढंग का पूरा आनंद लेते हुये शुरू होती है और ऐसे ही विराम लेती है अगले साल के मधुमास का...तो यूं हुई 'जग होरी तो ब्रज होरा '।
'जग होरी ब्रज होरा' कहकर ब्रजवासी कृष्‍ण- राधा के स्‍वरूप पूरे विश्‍व में अब भी होली को उत्‍साह का त्‍यौहार बनाये रखने की मशक्‍कत कर रहे हैं। ये बात अलग है कि हमारे ब्रज में ये मशक्‍कत त्‍यौहारी खुशी से ज्‍यादा अब व्‍यवसायिक अधिक बनती जा रही है । वसंत पंचमी से शुरू हो जाता है ये मदनोत्‍सव । और अपने चरम पर होता है मंदिरों में...जब राधा-कृष्‍ण पर अबीर उड़ाकर ये होली पूरे एक महीना तक चलती रहती है और तमाम प्रसिद्ध मंदिरों में अपनी स्‍थापित रस्‍मों से दाऊजी के हुरंगा पर जाकर विश्राम करती है । तमाम सामाजिक व व्‍यवहारिक बदलावों से जूझती होली भी अब मंदिरों का उत्‍सव ही बनकर रह गई है। सेवायतों के हाथों उड़ते गुलाल..भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़े ... भीगते भक्‍त..बायें से दायें और दायें से बायें परदे को करते सेवायत..... ताकि भगवान ऐसे भक्‍तों की भीड़ में भी 'एकांत' से भोग लगा सकें...केसर- चंदन, फूल, रंगों से भरी पिचकारी से सराबोर होते भक्‍त...ये हर साल का एक रटारटाया सा अंदाज़ बन गया है।
बहरहाल, उत्‍सव तो उत्‍सव है और वो भी मस्‍ती का...परिवर्तन के अनेक झंझावातों से जूझते  हुये ...होली के 'डांढ़े गाड़ने से लेकर दाऊजी के हुरंगा ' तक का ये सफर बेहद रंगीला ..चटकीला और हठीला तो होता ही है, साथ ही मदमस्‍त भी करता है इसीलिए ब्रज की होली का हर रूप आज भी हमें  ही नहीं पूरे विश्‍व को गुदगुदाता है । तो बस..जाइये और होली मनाइये..... कुछ रंग हमारे ब्रज के खुद को भी, अपने घरों में, रिश्‍तों में, दोस्‍तों में भी लगाइये....और गाते जाइये ...होरी खेलन आयौ श्‍याम आज  जाय रंग में बोरौ री-इ-इ-इ....या फिर जाय नर तैं नार बनावौ री -इ-इ-इ..होरी में ....।
तो ऐसी ही है ...जग होरी ब्रज होरा  ।
आप सभी को होली की शुभकामनायें
-अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 13 मार्च 2014

बस! एक बार तुम मदालसा ...बन जाओ

रानी मदालसा....मदालसा एक पौराणिक चरित्र है जो ऋतुध्वज की पटरानी  थी और विश्वावसु गन्धर्वराज की पुत्री थी...मगर उनका पत्‍नी व पुत्रीरूप का ये परिचय किसी को भी पता नहीं क्‍योंकि उन्‍होंने वेदान्‍त व ज्ञान का अपना अलग परिचय स्‍थापित किया । बेहद ज्ञानी और वेदों के  अनुसार अपने पुत्रों को ज्ञान के संग जीवन जीने की पद्धति सिखाने वाली ऐसी माता जिसका उदाहरण हम आज भी देने को विवश हैं क्‍योंकि 'मदालसा ने अपने पुत्रों को ब्रह्मचर्य, गृहस्‍थ और संन्‍यास  की जिस सरलता से शिक्षा दी वह  पिता के वश में नहीं था'। यहां संस्‍कार-संसार- कर्तव्‍य और जिज्ञासा में पिता की शिक्षाओं को गौण बना देती हैं मदालसा....  क्‍योंकि संस्‍कारहीन पुत्र ना तो अच्‍छा शासक बन सकता है और न ही अच्‍छा पुत्र।
 मदालसा का ज़िक्र इसलिए आज कर रही हूं क्‍योंकि शिक्षा देने की वह सरलता और 'संस्‍कार' देना आज की मांओं के लिए बेहद जरूरी हो गया है। संस्‍कार विहीनता को 'पुरुषों की आदत' बताकर मांएं अब अपने कर्तव्‍य से मुक्‍ति नहीं पा सकतीं। कुछ बिंदु ऐसे हैं कि जो शिद्दत से हमें अपने भीतर  झांकने को प्रेरित करते रहे हैं।
जैसे कि-
कल जब दामिनी के हत्‍यारों की फांसी की सजा दिल्‍ली हाईकोर्ट ने बरकरार रखी तो सोशल नेटवर्क साइट्स पर खुशी जताई जाने लगी.....उन दरिंदों को जी भर- भर के कोसा जा रहा है...दामिनी की माता ने कहा कि दामिनी की आत्‍मा को शांति तभी  मिलेगी, जब इनको फांसी पर चढ़ा दिया जायेगा।
बेशक इस केस में सरकारी सुरक्षा बंदोबस्‍तों से लेकर आमजन की  संवेदनहीनता और इतनी रात को बाहर घूमने वाली मेट्रो संस्‍कृति, तीनों ही किसी हद तक बराबर की जिम्‍मेदार हैं मगर समस्‍या की गंभीरता का हम यदि उसके चंद लक्षणों से पोस्‍टमॉर्टम करेंगे तो बात अधूरी रह जायेगी और आधा सच या आधा झूठ दोनों की स्‍थिति  बेहद खतरनाक होती है ।
दामिनी केस का उदाहरण तो सिर्फ मैंने अपनी बात रखने के लिए दिया वरना एक दामिनी ही क्‍यों, देश के अन्‍य शहरों-कस्‍बों- गांवों में...नाक के नाम पर.. इज्‍ज़त के नाम पर ...जाति के नाम पर... जो तमाम दामिनियां हर रोज बलि चढ़ाई रहीं हैं, उनका क्‍या...?
विचारने की बात तो ये है कि आखिर हम किस-किसको फांसी पर चढ़ायेंगे।   समस्‍या  से निजात पाने का ये रास्‍ता किसी समाधान की ओर नहीं ले जाता वरन इससे तो स्‍त्री और पुरुष के बीच और ना जाने कितनी खाइयां तैयार हो जायेंगीं जो शरीर से लेकर सोच तक प्रभावित करेंगी । कम से कम मैं तो फांसी के  खिलाफ हूं क्‍योंकि इससे तो अपराधी को उस कष्‍ट से मुक्‍ति मिल जायेगी जिसे पल-पल पाने का वह हकदार है। और कुछ दिनों में वो लोग भी भूल जायेंगे जो उनके लिए फांसी की मांग कर रहे होंगे। ये एक अलग तरह के अपराध की शुरूआत होगी... जान के बदले जान जैसी...खैर, ये तो वैसे भी कानूनी बात रही, इस पर बात फिर कभी.... ।
दरअसल लैंगिक बर्बरता संबंधी समस्‍या की जड़ें तो हमारे ज़हन में ही बैठी हैं सदियों से, जहां शरीर ही नहीं मन से भी स्‍त्री को हेय माना जाता है और पुरुष-मन में बैठी यही हेय-प्रवृत्‍ति कब अपने पाशविक रूप में  आ जाये, कहा नहीं जा सकता। बेडरूम से लेकर सड़क तक पीछा  करती है यह हेय-प्रवृत्‍ति... यही प्रवृत्‍ति स्‍त्री को पुरूष द्वारा तय किए गए 'हक़' के दायरे में रहने को बाध्‍य करती है और इसी के जरिए बड़ी सरलता से पुरूष स्‍वयं को अभिभावक से निर्धारक की भूमिका में ले आता है । नतीजतन जो बेडरूम में होता है, उसे कोई नहीं देखता और जो सड़क पर होता है...उसे लेकर सब न्‍यायाधीश बन उठ खड़े होते हैं । ये  एसी सोचों का दोमुंहापन है जो राम और छुरी दोनों की बात एक साथ करता है।
हमारा उद्देश्‍य ऐसे अपराधों के प्रति चेतना जागृत करने का होना चाहिए और यह चेतना स्‍त्री को अपनी स्‍वतंत्रता के साथ- साथ अपनी अगली पीढ़ी में पिरोनी है... ताकि जो पुत्र अपने पिता या अन्‍य बुजु़र्गों को घर की स्‍त्रियों को हेय बतातेदेखते-बताते हुये बड़ा हुआ है वह स्‍वयं कम से कम इस कुप्रवृत्‍ति से दूर रहे..।
चुनौतियां ज्‍़यादा हैं..मदालसा के समय से कहीं और ज्‍़यादा..इसलिए यह कार्य सहभागिता से ही संभव है। अलग-अलग चलकर स्‍वतंत्र अस्‍तित्‍व हासिल कर भी लिया तो क्‍या हो जायेगा...अपने बच्‍चों में संस्‍कार तो अलग-अलग चलकर या एक दूसरे को हेय बताकर नहीं दिये जा सकते ना । मामला अगली पीढ़ी को संस्‍कारवान बनाने का है..काम बड़ा है मगर मुश्‍किल नहीं।
बहरहाल रानी मदालसा का उदाहरण हम और हमारे समाज में नई पीढ़ी की मांओं के लिए एक उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है..पुरानी पीढ़ी ने तो अपनी अज्ञानता में ना जाने कितना समाज को विकृत कर दिया...। अब यह सोच छोड़नी होगी कि ''हम भला क्‍या कर सकते हैं इसमें...''बल्‍कि हम ही कर सकते हैं यानि बस हम ही...देखें तो सही एकबार मदालसा का अनुसरण करके..। ''निश्‍चित जानिए कि यदि ऐसा हम कर पाये तो..हम समाज के अपराधों की जड़ को मिटा ना भी पाये तो हिला तो जरूर सकते हैं....फिर ना दामिनी वीभत्‍सता को झेलेगी और ना ही किसी को फांसी देने की जरूरत पड़ेगी... ।
- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 10 मार्च 2014

लखनऊ : अब इमामबाड़ा में भी ड्रेस कोड

लखनऊ। 
लखनऊ के विश्वप्रसिद्घ और ऐतिहासिक इमामबाड़े की सैर के लिए अब महिलाओं को सिर ढक कर ही जाना होगा. इमामबाड़ा प्रशासन ने महिलाओं के लिए ड्रेस कोड पर मोहर लगाते हुए सिर ढक कर प्रवेश करने की शिया समुदाय की मांग को मान लिया है. शिया समुदाय की ओर से दो साल पहले उठी इस मांग पर पिछले दिनों हुसैनी टाइगर्स के कार्यकर्ताओं द्वारा तेज हुई कवायद के बाद रविवार को हुसैनबाद ट्रस्ट के सचिव एडीएम पश्चिम एचपी शाही ने इस पर अपनी मोहर लगा दी. एडीएम ने बताया कि बड़ा इमामबाड़ा धार्मिक स्थल है और शिया समुदाय की आस्था का केंद्र है. इसलिए शिया समुदाय की मांग के मुताबिक महिलाओं के लिए ड्रेस कोड लागू कर दिया गया है.
महिला सैलानी इमामबाड़े में अब बिना सिर ढके प्रवेश नहीं करेंगी. इसके लिए टिकट काउंटर के साथ ही दुपट्टा देने के लिए भी काउंटर बनाया जाएगा, जहां महिलाओं को सिर ढकने के लिए दुपट्टा मुहैया कराया जाएगा. जिन महिलाओं के पास दुपट्टा होगा, उन्हें इमामबाड़े में प्रवेश के दौरान सिर ढकने को कहा जाएगा.
दूसरी ओर, शिया धर्मगुरु मौलाना कल्बे जव्वाद ने कहा कि देर से ही सही धार्मिक स्थल के अदब को लेकर प्रशासन ने सही कदम उठाया है. हुसैनी टाइगर्स के अध्यक्ष शमील शम्सी ने महिलाओं के सिर ढक कर प्रवेश की मांग को माने जाने पर खुशी जताते हुए मांग पूरी करने पर प्रशासन का आभार जताया.

रविवार, 9 मार्च 2014

''मदरसे'' में तेजी से तब्‍दील होती एएमयू

क्या अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी मदरसा बनने की राह पर है? ऐसी शिकायत वहां के स्टुडेंट्स की है। यूनिवर्सिटी के कैंपस में फिलहाल जैसा माहौल है, उसमें स्टुडेंट्स दो ग्रुप में बंट गए हैं। एक वैसा ग्रुप है जो चाहता है कि कैंपस में उदार माहौल हो और स्टुडेंट्स पर कुछ भी थोपा न जाए। दूसरा ग्रुप वह है जो कैंपस को इस्लामिक कायदों से चलाना चाहता है। यह ग्रुप चाहता है स्टुडेंट्स हर हाल में इस्लामिक परंपरा के मुताबिक रहें। इसमें लड़कियों के लिए बुरका और दिन में पांच बार नमाज अदा करने की बात है।
वैचारिक टकराव से कैंपस में स्टुडेंट्स की बीच लकीरें खींच गई हैं। सबसे दिलचस्प वाकया तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर हुआ। इस मौके पर एक सेमिनार का आयोजन किया गया था। सेमिनार में महिला ऐक्टिविस्ट और सुप्रीम कोर्ट की वकील वृंदा ग्रोवर आमंत्रित थीं। उन्हें महिला सशक्तीकरण पर बोलना था लेकिन कैंपस में एक ग्रुप द्वारा पोस्टर लगाकर फरमान जारी किया गया था कि महिला स्टुडेंट्स सेमिनार में बुरका पहनकर ही जाएं। जब वृंदा ग्रोवर को कैंपस में ऐसी कट्टर गतिविधियों को बारे में पता चला तो उन्होंने खुद को उस सेमिनार से अलग कर लिया।
एएमयू में साहब अहमद लॉ फोर्थ इयर के स्टुडेंट हैं। वह कैंपस में बढ़ते इस्लामिक कट्टरता से परेशान हैं। उन्हें लगता है कि कैंपस में उदार स्पेस हर हाल में बची रहनी चाहिए। वह सवाल करते हैं कि क्यों लोग एएमयू को मदरसा बनाने पर तुले हैं? क्या इसे अलीगढ़ मिल्लत यूनिवर्सिटी बन जाना चाहिए? खुदा के लिए इसे बख्श दें, क्योंकि यह सेंट्रल यूनिवर्सिटी है। कैंपस में अहमद की तरह कई लोग इसी तरह सोचते हैं। होस्टेल में लड़के शॉर्ट कपड़े पहनते हैं तो उन्हें टॉर्चर किया जाता है। यहां तक कि कुरता पहनना भी लोगों को नागावार गुजर रहा है। लड़कियां भी स्लीवलेस कपड़े और कैप्रीज नहीं पहन सकतीं। जाहिर है वह कैंपस में डांस भी नहीं कर सकतीं। यहां तक कि होस्टेल में रात में भी डांस पर पाबंदी है। इन पहनावों को कैंपस में अश्लीलता से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में कोई भी ऐसी ड्रेस पहनकर मुश्किलों को दावत नहीं देना चाहता।
कैंपस में लिबरल ग्रुप पब्लिक स्पेस पर धार्मिक गतिविधियों के खिलाफ है। जैसे होस्टेल और कॉमन रूम में मजहबी गतिविधियां 'तजवीद', 'दवाह' और कुरान पाठ पर इस ग्रुप को आपत्ति है। इस बारे में शिकायत भी की गई है। एक दूसरे स्टुडेंट ने कहा कि मुस्लिम स्टुडेंट्स होस्टेल रूम के बगल में नमाज अदा करते हैं लेकिन कॉमन रूम में भी ऐसी गतिविधियां जारी हैं। छात्रों का कहना है कि यूनिवर्सिटी को कैंपस में लिबरल स्पेस की फिक्र होनी चाहिए। एक स्टुडेंट ने बताया कि कॉमन रूम में लोग आकर टीवी बंद कर देते हैं और बाहर निकलने का निर्देश देते हैं। वीकेंड के मौके पर कैंपस में और पब्लिक स्पेस पर जमात के लोगों की ऐसी हरकतें आम हैं।
लेकिन दूसरी तरफ स्टुडेंट्स ऑफ एएमयू के मेंबर अब्दुल राउफ अपने ग्रुप की इन गतिविधियों को जायज ठहराते हुए कहते हैं कि किसी के साथ कुछ भी जबरन नहीं किया जाता। वह उलटा सवाल पूछते हैं कि यदि ऐसा है तो यूनिवर्सिटी प्रशासन ऐक्शन क्यों नहीं लेता? कैंपस में कट्टर गतिविधियों से उदार पसंद स्टुडेंट्स काफी आहत हैं। उनका कहना है कि एएमयू होस्टेल में जैसी धार्मिक गतिविधियां जारी हैं, उनसे कई सवाल खड़े होते हैं। उन्होंने बताया कि होस्टेल में कट्टर ग्रुप महिलाओं को लेकर प्रवचन देता रहता है। यह ग्रुप महिलाओं को हिजाब पहनाने, धीमी आवाज में बात करने और पुरुषों से दूरी बनाकर रखने की नसीहतें देता है। उसका यह भी कहना है कि शरिया लागू करने से ही रेप की वारदात पर लगाम लग सकती है।
-एरम आगा

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

'इंडिया : द स्टोरी यू नेवर वॉन्टेड टु हियर'

आज अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस है। तमाम बखानों के संग और औरतों के लिए लिखने- बोलने- कसीदे पढ़ने , उनसे प्रेम और विश्‍वास की कामना पालने वाले पुरुषों की सोच की बखिया उधेड़ती इस रिपोर्ट को ज़रा पढ़ें.....

पिछले दिनों अमेरिका के शिकागो यूनिवर्सिटी की एक स्टूडेंट की भारत में स्टडी ट्रिप के दौरान सेक्शुअल हरासमेंट की खौफनाक कहानी नेट पर छाई रही। मिशेला क्रॉस नाम की यह स्टूडेंट पिछले साल एक स्टडी ट्रिप के दौरान भारत आई थीं। इस दौरान जहां वह भारत की खूबसूरती और अन्य चीजों ने काफी प्रभावित हुईं, वहीं उन्होंने भारत को महिलाओं के लिए अनसेफ भी बताया।
उन्होंने कुछ महीनों की अपनी ट्रिप के दौरान खुद के सेक्शुअल हरासमेंट के भी आरोप लगाए। उन्होंने भारत को ट्रैवलर्स के लिए स्वर्ग और महिलाओं के लिए नरक बताया। अमेरिका लौटने के बाद उन्होंने इन सारी बातों को एक वेबसाइट पर 'इंडिया : द स्टोरी यू नेवर वॉन्टेड टु हियर' नाम से लिखा, जिसमें सारी बातों का जिक्र है। उनके ट्रिप की कहानी उन्हीं की जुबानी :
'जब लोग मुझसे पूछते हैं कि भारत में पढ़ने का मेरा अनुभव कैसा रहा तो मैं असमंजस में पड़ जाती हूं। कोई कैसे वहां की उन परिस्थितियों के बारे में बता सकता है जिसने पिछले कुछ महीनों के दौरान मेरी जिंदगी को तबाह कर दिया है, और वह भी महज एक वाक्य में।
मैं मानती हूं कि भारत बहुत खूबसूरत और बढ़िया है, लेकिन महिलाओं के लिए काफी खतरनाक भी। क्या मुझे लोगों को सिर्फ यही बताना चाहिए कि किस तरह हमने पुणे में गणेश उत्सव में डांस किया। या यह भी कि जब अमेरिकी महिलाओं ने डांस करना शुरू किया तो कैसे गणेश उत्सव रुक गया और हमारे चारों तरफ लोगों का घेरा बन गया जो हमारे हर मूव की फिल्मिंग कर रहे थे।
क्या मुझे यह भी बताना चाहिए कि जब हम एक बाजार में साड़ी खरीदने के दौरान मोलभाव कर रहे थे तो कैसे कुछ लोग हमारे ब्रेस्ट को घूर रहे थे और आहें भर रहे थे। जब लोग मेरे इंडियन सैंडल्स की तारीफ करते हैं तो क्या मुझे यह बताना चाहिए कि किस तरह जिस शख्स से मैंने सैंडल्स खरीदा वह अगले 45 मिनट तक मेरा पीछा करता रहा।
तीन महीने तक मैं ऐसी ही परिस्थितियों में रही। एक वैसे देश में जो ट्रैवलर्स के लिए स्वर्ग और महिलाओं के लिए नरक है। जहां मेरा पीछा किया गया, मुझे घूरा गया, मुझे देखकर आहें भरी गईं। '


तो ये कोई कहानी नहीं हैं बल्‍कि हमें हर रोज ऐसी समस्‍याओं से दोचार होने की एक ऐसी बानगी है जिसे किसी विदेशी महिला द्धारा अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कुछ यूं बताया गया कि भारतीय पुरुषों के सारे संस्‍कार धुल गये।
आज के दिनमिशेला क्रॉस का  ये सच, इतना बताने के लिए काफी है कि प्रेम, पवित्रता और दंभी ढकोसलों के बीच से भी औरत इनका सच जान जाती है । ये अलग बात है कि मिशेला विदेशी हैं और उन्‍होंने मीडिया के रास्‍ते अपना अनुभव बताया इसलिए ये इतना छाया भी रहा । बहरहाल जहां तक बात है हमारे देश में औरतों की तो भारतीय पुरुषवर्ग अब भी स्‍वयं को यह नहीं समझा पा रहा है कि 'औरत' खुद भी कुछ सोच सकती है..अब भी वह गाइड की भूमिका में है। वह हिदायतें देता नहीं थकता कि ऐसा करो वैसा मत करो..आदि। वो पहचानती है कि कौन क्‍या सोचता है।घर हो या बाहर...औरत कई मोर्चों पर एक साथ लड़ रही है।
 अब देश में औरत  'तुम भला क्‍या कर सकती हो' को भलीभाांति चुनौती देने का माद्दा रखती है ...सो प्‍लीज! हमें हमारी सोच और हौसलों के साथ आगे बढ़ने दो..दंभ से भरी हिदायतें देने का दौर कबका गुजर गया। हम मिशेला क्रॉस भले ही ना हों मगर उससे कम भी तो नहीं।

- अलकनंदा सिंह

गुरुवार, 6 मार्च 2014

'अपराजिता' बनने की लंबी यात्रा


जीवन में सतत् प्रयासों से प्राप्‍त  होती है 'जीने की संतुष्‍टि' ....और इस संतुष्‍टि से ही शुरू होती है 'अपराजिता'  बनने की लंबी यात्रा , जो लगातार क्रियाशील बनाये रहने को प्रेरित करती है और क्रियाशील बने रहने के लिए ज़रूरी है कि इसे सोच के स्‍तर तक ले जाया जाये ....क्‍योंकि-
जब सोच बदलेगी तभी तस्‍वीरों के नये नये रंग नज़र आयेंगे ।
जब सोच बदलेगी तभी शोषक और शोषित का आंकलन हो सकेगा।
जब सोच बदलेगी तभी आश्रित से पोषक बन पायेंगे हम।
जब सोच बदलेगी तो कांधे पर लाद  दिये गये बेचारगी के लबादे को उतार फेंकने का साहस भी जन्‍मेगा।
जब सोच बदलेगी तो प्रकृतिक संरचना में छुपी 'धारक' होने की शक्‍ति को हम नारीवादियों के हाथों यूं रोने धोने का 'टूल' नहीं बनने देंगे।
और सोच तब बदलेगी जब हम आइने से सटकर खड़े होने की बजाय अपना स्‍पष्‍ट अक्‍स देखने के लिए उससे कुछ दूरी पर खड़े होंगे। आइना अपना काम कर चुका, उसने हुबहू अक्‍स उतार दिया, मगर हम तो उससे सटकर खड़े हो गये हैं ना ..और लगे हैं आइने को गरियाने  कि उसने हमारा अक्‍स धुंधला कर दिया ...अरे भई,...अब बताइये ज़रा कि इसमें बेचारा आइना दोषी है या हम । तो फिर भूल किस छोर पर हो रही है..अब तो ये ही सोचना है...उन छोरों को पकड़ना है जो हमारी सोच को न तो आइने से दूर जाने दे रहे हैं और ना ही अपना अक्‍स देखने दे रहे हैं ।
महिला दिवस के बहाने मैं उन अक्‍सों की बात कह रही हूं जिन्‍हें बेचारगी का जामा पहना दिया गया है। सकारात्‍मक कुछ देखने नहीं दिया जा रहा। कमजोर कह कह कर महिलाओं को उनकी अपनी शक्‍ति से दूर किया जा रहा है, वो भी कुछ इस तरह कि अपने सभी प्राकृतिक गुण जान-बूझकर वह देख ही ना सके ।
लगातार औरतों को मिलती जा रही इस अजीब सी आज़ादी से कुछ प्रश्‍न और हकीकतें आपस में टकरा रहे हैं कि क्‍यों दहेज मांगने वालों में लड़कियों की संख्‍या भी बढ़ रही है..कि क्‍यों स्‍वयं औरत ही अपनी कोख से बेटे को जन्‍म देने की लालसा पाले रहती है..कि क्‍यों 'लव कम अरेंज' मैरिज का कंसेप्‍ट जोर पकड़ रहा है..कि क्‍यों दहेज हत्‍या में पहला वार सास और ननद ही करती हैं...कि क्‍यों सिर्फ स्‍त्री का बलात्‍कार ही सुर्खियों में आता है जबकि अब पुरुषों को भी इससे कहीं ज्‍यादा शिकार बनाया जा रहा है...कि क्‍यों बेटियां अपने पिताओं को ज्‍यादा प्‍यारी होती हैं बजाय मां के..। ऐसे अनेक प्रश्‍न हैं जिनमें महिला अधिकारवादियों को 'कुछ  मसाला' नज़र नहीं आता।
महिलाओं की वैयक्‍तिक और वैचारिक आज़ादी तो मुझे भी अच्‍छी लगती है मगर इस आज़ादी के लिए हम अपनी शक्‍तियों को नहीं भूल सकते। वे शक्‍तियां जिन्‍होंने हमें विश्‍व को धारण करने की क्षमता दी है।
बावजूद इसके हमें अपना ही अक्‍स देखने की कोशिशों को जारी रखना है ताकि हमें सिर्फ हमसे जाना जाये, किसी बैसाखी के मोहताज हम ना हों। चाहे वह बैसाखी किसी पुरुष की हो, संस्‍था की हो, या फिर समाज की।  स्‍थितियों के अनुकूल स्‍वयं को ढालने की हमारी शक्‍ति को कमजोरी ना समझा जाये...बस ।
कल अंतर्राष्‍ट्रीय महिला दिवस की 103वीं वर्षगांठ है, न्‍यूयॉर्क में काम के घंटे 'कम' किये जाने को लेकर चला ये अधिकारों को हासिल करने का सफ़र भारत में अभी मंज़िल से काफी दूर है ।
दुनिया की बात नहीं, अकेले हमारे देश में महिला उत्‍थान के नाम पर संगठनों का अंबार है , महिलायें ही उसकी कर्ताधर्ता हैं, पदाधिकारी हैं, सरकार से महिला कल्‍याण के नाम पर भारी धनराशि भी वसूल रही हैं, फिर भी स्‍थिति में वे कोई बदलाव नहीं कर पाईं।  यदि बदलाव इन्‍हीं के प्रयासों से आता तो दिल्‍ली के कैंडल मार्च गांव गांव में निकल रहे होते।
इसके इतर जो बदलाव आये भी हैं ,वो समय के साथ  चलकर अपनी इच्‍छाशक्‍ति से स्‍वयं महिलाओं ने ही बदले हैं।  सामाजिक संस्‍थाओं के लेबल में इन महिला संगठनों ने यदि कुछ किया है तो बस इतना कि या तो औरत को रोने धोने की पुतली  बना मीडिया के माध्‍यम से प्रचारित करवा कर कैश किया  या फिर उसे अग्रेसिव मोड में लाकर खड़ा कर दिया जहां वह भ्रमित खड़ी है..वैचारिक और वैयक्‍तिक आजादी और प्रकृतिक गुणों के बीच टकराव के संग ।
मैं ये भी शिद्दत से मानती हूं कि औरत से जुड़ा कोई भी रिश्‍ता पुरुषों की सोच का मोहताज नहीं होता और पुरुष उसे संपत्‍ति मानने की भूल ना करे मगर इसके साथ  ही हमें अपनी आजाद सोच को किन्‍हीं झंडाबरदारों का पिठ् ठू भी नहीं बनने देना है। आखिर कोई और क्‍यों ये तय करे कि  हम हमारी क्षमताओं को उसके अनुसार प्रदर्शित करें।
इस महिला दिवस पर भी तमाम रटी-रटाई बातें कही जायेंगीं..कहने वालों का एक फिक्‍स अंदाज़ होगा..खिचड़ी और बेतरतीब बालों के संग माथे पर बेहद बड़ी सी बिंदी, ओर ना छोर वाली बातों  से सजी स्‍क्रिप्‍ट के साथ, मीडिया पैनल्‍स में आंकड़ों के साथ पेश की जाने वाली औरतों की रोतलू सी तस्‍वीर...और ना जाने क्‍या क्‍या...।
 देखते हैं कि इन रटे रटाये अंदाजों के बीच से, हमारा आइना हमारे अक्‍स का किस प्रकार चित्रण करता है और हम अपने आइने से कितनी दूरी बनाकर अपना अक्‍स स्‍पष्‍ट देख पाते हैं ताकि हम सिर्फ हम हों ..कठपुतली नहीं..इस तरह हम संतुष्‍ट भी होंगी और फिर हमें अपराजिता होने से भला कौन रोक पायेगा...रास्‍तें भी हमारे हैं और मंज़िलें भी.. ।
- अलकनंदा सिंह

सोमवार, 3 मार्च 2014

गुफा में मिला 5000 साल पूर्व का महाभारतकालीन विमान!

अभी तक हम धर्मग्रंथों में ही पढ़ते ही रहे हैं कि रामायणकाल और महाभारत काल में विमान होते थे। पुष्पक विमान के बारे में भी हम सबने पढ़ा है।...लेकिन हाल ही में एक सनसनीखेज जानकारी सामने आई है। इसके मुताबिक अफगानिस्तान में एक 5000 साल पुराना विमान मिला है, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि यह महाभारतकालीन हो सकता है।
वायर्ड डॉट कॉम की एक रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि प्राचीन भारत के पांच हजार वर्ष पुराने विमान को हाल ही में अफ‍गानिस्तान की एक गुफा में पाया गया है। कहा जाता है कि यह विमान एक 'टाइम वेल' में फंसा हुआ है अथवा इसके कारण सुरक्षित बना हुआ है। यहां इस बात का उल्लेख करना समुचित होगा कि 'टाइम वेल' इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शॉकवेव्‍स से सुरक्षित क्षेत्र होता है और इस कारण से इस विमान के पास जाने की चेष्टा करने वाला कोई भी व्यक्ति इसके प्रभाव के कारण गायब या अदृश्य हो जाता है।
कहा जा रहा है कि यह विमान महाभारत काल का है और इसके आकार-प्रकार का विवरण महाभारत और अन्य प्राचीन ग्रंथों में‍ किया गया है। इस कारण से इसे गुफा से निकालने की कोशिश करने वाले कई सील कमांडो गायब हो गए हैं या फिर मारे गए हैं।
रशियन फॉरेन इंटेलिजेंस सर्विज (एसवीआर) का कहना है कि यह महाभारत कालीन विमान है और जब इसका इंजन शुरू होता है तो इससे बहुत सारा प्रकाश ‍निकलता है। इस एजेंसी ने 21 दिसंबर 2010 को इस आशय की रिपोर्ट अपनी सरकार को पेश की थी।
रूसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस विमान में चार मजबूत पहिए लगे हुए हैं और यह प्रज्जवलन हथियारों से सुसज्जित है। इसके द्वारा अन्य घातक हथियारों का भी इस्तेमाल किया जाता है और जब इन्हें किसी लक्ष्य पर केन्द्रित कर प्रक्षेपित किया जाता है तो ये अपनी शक्ति के साथ लक्ष्य को भस्म कर देते हैं।
ऐसा माना जा रहा है कि यह प्रागेतिहासिक मिसाइलों से संबंधित विवरण है। अमेरिकी सेना के वैज्ञानिकों का भी कहना है कि जब सेना के कमांडो इसे निकालने का प्रयास कर रहे थे तभी इसका टाइम वेल सक्रिय हो गया और इसके सक्रिय होते ही आठ सील कमांडो गायब हो गए।
वैज्ञानिकों का कहना है कि यह टाइम वेल सर्पिलाकार में आकाशगंगा की तरह होता है और इसके सम्पर्क में आते ही सभी जीवित प्राणियों का अस्तित्व इस तरह समाप्त हो जाता है मानो कि वे मौके पर मौजूद ही नहीं रहे हों।
एसवीआर रिपोर्ट का कहना है कि यह क्षेत्र 5 अगस्त को पुन: एक बार सक्रिय हो गया था और इसके परिणाम स्वरूप 40 सिपाही और प्रशिक्षित जर्मन शेफर्ड डॉग्स इसकी चपेट में आ गए थे। संस्कृत भाषा में विमान केवल उड़ने वाला वाहन ही नहीं होता है वरन इसके कई अर्थ हो सकते हैं, यह किसी मंदिर या महल के आकार में भी हो सकता है।
ऐसा भी दावा किया जाता है कि कुछेक वर्ष पहले ही चीनियों ने ल्हासा, ति‍ब्बत में संस्कृत में लिखे कुछ दस्तावेजों का पता लगाया था और बाद में इन्हें ट्रांसलेशन के लिए चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में भेजा गया था।
यूनिवर्सिटी की डॉ. रूथ रैना ने हाल ही इस बारे में जानकारी दी थी कि ये दस्तावेज ऐसे निर्देश थे जो कि अंतरातारकीय अंतरिक्ष विमानों (इंटरस्टेलर स्पेसशिप्स) को बनाने से संबंधित थे।
हालांकि इन बातों में कुछ बातें अतरंजित भी हो सकती हैं कि अगर यह वास्तविकता के धरातल पर सही ठहरती हैं तो प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के बारे में ऐसी जानकारी सामने आ सकती है जो कि आज के जमाने में कल्पनातीत भी हो सकती है।
रामायण में भी पुष्पक विमान का उल्लेख मिलता है जिसमें बैठकर रावण सीताजी को हर ले गया था। हनुमान भी सीता की खोज में समुद्र पार लंका में उड़ कर ही पहुंचे थे। रावण के पास पुष्पक विमान था जिसे उसने अपने भाई कुबेर से हथिया लिया था।
राम-रावण युद्ध के बाद श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण तथा अन्य लोगों के साथ सुदूर दक्षिण में स्थित लंका से कई हजार किमी दूर उत्तर भारत में अयोध्या तक की दूरी हवाई मार्ग से पुष्पक विमान द्वारा ही तय की थी। पुष्पक विमान रावण ने अपने भाई कुबेर से बलपूर्वक हासिल किया था। रामायण में मेघनाद द्वारा उड़ने वाले रथ का प्रयोग करने का भी उल्लेख मिलता है।
आज भी इंका सभ्यता के खंडहरों और पिरामिडों (मिस्र के बाद पिरामिड यहां भी मिले हैं) के भित्तिचित्रों में मनुष्यों के पंख दर्शाए गए हैं तथा उड़नतश्तरी और अंतरिक्ष यात्रियों सरीखी पोशाक में लोगों के चित्र बने हैं। इसके अलावा मध्य अमेरिका से मिले पुरातात्विक अवशेषों में धातु की बनी आकृतियां बिलकुल आधुनिक विमानों से मिलती हैं। माचू-पिच्चू की धुन्ध भरी पहाड़ियों में रहने वाले कुछ समुदाय वहाँ पाए जाने वाले विशालकाय पक्षी कांडोर को पूजते हैं और इस क्षेत्र में मिले प्राचीन भित्ति चित्रों में लोगों को इसकी पीठ पर बैठ कर उड़ते हुए भी दिखाया गया है।
इन सभी उल्लेखों में मनुष्य द्वारा आकाश में उड़ने की बात इतनी बार बताई गई है, जिससे विश्वास होता है कि कई प्राचीन सभ्यताएं कोई ऐसी तकनीक का आविष्कार कर चुकी थीं जिनकी सहायता से वे आसानी से आकाश में उड़ सकती थीं। इन सभ्यताओं ने हजारों साल पहले पिरामिड, चीन की दीवार से लेकर झूलते बचीगे जैसे स्थापत्य कला के जो नायाब नमूने बनाए थे उसे देखकर इस बात पर कतई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

रविवार, 2 मार्च 2014

फिर से परिभाषित हो धर्म (स्‍वामी रामकृष्‍ण परमहंस के जन्‍मदिन पर)

आसमान में घिर आये बादलों को देखकर गदाधर कुछ ठिठक गया और उन बादलों की बनती-बिगड़ती छाया को देखने लगा जिन पर डूबते सूरज के लाल नारंगी रंग छा रहे थे । इतने में ही बगुलों का एक झुंड उड़ा और बादलों में समा गया, अभी गदाधर देख ही रहा था कि उन्‍हीं बादलों से वही बगुलों का झुंड काले बादलों को चीरता हुआ निकला तो जो दृश्‍य उभरा था वो बेहद अद्भुत था ...काले-काले बादल और उनमें से निकलता सफेद बगुलों का झुंड..जैसे किसी अंधेरी कोठरी से निकलता प्रकाश पुंज..किशोर गदाधर प्रकाश पुंज को देखकर विभोर हुआ और अद्भुत.. अद्भुत.. कहते हुये धरती पर गिर गया, गिरते ही बेहोश हो गया ।
जी हां, ये प्रकाशपुंज को देख बेहोश होने वाला किशोर गदाधर चट्टोपाध्‍याय...कोई और नहीं बल्‍कि 19वीं सदी के महान संत रामकृष्‍ण परमहंस स्‍वयं ही थे जो आज फाल्‍गुन शुक्‍ला द्वितीया को जन्‍मे  थे।
वही रामकृष्‍ण जो अपनी पत्‍नी को 'मां' बोलते थे और यूं नहीं कि बाद में कहने लगे हों। ये शुरुआत तब ही हो चुकी थी जब गदाधर अर्थात् रामकृष्‍ण मात्र चौदह वर्ष के थे, तब उनको वह पहली समाधि हुई जिसका मैंने शुरू में उल्लेख किया है। उस मस्‍ती और बेहोशी के बाद बमुशिकल से वे होश में लाए जा सके।
उनसे परिजनों ने पूछा, क्‍या हुआ?
उन्‍होंने कहा, अद्भुत हुआ, बड़ा आनंद आया। बार-बार ऐसा ही होना चाहिए। अब मुझे होश में रहने की.....जिसको तुम होश कहते हो......उसमें रहने की कोई इच्‍छा नहीं है। परिवारीजनों ने सोचा कि लड़का यूं भी साधु-संग करता है, सतसंग जाता है और आज ये बेहोशी की घटना। जल्‍दी से विवाह कर दिया जाये ताकि यह रास्‍ते पर आ जाये। इस मामले में जैसे ही रामकृष्‍ण से पूछा कि बेटा, विवाह करोगे?
राम कृष्‍ण ने कहा, करेंगे। घर के लोग थोड़े चौंके, उन्‍होंने सोचा था यह इंकार करेगा मगर हुआ इसका उल्‍टा।
पास में ही गांव में एक लड़की खोजी गई। रामकृष्‍ण को दिखाने ले गए। रामकृष्‍ण को जब लड़की मिठाई परोसने आई। रामकृष्‍ण ने देखा। शारदा उसका नाम था। जेब  में मां ने जितने रूपए रख दिए थे, सब निकाल कर उसके पैरों पर चढ़ा दिए और कहा कि 'तू तो मेरी मां' है।
शादी हो गई पर लोगों ने कहा, तू पागल है  रे, पहले तो शादी करने की इतनी जल्‍दी हां कर दी और अब पत्‍नी को मां कह रहा है मगर उसने कहा कि यह तो मेरी मां है, शादी होगी, मगर यह मेरी मां ही रहेगी।
शादी भी हो गई। शादी से इंकार भी नहीं, यह सचमुच अद्भुत था। नोट देखकर आंखें बंद करने वाले विनोबा जैसे नहीं थे रामकृष्‍ण। शादी से भी नहीं भागे और फिर पत्‍नी को जीवनभर मां ही माना। हर वर्ष जब बंगाल में काली की पूजा होती, तो वे काली की पूजा तो करते थे मगर जब काली की पूजा का दिन आता, उस दिन वे शारदा की पूजा करते थे। और यूं नहीं, शारदा को नग्‍न बैठा लेते थे सिंहासन पर। नग्‍न शारदा की पूजा करते थे और फिर चिल्‍लाते, रोते, नाचते, मां और मां की गुहार लगाते। शारदा पहले तो बहुत बेचैन होती थी कि किसी को पता न चल जाए कि यह पति क्‍या कर रहा है, कोई क्‍या कहेगा। मगर धीरे-धीरे शारदा के जीवन में भी रामकृष्‍ण ने क्रांति ला दी।
सर्वग्राह्य कर सर्व त्‍याज्‍य तक की यात्रा का नाम बने रामकृष्‍ण ने पत्‍नी को छोड़ा नहीं, उसके साथ रहकर भी वे कहते यही हैं, कामिनी-कंचन से मुक्‍त हो जाओ। पदार्थ में रहकर भी पदार्थ से मुक्‍ति..जल में रहकर भी प्‍यास से मुक्‍ति और ऐसे रहते हुए ही परमात्‍मा की प्राप्‍ति ..एकदम निर्विकल्‍प समाधि की अवस्‍था का ज्ञान व उसे अनुभव करने का विचार रामकृष्‍ण ने आने वाली पीढ़ी के लिए पोषित किया।
उन्‍होंने कामिनी-कंचन से मुक्‍ति नहीं, बल्‍कि उसके संग रह कर... कामिनी-कंचन को निरापद भी नहीं माना, कोई अवहेलना नहीं करते हुए परम तत्‍व में स्‍वयं को सशरीर घोल दिया और इस तरह परमहंस पद पाया। रामकृष्‍ण ने वही किया......अतिक्रमण किया आध्‍यात्‍म से भौतिक रूप का, मगर उन्‍हें इसे प्रगट रूप में बताने वाली भाषा का साफ-साफ ज्ञान-भेद नहीं था। वे बोलते रहे अपने पुराने ढंग में, पुरानी शैली में इसीलिए जनसाधारण उन्‍हें उनकी तरह से समझ नहीं पाया और उन्‍हें अपनी समझ से परे कर दिया। स्‍वामी विवेकानंद ने रामकृष्‍ण के उस अव्‍यक्‍त परमतत्‍व को जाना और इस तरह रामकृष्‍ण परमहंस कोलकाता के दक्षिणेश्‍वर काली मंदिर से निकल शब्‍दरूप में लोगों के सामने लाये जा सके।
ईश्‍वरीय शक्‍ति के इसी अद्वैत भाव को उन्‍होंने इस्‍लाम और क्रिश्‍चिएनिटी का पूरा पूरा सम्‍मान करके व्‍यापक बनाया और इसी अद्वैत भाव से चला रामकृष्‍ण मिशन, जिसमें जनहित में कल्‍याणकारी कार्यों को पूरे देश में फैलाया गया।
मौजूदा समय में लाखों संतों की भीड़ होते हुए रामकृष्‍ण जैसा कौन है ? अधिकांशत: जो संत हैं भी वो तो अपने-अपने भय के भूतों का सिर्फ निवेदन कर रहे हैं। वे कामिनी और कंचन दोनों से डरे हुए हैं क्‍योंकि स्‍त्री में सुख की आशा मालूम पड़ती है और धन से वैभव दिखता है। वे डरे हुए हैं इसलिए अपने भय को भूत को भगाने के लिए दोनों को गालियां दे रहे हैं। अब वक्‍त आ गया है कि यह पुराना ढर्रा बंद करके धर्म को नए सिरे से परिभाषित किया जाए ताकि रामकृष्‍ण की तरह  रस में रहते हुये रसहीन होकर परम तत्‍व में विलीन हुआ जा सके। दुष्‍कर है मगर असंभव नहीं...मन को नियंत्रण करने में।

यजुर्वेद का एक शिवसंकल्‍प सूत्र है जो बेहद कामयाब रहा है -

यज्‍जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्‍तस्‍य तथैवेति।
दूरंगमं ज्‍योतिषां ज्‍योतिरेकं तन्‍मे मन: शिवसंकल्‍पमस्‍तु।।

- अलकनंदा सिंह